Thursday, 14 February 2013

गुरू के मौत का जश्न!


गुरू के मौत का जश्न!


मौत चाहे किसी का भी हो-नक्सलवादी या अलगाववादी-जश्न नही मनाया जा सकता, क्योंकि ये हमारे ही सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था की विफलता का परिणाम है|


सुबह सवा पांच बजे का वक्त था| हर रोज की भाँति साधना पर बैठे तो घंटों बैठे रह गए| सवा छ: बजे साधना समाप्त हुई, फिर दिनचर्या के साथ किताबों और अख़बारों में खो गए| इस बीच ८.१५ पर मैंने अपने साथ रहने वाले सहयोगियों से सत्तू पीने की इच्छा ज़ाहिर की तो उधर से जवाब आया कि सर अभी-अभी न्यूज़ फ़्लैश हो रहा है कि अफज़ल गुरु को फांसी दे दी गई है| मेरे हृदय ने मन को जवाब दिया चलो बैमनस्य-मन से ही सही कानून ने अपना काम करके राजनीतिज्ञों और बहुसंख्यक-अशिक्षित-भ्रष्टाचारी भाग्य-किस्मत-कर्मकांड-बुराइयों के सहारे जीने वालों को खुश तो कर दिया| पुन: संतुष्ट कर दिया| इस पूरे वाकये में सबसे अधिक परेशान मुझे सर्वोच्च न्यायालय का वाक्य-“the collective conscience of the society will only be satisfied if the capital punishment is awarded to the offender” किया| ...समाज की सामूहिक चेतना तभी संतुष्ट हो सकती है जब अपराधी को फांसी दे दी जाए...! मैंने कई बार कानूनविदों को कहते सुना है कि न्यायालय कभी भी भावनाओं में आकर निर्णय नहीं ले सकती| जनाक्रोश या अख़बारों के न्यूज को देखकर हमारा न्याय प्रभावित नहीं होना चाहिए| एक ही न्यायप्रणाली के दो विचार कैसे हो सकते हैं? एक तरफ राष्ट्र और जनसमूह को संतुष्ट करने की बात और दूसरी तरफ कानून को जज्बात से ऊपर उठकर अमल में लाने की बात! समझना कठिन हो गया है कि  हमारी न्याय व्यवस्था किसे संतुष्ट करना चाहती है? ऐसी जनता को जो या तो निरक्षर है या अशिक्षित या भ्रष्ट? ऐसी राष्ट्र की जनता जिनका लोकतांत्रिक विचार और समझ अभी अधकचरा है| अपनी कोई समझ नहीं है| राष्ट्र या समाज मनुष्य से बनता है| मानव अस्तित्व को अगर समाप्त कर दिया जाये तो राष्ट्र या समाज के अस्तित्व का कोई मतलब नहीं है| कोई भी कानून मनुष्य को ध्यान में रखकर ही बनाया गया| जिससे सुंदर समाज और राष्ट्र का निर्माण हो सके| मनुष्य का अस्तित्व बचेगा तो कानून का अस्तित्व बचेगा|


कानून यह भी कहता है कि सौ दोषी भले ही छूट जाये लेकिन एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए| लेकिन जो न्यायादेश अफज़ल गुरु के बारे में दिया गया है वह भावनाओं पर दिया गया है| सब जानते हैं कि लोकतंत्र चार खंभे पर आधारित है| इनमे विधायिका और कार्यपालिका को समाज और जनाक्रोश का प्रत्यक्ष रूप से सामना करना पड़ता है अतः मेरे समझ से इन दोनों संस्थाओं को भावना के आधार पर बहुत सारे निर्णय लेने पड़ सकते हैं| उसे जनता के भावनाओं को देखकर चलना होता है| और सबसे बड़ी बात, जनता इन्हें शक के निगाहों से देखती है| परन्तु न्यायपालिका और जनसंचार-माध्यम(पत्रकारिता) को जनाक्रोश का प्रत्यक्ष सामना नही के बराबर करना पड़ता है| किन्तु इन दोनों का प्रभाव जनता की सोच पर बहुत गहराई से पड़ता है| और जनता इन पर लगभग आँख मूंद कर भरोसा करती हैं| इनकी सोच से जनसमूह का सोच और प्रतिक्रिया दिशानिर्देशित होती है| ऐसे में जब इनती महत्व पूर्ण संस्थाएं भावना के आवेग में बह कर निर्णय लेंगे तो हमारा और हमारे लोकतंत्र का क्या होगा?

इस घटना के बाद अख़बारों की जो प्रतिक्रियाएं देखने को मिली बदले की भावना स्पष्ट परिलक्षित हो रहा था| मेरे समझ से ऐसी परिस्थितियों में भावनाओं को नियंत्रण में रखना चाहिए था| अख़बार-टीवी मन:स्थिति को बनाता और बिगाड़ता है| तब वह भावनाओं में बह जाएँ, तो जनता और लोकतंत्र का क्या होगा? हम सब जानते हैं कि लोकतंत्र पारदर्शिता के बिना नहीं चल सकता| लोकतंत्र की प्राणवायु है पारदर्शिता| इसलिए लोकतंत्र के चारों स्तंभ-विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया को अपने कार्यप्रणाली में सदा पारदर्शिता बनाये रखना चाहिए| और अफजल गुरु के मामले में पारदर्शिता का अभाव नज़र आया| फांसी के बाद आज बार-बार जो सवाल बुद्धिजीवी, लेखक, समाजसेवी के द्वार खड़े किया जा रहे हैं इसका कारण है- सरकार के द्वारा पारदर्शिता नहीं बरतना| सरकार को यह समझना चाहिए कि अफज़ल हमारे समाज का प्रोडक्ट है| डॉक्टर बनने की ख्वाहिश रखने वाला एक व्यक्ति किन कारणों से अलगाववादी संगठन से जुड़ते हैं| यह सवाल खड़ा करता है समाज, सरकार और हमारी व्यवस्था पर| हममेसे किसी ने यह पाड़ताल करने की कोशिश नही की कि आखिर हमारी किन ग़लत नीतियों के कारण ऐसी घटना हुई|


हमारी सरकार मानसिक स्तर पर सोच रखकर सजा की बात करती है, वहां सुधार का दृष्टिकोण सिर्फ नाम के लिए रहता है| हमेशा से देखा और कहा गया है कि सजा का दृष्टिकोण सुधार ही हो| मनुष्य मानसिक स्तर पर जो भी विचार लाता है उसमे शुद्धता नहीं रह जाती है| उसमे गति नहीं रहती| इसलिए देखा गया है कि मानसिक स्तर से ऊपर है अध्यात्मिक स्तर| वह देश काल पात्र से ऊपर होता है| मानसिक स्तर से सोचने वाले लोग, या उनका विचार देश काल पात्र से प्रभावित होता है| इसलिए दुनिया में लोग ऐसा सोचते है कि मृत्यु की सजा देने से आचार, विचार में परिवर्तन होगा, ऐसा नहीं है| मृत्युदंड समाज परिवर्तन का कोई निदान नहीं हो सकता| इतिहास में ऐसे लोगों का भी नाम दर्ज है जिसमे सुधार भी हुए और लोगों ने प्रेरणा भी ली| जैसे बुद्ध के काल में अंगुलिमाल का अध्यात्मिक परिवर्तन हुआ, नारद के द्वारा बाल्मीकि को आध्यामिक ज्ञान प्राप्त हुआ, २१वीं सदी में, कालीचरण से सन्यासी कालिकानंद का बनना, यह सब अध्यात्मिक परिवर्तन का देन है| इसलिए समाज में जररूरत है शिक्षा के साथ अध्यात्मिक-विज्ञान की| जिसे प्राइमरी स्तर से ही देना चाहिए| एक बात समाज और सरकार और मीडिया को जरुर सोचना चहिए- आदि काल में मनुष्य या समाज का शारीरिक से मानसिक विकास हुआ और वैश्य युग में जिसे हम वर्त्तमान युग कह सकते हैं, विकास का सारा आकलन धन से आँका जा रहा है| इसलिए आज नितांत जरुरत है, प्रबुद्ध लोग इस पर मंथन करें और इस युग को अध्यात्मिक युग बनाने के लिए अध्यात्मिक-विज्ञान का शिक्षा देकर वसुधैव कुटुम्बकम की स्थापना करें|

पूर्व में देखा गया है कि जो भी महापुरुष या प्रबुद्ध लोग आये उन्होंने अध्यात्मिक साधना के बदौलत किसी की गलतियां नहीं देखी, ना ही बुराइयां की| ऐसे महापुरुष हमेशा सुधारने का काम किये| जैसे नानक, महावीर, नारद, गुरु गोविन्द और भारतीय संस्कृति की आधारशीला यही रही है| हमारी संस्कृति में हमेशा सुधार का  दृष्टिकोण रहा है| पहले ज़माने में ऐसी सजा दी जाती थी जिससे लोग पश्चाताप करके सुधार ला सकें, क्योंकि महापुरुष जानते थे कि उर्जा कभी नष्ट नहीं होती| इसलिए वे उसकी मानसिकता के परिवर्तन का प्रयास करते थे| राजा अशोक भी एक क्रूर शासक था, परन्तु बुद्ध ज्ञान के बाद उनमे भी परिवर्तन हुआ, पश्चाताप भी हुआ| गाँधी जी ने हिंसा का सहारा नहीं लिया| हमेशा सुधार का पक्ष लिया| विवेकानंद ने हमेशा सोच बदलने का प्रयास किया| क्योंकि सोच बदलेगी तो पश्चाताप होगा, तो सुधार होगा| चाणक्य ने नन्द रजा को हटा दिया, उसकी हत्या नहीं की, सिर्फ चन्द्रगुप्त को राज पर बैठाया था| एक घटना का उल्लेख करना मैं उचित समझता हूँ| एक बार बादशाह अकबर हाथी से सैर कर रहे थे| एक आदमी छत पर चढ़ कर उन्हें गाली देने लगा| तो उसे सिपाहियों ने पकड़कर अकबर के सामने हाज़िर किया| अकबर ने उससे पूछा कि तुमने हमें गाली क्यों दी? उस व्यक्ति ने कहा कि मैंने गाली नहीं दी, तो अकबर ने कहा कि तुम्हे गाली देते हुए मेरे सिपाहियों ने पकड़ा है| तब उसने कहा कि मैंने गाली नहीं दी, उस वक्त मैं शराब पिए हुआ था| उस वक्त मेरा विवेक मेरे साथ नहीं था| अभी मैं बिलकुल होश में हूँ| आपका बड़ाई कर रह हूँ| तो अकबर ने उसे छोड़ दिया| यहाँ एक बात और बता दूं, एक बच्चा पांच दिनों से भूखा था, तो उसने खाने के लिए चोरी की| दूसरी तरफ एक ऐसे लोग हैं जो चोरी के कारण किसी की हत्या करना चाहते हैं| एक ही घटना में दो अलग-अलग कारणों से दो सोच है| इसलिए न्याय देते वक्त गलती को देखना चाहिए|

यही स्थिति कसाब और अफज़ल के बीच है| कसाब गलत सेंटिमेंट में आकर भारत को नुकसान पहुँचाना उसका मकसद था| दूसरी तरफ अफज़ल, जो हमारी ही व्यवस्था के कारण, हमारी ही व्यवस्था के खिलाफ लड़ने को तैयार हो जाता है| इसी जगह यदि न्यायपालिका, भारत-राष्ट्र और राष्ट्र की जनता को ध्यान में रखकर न्याय नहीं देते तो अफज़ल एक सकारात्मक उर्जा लेकर भारत का कल्याण कर सकता था| इसलिए कहा गया है कि सोचने का ढंग महत्वपूर्ण है| जैसे फांसी देना एक नेगेटिव सोच है और सुधार की भावना पोजिटिव सोच| इसलिए देखा गया है जिस मनुष्य के भीतर सुधार की गुन्जाइस होती है उस मनुष्य को सुधार के लिए मौका दिया जाता था| और आज भी ऐसे मनुष्य को सुधरने के लिए मौका देना चाहिए| ५० वर्षीय अफज़ल को जो एक मध्य वर्गीय परिवार से थे, अफज़ल का स्कूल के सभी कार्यक्रम में सक्रिय रहना और भारत के स्वतंत्रता दिवस के परेड में अगुवाई करने का जज्बा और स्कूल में हमेशा अच्छे अंकों से उतीर्ण करना उसके जज्बे और आचरण को दर्शाता है| मेडिकल का एक छात्र का आतंकवाद के काली दुनियां में प्रवेश कर जाना, कहीं ना कहीं हमारी व्यवस्था और सरकार पर उंगली उठता है| भारतीय सेनाओं के द्वार कई बार कथित रूप से बलात्कार उस वक्त आम बात हो गई थी| बलात्कार की घटना ही अफज़ल को गहरा आघात पहुँचाया था, जिसके कारण भारत विरोधी जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट में शामिल हुआ| जब वे हथियार प्रशिक्षण के बाद लौटे तो वे ३०० कश्मीरी नौजवान के साथ अलगाववादी आन्दोलन में शामिल हो गए| लेकिन ये जगजाहिर था कि अफज़ल खून-खराबे को कतई पसंद नहीं करता था| यह बात भी जगजाहिर है कि जब कश्मीर में हिजबुल मुजाहिद्दीन और कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का टकराव शुरू हुआ तो अफज़ल ने ३०० नौजवानों की बैठक बुलाई और ऐलान कर दिया की इस मार-काट में भाग नहीं लेंगे| और यही कारण था कि सारे इलाके में सैंकड़ों मुजाहिद्दीन मारे गए, लेकिन उसका इलाका शांत रहा| उसे बाद अफज़ल अपने गाँव को छोड़, दिल्ली और श्रीनगर में रहने लगा| दिल्ली में अर्थशास्त्र के डिग्री के साथ-साथ अपने ही ट्यूशन के साथ-साथ अपना पढाई के साथ जीवन चलाते रहे और थोड़े ही समय बाद अमेरिका में नौकरी करने चले गए| अमेरिका से लौटने के बाद अफज़ल नौकरी करने लग| अचानक उसके माता-पिता ने उसकी शादी कर दी|

इसी बेच क्षेत्रीय फौजी कैंप पर हाज़िर होने का आदेश और पुलिस के ज्यादती के कारण अफज़ल की सोच को पुन: मोड़ दिया| फिर वही हुआ जिसका डर था| गहरी साजिश के तहत अफज़ल को संसद हमले का मुख्य आरोपी बना दिया| भारत की पुलिस और सी.बी.आई. इतनी तेज़-तर्रार है कि कुछ ही घंटों, दिनों, महीनों में सबूत इकठ्ठा कर किसी को नक्सलवादी, आतंकवादी बना देते हैं| इसलिए तो आज चारों तरफ आवाज़ उठ रहा है कि खून के बदले खून सभ्य समाज की पहचान हो सकती है क्या| समाजशास्त्री दीपंकर गुप्ता का कहना है कि मृत्युदंड एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है जैसे बाइबिल में कहा गया है कि आँख के बदले आंख, हाथ के बदले हाथ और शुरू से कहा गया है जैसे को तैसा|

        


लेकिन लोकतंत्र वह होता है जिसमे हम नए-नए सोच अपनाते हैं| इसलिए मृत्युदंड की सोच से ना तो हम आगे बढ़ सकते हैं और ना ही लोकतंत्र को समर्थ कर सकते हैं| दुनिया में जब फांसी जैसी सजा को ख़त्म करने की बात चल रही है, ऐसी ही समय में भारत के लिए उन देशों में शामिल होने की बात हो रही थी कि अचानक पिछले दिनों ही सुबह में कसाब को फांसी, पुन: शनिवार को अफज़ल को फांसी पर लटका दिया गया| भारत का ऐसे देशों की सूची में शुमार होने का कोई इरादा नहीं है|

अतीत बताता है कि जिन देशों में फांसी की सजा को कम किया गया, वहां सोचने वाले विचारवान लोगों ने, नेतृत्व करने वालों लोगों ने इसकी मांग की है, और आज हमारे देश में कभी हिन्दू जैसा कोई अख़बार एडिटोरियल देकर काम चला लेते हैं| और कोई समाजसेवी इसके बारे में लेख लिख लेते हैं| लेकिन आज भी हमारे यहाँ ये सोच नहीं बनी है क्योंकि जिन लोगों को इसके खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए या जिन लोगों का प्रभाव है, वे ना तो आवाज़ उठा रहे हैं ना कुछ कर पा रहे हैं| क्योंकि भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ प्रबुद्ध व्यक्ति ऐसा सोचते हैं कि हम आम जनता से अलग हैं| गुस्सा आता है ऐसे प्रबुद्ध और भले लोगों पर जो गलत को गलत नहीं कहते| कौन सा ऐसा कानून , धर्म, समाज इस बात की इजाजत देता है कि बिना परिवार को जानकारी दिए फांसी दे दी जाए| ऐसा कौन सी जरुरत आन पड़ी कि बिना परिवार को जानकारी दिए हुए फांसी दे दी गई? अफज़ल के ही मामले में ही इतनी गलतियां क्यों? एक तरफ तो उनके मामले को सही तरीके से नहीं देखा गया, ना ही उनका मानवाधिकार संरक्षित हुआ, और दूसरी तरफ फांसी के वक्त भी कानून को अमलीजामा नहीं पहनाया गया| क्या आतंकवादी या नक्सलवादियों के पत्नियों का कोई डेमोक्रेटिक राईट नहीं होता? या वोट की राजनीती में कानून के साथ-साथ हमारे मर्याद को भी कोठी के ताक पर रख दिया है?

                  


इससे अच्छा तो लगता है कि नेपाल का मुखेर कानून ही ठीक है| एक तरफ तोहम लोकतंत्र की बात करते हैं, दूसरी तरफ कानून को धता बताते हुए हमारे देश में जो अभिव्यक्ति की आज़ादी है उसे भी छीन लेते हैं| किस कानून के तहत आप अफज़ल की लाश को नहीं देना चाहते? क्यों हमारा सभ्य समाज चुप हैं और कब तक चुप रहेगा? किसी ने सही ही पूछा है-‘क्या भारत का खून का कटोरा अभी आधा भी नहीं भरा है?’ मौत चाहे किसी की भी हो भले ही वो आतंकवादी या नक्सलवादी हो, उसके मौत का जश्न नहीं मनाया जा सकता| क्योंकि वो हमारे ही समाज का उपज है|

Friday, 28 December 2012

बलात्कारी कौन ?


रिश्तों के आड़ में छुपे बलात्कारियों को कौन सा कानून और कंदील रोकेगा?   


आदिकाल से मनुष्य बाहरी शक्ति का उपासक है| बाहरी शक्ति से मेरा तात्पर्य भौतिक शक्ति से है| जबकि असल में मनुष्य अपने कर्म का निर्णय लेता है आतंरिक शक्ति अर्थात मन से| मनुष्य का मन प्रधानत: तीन गुणों से प्रभावित होता है- सतो गुण (सात्विक), रजो गुण (राजसिक) और तमो गुण (तामसिक)| इन तीनों गुणों का जिस मन में संतुलन है वहीं शांति है| मन पर जब सतो गुणों का प्रभाव रहता है, तो मन में अच्छे विचार आते हैं और मनुष्य सद कार्य को प्रेरित होता है| रजो गुण का प्रभाव रहेगा तो मन में चंचलता, आवेग, जोश, नाच-गान, उछल-कूद करने का भाव पैदा होता है| मन में नाम, यश, धर्म प्राप्ति की भूख होती है| और इसी तरह तमो गुण का प्रभाव जब मन पर रहेगा तब मन में किसी का शोषण करने, परेशान करने, कष्ट देने जैसा भाव पनपता है| तथा साथ-साथ भय, आहार और मैथुन की प्रबलता रहेगी| इसलिए आज जररूरत है मन पर नियंत्रण रखने की| मनुष्य को यम-नियम के अभ्यास की आवश्यकता होती है जिसके कारण मन में शुद्धता और पवित्रता आती है| तब मन नियंत्रण में रहता है |

मन का उत्स ईश्वरी भाव है पर मानव का विकास पशुता से अग्रसर होते हुए हुआ है| इसलिए मनुष्य के मन में दोनो तरह के गुण मौजूद हैं- दैवीय गुण और पशुवत गुण| इन्हीं कारणों से मनुष्य का एक विचार उसे ऊपर उठाता है, तो दूसरा नीचे गिराता है| मनुष्य का व्यक्तित्व उसके विचारों का प्रोडक्ट होता है| एक मनुष्य होता है जिसके भीतर नैतिकता नाम की कोई चीज़ नहीं होती है, दूसरा मनुष्य होता है जिसके भीतर सहज नैतिकता होती है और तीसरा मनुष्य होता है जिसके भीतर अध्यात्मिक नैतिकता होती है| सहज नैतिकता वाले मनुष्य की  वृति लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष के आवेग में टूट जाता है| परन्तु जहाँ अध्यात्मिक नैतिकता होती है वहाँ व्यक्ति इष्ट के प्रति समर्पित होता है| ऐसे लोगों का नैतिक पतन असंभव सा होता है| मनुष्य के नैतिक उत्थान के लिए साधना और ध्यान में प्रतिष्ठित होना आवश्यक है| सिर्फ वही व्यक्ति समाज का कल्याण कर सकता है, जो ध्यान में प्रतिष्ठित है| क्योंकि वह व्यक्ति इस बात को मान कर समाज में जीता है (हरेड़ पिता, गौरी माता, स्वदेशो त्रिभुवन) परम पिता परमात्मा मेरे पिता हैं, परमा प्रकृति मेरी माँ है और त्रिभुवन मेरा घर है| हम सभी जीव-जंतु मनुष्य उसी परम पिता के संतान हैं इसलिए वह व्यक्ति किसी भी तरह का सामाजिक शोषण बर्दास्त नहीं करेगा| इसलिए मानव समाज को नैतिक मूल्यों को ग्रहण कर अध्यात्मिक पथ पर चलना ही होगा|

वर्तमान में जो शिक्षा मनुष्य को दी जाती है, उससे लोगों के नैतिक मूल्यों का उत्थान नहीं हो पता| ऐसी शिक्षा से मनुष्य का नैतिक पतन होने की अत्यधिक सम्भावना बनी रहती है| मनुष्य का शारीरिक एवं मानसिक विकास हो जाने से उसका पूर्ण विकास नहीं माना जा सकता| आदि काल में जो लोग शारीरिक रूप से बलवान होते थे वही राज करते थे, नेतृत्व  करते थे | उस युग को क्षत्रिय युग कहते थे| परन्तु जब बुद्धिजीवी वर्ग नेतृत्व करने लगे तो उसे विप्र युग कहने लगे| परन्तु समाज में नैतिक पतन की स्थिति वही रही | नैतिक उत्थान के लिए समय-समय पर बुद्ध,  गुरूनानक, मोहम्मद जैसे महापुरुष धरती पर आकर उत्थान किये हैं| नैतिक उत्थान के लिए जो शिक्षा-दीक्षा है, वह सिर्फ अध्यात्मिक क्षेत्र है| इसलिए मानव समाज के मानसिक विकास के साथ-साथ अध्यात्मिक विकास आवश्यक है| जिस तरह विज्ञान, भूगोल, इतिहास की पढाई होती है, उसी तरह अध्यात्मिक विज्ञान की पढाई नीचे क्लास से ही होनी चाहिए, तभी हम नैतिकवान व्यक्ति का निर्माण कर पाएंगे | उसी से सामाजिक परिवेश भी सुंदर बनेगा| तभी जाकर नैतिक ह्रास या नैतिक अवनति नहीं होगी| आज जरुरत है इसी तरह कि सामाजिक परिवेश बनाने की| ताकि आदमी अच्छे कर्मों या अच्छे कार्यों को करने में उत्साह दिखा पाएंगे और बुरे कर्म करने वालों को प्रोत्साहन नहीं मिल पायेगा| अध्यात्म से आतंरिक अनुशासन का विकास होता है| व्यवस्था मात्र बाहरी अनुशासन विकसित करता है| जबकि मनुष्य आतंरिक कारणों से ही अच्छे कार्य कर पाएंगे| बाह्य कारणों से व्यवस्था अंशत: ही सुदृढ़ हो पायेगी| मनुष्य अपने इन्द्रियों की संतुष्टि चाहता है पर वह संतुष्टि क्षणिक होती है| आतंरिक जगत में इन्द्रियाँ मदद नहीं करती हैं| वहां भाव जगत से मतलब है| इन्द्रियाँ सदा बाह्य दुनिया से जोड़ती हैं| उससे मन में जो विचार पैदा होते हैं वह सीमित और कुंठित होते हैं|

मानसिक पवित्रता निर्भर करती है शुद्ध आहार, शुद्ध विचार और शुद्ध परिवेश पर| यह नहीं होगा तो मानसिक पवित्रता नष्ट होती है| तब मन पे नियंत्रण नहीं रहता है| मनुष्य होश खोकर पशुवत गुणों का सहारा ले लेता है| पशुवत गुण है– आहार, निंद्रा, भय और मैथुन| जहाँ मनुष्य के जीवन में इच्छा शक्ति का महत्व है जैसे मन में विचार आया चोरी करेंगे यानि  लोभ आया यानि लोभ के कारण चोरी करेंगे, दूसरा विचार आया कि पुलिस पकड़ेगी, तीसरा विचार आया कि समाज के लोग क्या कहेंगे, लज्जा पैदा हुई, यहाँ मन में तीन भाव काम कर रही हैं| ऐसे समय में इच्छा शक्ति जिस भाव के साथ काम करेंगी, शरीर वैसा ही काम करेगा| इच्छा शक्ति का हमेशा बाह्य प्रदर्शन होता है| इसी जगह देखा जाता है मन के भीतर हरेक तरह के कार्य करने के लायक इच्छा होती है| चोरी, बेईमानी, बलात्कार...| यहीं मन पर नियंत्रण की जररूरत होती है| जब-जब मनुष्य दूसरों के हित की भावना नहीं रखता है वह स्वार्थी बन जाता है| और स्वार्थ के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता है| इसलिए देखा गया है अच्छे लोग भी जिनमें कल्याण करने कि भावना नहीं रहती है, वो गलत कार्य कर बैठते हैं| किसी भी तरह के अच्छा करने की भावना इच्छा शक्ति से आती है| ऐसा देखा गया है कि इच्छा शक्ति में सकारात्मक भावना आती है तब मनुष्य गलत कार्य नहीं करता| मनुष्य जीवन में ख़ुशी नहीं चाहता है| वह शांति चाहता है| इन्ही कारणों से लोग भौतिक संसाधनों के पीछे दौरते हैं| जो मनुष्य भौतिक चीजों से शांति पाना चाहते हैं उसे ख़ुशी नहीं मिलती है| इसलिए किसी भी तरह के कार्य के लिए अपने पर नियंत्रण होना बहुत जरुरी है|

हमारा शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है, इसलिए हमरा मन खान-पान, वातावरण, विचारों से प्रभावित रहता है| जैसे शराबी किसी भी शहर में जाकर शराब की दुकान खोजता है, सिनेमा का शौकीन सिनेमाघर खोजता है, खेल का शौकीन स्टेडियम खोजता है, इसलिए देखा गया है, मनुष्य का जैसा स्वभाव है, वैसा ही परिवेश चाहता है| इसलिए मनुष्य के खान-पान का चुनाव ढंग से होना बहुत जरुरी है| क्योंकि खाने से हमारे शरीर का सेल बनता है| यह सेल हमारे शरीर और मन को जोड़ता है, तब वैसा ही हमारा मन बनता है, फिर वैसा ही शरीर बनता है और इसी मानसिकता के कारण अपराध की प्रवृति बनती है| इसलिए किसी भी तरह के कानून से किसी भी तरह के अपराध को ख़त्म नहीं किया जा सकता| इसके लिए जररूरी है नैतिक एवं अध्यात्मिक शिक्षा के साथ उचित परिवेश का होना| देखा गया है दुनिया के कई देशों में बलात्कार जैसे अपराधों के लिए फांसी की व्यवस्था है| परन्तु देखा गया है उस देश में बलात्कार कि घटना बढती ही गई| मुझे दुःख नहीं होता, मुझे हंसी आती है, इंग्लिश मेम विलायती बोल वाले तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग, उच्च संस्कार वाले,  जिन्हें न तो किसी भी तरह के शोषण का ज्ञान है, न जानकारी, न हीं बलात्कार की परिभाषा की समझ है|

वैसे छोटे-बड़े किसी भी तरह बलात्कार को जायज नहीं ठहराया जा सकता| ऐसे प्रवृति का विरोध सामाजिक रूप से जमकर होना चाहिए| लेकिन विरोध का स्वरूप सिर्फ इंडिया गेट पर कैंडल जला लेने और किसी भी सरकार विशेष को गाली दे देने भर से नहीं होना चाहिए| उर्जा के साथ युक्ति का होना आवश्यक है| युक्ति यदि नहीं हो तो आन्दोलन दिशाहीन हो जाता है, उग्र हो जाता है| और ऐसे समय में देखा गया है कि सही मुद्दे गौण हो जाते हैं| जरुरी है यह जानना और समझना कि सेक्स जैसी प्रवृति किन-किन कारणों से पैदा होती है और बलात्कार विकृति जैसी विकृतियाँ कितने अंदर तक हैं| आज समाज में यौन इच्छा को बढाने और उकसाने का काम ज्यादा किया जा रहा है| गौर से देखने पर पाएंगे कि पूरे माहौल में मानो सेक्समय हुआ पड़ा हो| टीवी-फ़िल्म, विज्ञापन, साहित्य, इंटरनेट हर जगह स्त्री को सेक्स के रूप में परोसा जा रहा है| फ़िल्मी गानों, विज्ञापनों, रैंप ने समाज में सेक्समय माहौल की सबसे बड़ी भूमिका निभाई है| आदमी और औरत दोनों इस काम में लगे हैं| आईटम नम्बर पर नाचने वाली नायिका आखिर क्या कर रही है| अधिकांश हिस्सा स्त्रियों को सिर्फ भोगना चाह रहा है| उपभोक्तावाद, बाजारवाद असीमित लाभ की प्रवृति ने मिलकर जो माहौल बनाया है वह स्त्री-पुरुष को बराबर की हमजोली बनने से ज्यादा पुरुष को स्त्री को भोगने के लिए उकसा रहा है| सेक्स की मांग बेतहासा तरीके से बढ़ा दी गई है| यौन इच्छा की पूर्ति के लिए विवाह और वैश्यावृति के इन्तजाम कम पड़ते हैं| बेकाबू-हुई-यौन-इच्छा परिवार में मौजूद बच्चे, लड़के और लड़की दोनों को शिकार बनाते हैं| पुरुष बाल यौन शोषण का तरीका या अन्य तरीके अपना कर अपनी बेकाबू हुई यौन इच्छा को शांत करने में लगे हैं| परन्तु वह अतृप्त इच्छा पूरी नहीं हुई है| बल्कि वह ज्यादा बेकाबू हो रही है| सभी तरह के सर्वे ने यह स्पष्ट कर दिया है कि बलात्कार जैसे घटना में ९२% अपराधी परिवार, पड़ोसी और नजदीकी रिश्तेदार ही होते हैं| पिता, चाचा-चाची, साला-साली, भाई-बहन, चचेरी-मौसेरी-फुफेरी बहन के बीच बलात्कार जैसे घटनाओं को अत्यधिक रूप से बढ़ते हुए देखा गया है| स्थिति यह है कि कुछ दिनों के बाद पारिवारिक बदनामी के कारण अधिकतर केसों में समझौता होता देखा गया है|

दोस्तों! बलात्कार अभी थमी नहीं है बल्कि कभी नहीं थमेगी, क्योकि जब तक स्त्री को यौन-वस्तु के रूप में बदलने के तरीके बढ़ते रहेंगे| स्त्री को यौन वस्तु के रूप में दिखाने वाले हर चीजो का विरोध करना पड़ेगा| दोनों हाथो में लड्डू, ‘चित भी मेरी पट भी मेरी’ नहीं चल सकती| अतिरिक्त यौन इच्छा को सहलाने के लिए हर किस्म के मादकता और पोर्न भी आँखों के सामने रहे और घर कि स्त्रियाँ भी सुरक्षित रहे यह संभव नहीं है| किसी एक को चुनना होगा| पूनम पाण्डेय और जिस्म-२ की हेरोईन सन्नी लियोन के वास्तविकता को अकेले में मजे लो और दुर्घटना होने पर सरकार और कानून पर चिल्लाओ| यह कौन सा अनुशासन है| सोचिये किस तरह हम इन्टरनेट, समाज, फिल्मों, मीडिया विज्ञापनों में फैली अश्लीलता को कम कर सकते है| सोचिये बड़ी-बड़ी कंपनियो के स्त्रियों को यौन वस्तु में बदलने के चाल को कैसे नाकाम किया जाय| सोचिये जिस वक्त किशोर इन्टरनेट, फिल्म, विज्ञापन, पोर्न में स्त्री को भोगते हुए देखता है, उसके देह से खेलते हुए देखता है तो उसके मन में स्त्रियों की पहली छवि जो बनती है वो यौन वस्तु की ही है, माँ, बहन, बेटी के रूप में नहीं| इसके बाद किशोर साथी या दोस्त बनाना नहीं चाहते| सिर्फ उसे भोगना चाहते हैं| इसके लिए वे हर तरह के रिश्तों का जाल बुनना चाहते है| समाज में एक विचित्र मानसिक स्थिति पैदा होती जा रही है कि बलात्कार का मतलब ऊंचे या पढ़ी लिखी लडकियों के साथ जो बलात्कार हो वही बलात्कार है| न जाने इस देश में कितने मजदूर मालिक-जमींदार के हबस का शिकार होते आ रहे हैं| गाँव के पगडंडियों पर छोटा दुकान हो या लघु उद्योग या बड़े उद्योग, गरीब अबलाओं का शोषण हर जगह चला आ रहा है| कहीं नौकरी का लोभ, तो कहीं उधार का लाभ, तो कहीं कोई मज़बूरी| लोभ प्रत्येक घटना का सबसे बड़ा कारण है|

बढ़ते भौतिकवाद, बाजारवाद का यह आलम है कि समाज का हर व्यक्ति आसमान को छूना चाहता है| गरीबी तो एक अभिशाप ही है जो हर घटना-दुर्घटना का दरवाज़ा खोलती है| समाज में इन कारणों से आपसी सहमती से जो शोषण होता है, उसे क्या आप बलात्कार नहीं कहेंगे| यदि किसी के घर में उसका जीवन-साथी शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से सुंदर है, इसके वाबजूद कोई व्यक्ति वैश्यावृति के लिए जाता है या अन्य औरतों के साथ सम्बन्ध बनता है तो क्या वह बलात्कार नहीं है? क्या चलती गाड़ी में ही ऊँचे घरानों के लड़कियों के बलात्कार को ही बलात्कार कहा जायेगा? यह सही है कि सेक्स व्यक्ति की मूलभूत जरूरतों में से एक है| बहुत कम ही सन्यासी इस जरुरत पर नियंत्रण रख सके हैं| सेक्स की स्थिति यह है कि आंकड़ों के अनुसार महिलाएं अपने लोगों के बीच ही असुरक्षित हैं| सवाल यह उठता है कि आखिर महिलाएं सुरक्षा को लेकर कहाँ आश्वस्त हो सकती हैं? दुष्कर्म के मामले सड़कों पर अकेली लड़की से ज्यादा खतरा उनके बीच होते हैं जहाँ वो सुरक्षित महसूस करती हैं| दरअसल वे कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं| चाहे वो घर हो या सड़क| क्या इस तरह के घटनाओं के लिए समाज, सरकारी तंत्र, व्यवस्था, सरकारी लोग, ऊँचे लोग दोषी नहीं हैं? मैं आंकड़ों के खेल में नहीं जाना चाहता| समाचारपत्र, टीवी, पत्र-पत्रिकाएं में सर्वे के द्वारा जो आंकड़ें दिखाए जाते हैं वो असल संख्या के मुकाबले बिलकुल ही नगण्य हैं| इस तरह के घटनाओं में हम यदि जाते हैं तो पाते हैं कि छोटे कस्बे, शहर, गाँव में इनकी संख्या अत्यधिक है जो ना तो समाचारपत्रों में आता है ना ही किसी तरह का केस दर्ज होता है| समाज के सामने जो घटनाएँ आ जाती हैं वो शायद दर्ज हो जाये लेकिन जो समाज, मीडिया, समाचारपत्रों में नहीं आ पाती, वो कभी दर्ज नहीं होता|



लेकिन जिन बलात्कार के घटनाओं में समाज को दिशा देने वाले और कानून बनाने वाले नामित हैं, उसे अगर समाज की सहमती मिल जाती है तो फिर हमारा दिशाहीन छात्र, नौजवान किस पथ के पथिक होंगे? कौन सी ऐसी पार्टी, कौन सा ऐसा लोकसभा या विधानसभा नहीं है जिसमे कुछ ना कुछ ऐसे जनप्रतिनिधि नहीं हैं जिसपर कई तरह के शोषण और बलात्कार का केस ना हों? एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफोर्म्स के रिपोर्ट को आप देख सकते हैं कि कानून व्यवस्था के क्या हालात हैं? फिर समाज ऐसे लोगों को क्यों चुनती है? जात-धर्म के नाम पर सारे बुराइयों को दबा दिया जाता है| ये कौन सा समाज है जहाँ की जनता गुजरात में उस व्यक्ति को चुनता है जो शीर्ष पद पर बैठ कर आदेश देता है कि पेट के बच्चे को निकाल कर जला दो? और वहां की जनता ही भेड़ीयों की तरह एक कमजोर समाज पर टूट पड़ता है| ना जाने कितने ही माँ, बहन, अबलाओं के इज्जत का तार-तार कर दिया जाता है| और उसके बाद उसी देश की जनता उसे देश का प्रधानमंत्री बनाने पर अमादा हो जाए| तब इंडिया गेट पर हाय-तौबा क्यों नहीं मचता? कैंडल क्यों नहीं जलाया जाता? न जाने कितने दशकों से मुंबई की धरती पर मराठी उत्तर भारतीयों के नाम पर कितने की इज्जत लुटी गयी, कितनो की जाने गयी| हमेशा से भीड़-तंत्र लोकतंत्र का गला घोटती रही है| उसके बाबजूद दस लाख से ऊपर जनता सड़क पर उतर कर एक आदमखोर व्यक्ति के सम्मान के लिए आगे बढ़ कर उसे पुरस्कृत करता है और उसके हर तरह के कुकर्मो पर पर्दा डाल देता है और उसे इस सदी का सबसे बड़ा महानायक बना देता है| तो हमारे नौजवान किशोर किस राह के पथिक हों?

 हर तरह के स्केंडल घटनाओं के बाद भी मुख्यमंत्री, मंत्री, राजनेता बनते है तो किशोर छात्र, नौजवान किस राह पर जायेंगे| स्टिंग ऑपरेशन में राजनेताओं को, ब्यूरोक्रेट्स को, सुधारवादी को, बलात्कार करते दिखाया जाता है उसे ही जनता राज करने भेज देती है| ऐसे ही रोल मॉडल बन जाते है| विजय माल्या, अम्बानी जैसे लोग ही आज रोल मॉडल है| फिर चिंता कहाँ रह जाती है इन छोटी बातो के लिए| जब देश का प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, मंत्री और राजनेतालोग सत्यसाई बाबा, डेरा सच्चा सौदा, आशाराम बापू, नित्यानंद स्वामी, सुधांशु रंजन, बाबा चंद्रास्वामी, स्वामी चिन्मयानन्द जैसे अनगिनत बाबाओं  का पैर जब छुएंगे, जब देश के बड़े उद्योगपति इन लोगो के पैर पड़ेंगे तो दिशाहीन नौजवान किस राह के पथिक होंगे? भंवरी देवी सेक्स स्केंडल, आइसक्रीम पार्लर स्केंडल को जब लोग भूल जाये तो स्केंडल को कौन रोकेगा| रंगा बिल्ला, बोबी मर्डर केस को जब समाज भूल जाता है तो दिल्ली की घटना को भूलने में कितना वक्त लगेगा| लोग समझते है कि एक ही गोपाल कांडा गोयल पैदा हुए| लेकिन जहाँ हर डाल पर उल्लू बैठा हो अंजाम गुलिस्ता क्या होगा? घर का रखवाला ही जब बईमान हो जाये फिर उस घर को कौन बचा सकता है | सत्य साईं बाबा पर दर्जनों बार बाल यौन शोषण के आरोप लगे है| क्या उसके लिए हाय तौबा मची? नित्यानंद स्वामी, बाबा आशाराम बापू के आश्रम का कौन सा घिनौना हरकत समाज के सामने नहीं आया? लेकिन क्या इन लोगो के चौखट पर लोगो की भीड़ कम हुई? फिर यह समाज हाय-तौबा क्यों मचाती है जो खुद सब चीजो को बढ़ावा देती है| हरियाणा के खाप पंचायत जिसे दुनिया जानती है कि वह कोई कानून नहीं मानता बल्कि मुगलिया फरमान देता है सिर्फ परंपरा के नाम पर| आज तक क्यों दिल्ली के नौअवानों ने खापों के खिलाफ कैंडल नहीं जलाया? जो लोग सड़कों पर हाय-तौबा मचा रहे हैं वे कौन से दूध से धुले हुए हैं? इन जैसे लोग जो समाज में सबसे पहले भ्रूण हत्या कर बेटियों को मार देते हैं वैसे नौजवान ही औरत के सम्मान का ठेकेदार बनेंगे?

जिन नौजवानों को अपने कर्म और पुरुषार्थ पर भरोसा नहीं हो, जो भाग्य पर जीते हैं, जो भगवन की भी पूजा ग्रह-नक्षत्र के अनुसार करते हों, कहीं दिन के उजाले में लाखों लीटर सरसों तेल (शनि देव को) तो कहीं भगवान को लाखों लीटर शराब चढ़ाये जाते हैं, यदि ऐसा समाज सिर्फ कैंडल जला कर विरोध करता है तो यह महज दिखावा है| भगवन बुद्ध ने कहा था कि मदिरा एक ऐसा नशा है जो हर तरह की बुराइयों का जड़ है और दूसरी तरफ नासमझ भीड़ जो शराब को अपना जीविका के साथ-साथ अपना फैशन बना रहे हैं| जो भगवन को भी शराब से खुश करना चाहते हैं| उस भीड़ से हम किस तरह के समाज बनाने की उम्मीद कर सकते हैं? मैं उन लोगों से जानना चाहता हूँ जो इंडिया गेट पर कैंडल जलाना चाहते हैं, क्या उन्हें मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ के आदिवासी की चीखें नहीं सुनाई देती? उस गरीब अनपढ़ लड़की पर हुए अत्याचार पर क्रोध क्यों नहीं आया? देश में अमानवीय कुकर्म करने वाले डॉक्टर, वकील, पदाधिकारी पर खून क्यों नहीं उबलता? पटना के डॉक्टर के द्वारा बच्ची का रेप किया गया| इस पर हाय तौबा क्यों नहीं मचती? बलात्कारी साधु-संत, चर्च मंदिरों में हुए बलात्कार के खिलाफ आक्रोश क्यों नहीं होते? कानून बनाने वाले नेताओ को भट्टी में क्यों नहीं झोका जाता? गुवाहाटी के बीच बाज़ार में जब मासूम लड़की को घंटो छेड़ा जाता है और वहां सरकार और मीडिया मजाक बना कर परोसती है तो उस घटना पर गुस्सा क्यों नहीं फूटता| कोई कहता है लिंग काट लो| किस किस का लिंग काटोगे? कही से आवाज उठती है फांसी दे दो| सर्वविदित है कि हमाम में सब नंगे है; लिंग काटना और फांसी देना समाधान नहीं है| कानून सशक्त हो और वह ईमानदार और सशक्त रूप से लागू हो, सवाल यह है|

लेकिन इससे भी बड़ा सवाल है मनुष्य का बदलाव, चिंतन में बदलाव, मनुष्य के आहार में बदलाव, यह बड़ा सवाल है| बिना मनुष्य के बदले समाज नहीं बदलेगा| न ही बलात्कार के घटनाओं को रोका जा सकता है| यह बढ़ेंगे ही| दिल्ली में जिस तरह स्त्रियों के सम्मान के लिए हाय तौबा मचाया गया है| मैं इससे सहमत नहीं हूँ| दिल्ली में इससे बड़ा मामला रंगा बिल्ला में बवाल आया था| क्या बलात्कार रुक गया? उससे भी ज्यादा गांवो और कस्बो में बलात्कार बढ़ गया? उसे कौन सा कानून रोकेगा ? केंडल मार्च रोकेगा?  बुद्धिजीवी जो समाज को सुन्दर बनाना चाहते हैं वे शिक्षा नीति के आमूल-चूल परिवर्तन के लिए दबाव डालें| दूसरा शराब, दहेज़, भ्रूण हत्या, पाश्चात्य आहार-विहार, विचार के खिलाफ सख्त से सख्त कानून बने, तभी हम समाज का निर्माण कर पाएंगे | और इस तरह के घटनाओं को रोक पाएंगे|  

Monday, 24 December 2012

“युगद्रष्टा”


“युगद्रष्टा”


किस गहन चिंतन में-डूब गया है तू,
क्या ठान ली है स्वर्ग धरा पर लाने की ?
फलक के किन तारों को तू देख रहा,
या इच्छा है चाँद को ही उतार लाने की ?
प्रकाश खोजने अंधकार में मारा-फिरेगा,
मातम मानती माँ का क्या तू गोद भरेगा ?
कितने बहनों का भाई बन पीड़ा सहेगा,
असुरों से अकेले क्या तू लड़ता रहेगा ?
चंडाल चौकड़ी से आवृत यह शहर है,
दमन का दौड़ अंधा कातिलों का कहर है |

फिर क्यों आयो हो यहाँ पुरुषार्थ जगाने,
जख्में-दिल पर मोहब्बत का दरिया बहाने ?
क्या चाहते हो बिगुल क्रांति का बजे,
सद्भाव से मानवता पुन: सजे-धजे |
तो आततायी का सिर कलम करना पड़ेगा |
बीज नैतिकता का धरा पर बोना पड़ेगा |
सुख-शांति-समृद्धि का सर्वत्र राज हो,
जो हैं सहज-सरल, उनके सिर ताज हो |
असंभव नहीं जगत में तारों को तोड़ लेना,
चाह में दम हो तो नभ भी नमन करेगा –
चाह में दम हो नभ भी नमन करेगा |


हमारी सारी शक्ति दूसरों के अवगुणों की खोज में क्षय हो जाती है | काश ! इन अवगुणों को स्वयं में खोज कर उन्हें परिष्कृत कर पाते तो समाज कितना सुंदर हो जाता |

Saturday, 22 December 2012

“पथिक”


“पथिक”


राग–द्वेष से विरक्त वियोगी,
जेहन में जगअवसाद लिए |
शक्ति-श्रोत नवयुवातुर्क  का,
रंग ओढ़ दधिचि गरल पीए |
जज्वा है जलधि मापने का,
नभ भी नब्ज पहचान रहा |
पग जिधर चला झूंड चली,
प्यासा-पथ विकल बेजान रहा |
पूर्वांचल का पथिक धरोहर,
याचक समरसता का सरोवर |
दनुज से जूझने मचल पड़ा,
वह स्वर्ग लूटने निकल पड़ा |


भौतिकता की भूख हमारे सारे कुकर्मों का उद्गम है | नैतिकता के

मर्यादाओं का पालन कर इसे नियंत्रित किया जा सकता है |

Thursday, 8 November 2012

ज़रा सोचिये! समाज के पतन के लिए जिम्मेवार कौन है? और वर्तमान पीढ़ी हमें कहाँ ले जा रही है?


ज़रा सोचिये!
समाज के पतन के लिए जिम्मेवार कौन है? और वर्तमान पीढ़ी हमें कहाँ ले जा रही है?

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनास्मी जानताम,
देवाभागम यथा पूर्वे संजानाना उपासते|
समानी वा आकूति समाना ह्रदयानि वः,
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति||

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णुः गुरुर देवो महेश्वरः  |
गुरुर साक्षात् परमब्रह्म तस्मै श्री गुरुए नमः ||

हमारे जीवन का परम उद्देश्य इन्ही दो श्लोकों में सारगर्भित है|

सब साथ चलें, एकजुट रहें और सबके मन का भाव समान हो तथा प्रत्येक मन को जोड़कर विश्वस्तरीय मन का निर्माण करें !

ब्रह्माण्ड के सभी गुणों का समुचित उपयोग करो, जिस प्रकार पुराने ज़माने में ऋषि-मुनि हवि: (यज्ञों का भोजन) स्वीकारते थे|

आपका एक आदर्श हो और आप एक-दुसरे से अविभाज्य हों!
आपके मन में एक ही भाव का समावेश हो ताकि आप एक रहें!

ऋषि-मुनियों के काल से ही नैतिकता साधना की आधारभूमि रही है| परन्तु यह याद रखना चाहिए कि नैतिकता साधना का चरम लक्ष्य नहीं है| साधना के प्रारंभ में ही मानसिक सामंजस्य की आवश्यकता होती है| इसी मानसिक सामंजस्य का नाम है नैतिकता अर्थात मोरालिटी| नीतिवाद की पहली शिक्षा है यम साधना| ऋषि-मुनि, हमारी संस्कृति और हमारे परमपुरुष ने यम के बारे में बताया है| परमपुरुष के अनुसार  अहिंसा, सत्य, अस्त्रे, ब्रह्मचर्य, संयम और अपरिग्रह ये जीवन के मूल दर्शन हैं| संयम शब्द का अर्थ है नियंत्रित व्यवहार जिससे किसी को कष्ट ना हो, कभी किसी का अनहित ना हो| जीवन के इन्ही मूल दर्शन को ध्यान में रखकर ही हमारे इतिहास की नीव पड़ी थी|

किन्तु, आज गंभीर चिंता का विषय यह है कि हम आज़ादी के ६५ साल बाद भी “बसुधैव कुटुम्बकम” एवं “आत्म मोक्षार्थ जगत हिताय च” से कितनी दूर हो चुके हैं और वर्त्तमान समय में हम कहाँ है| इस देश के हाल के बारे में क्या कहा जाये| शूद्रों की बात तो अलग रही, भारत का ब्रह्मत्व अभी भी गोरे अध्यापकों में है और उसका क्षत्रित्व चक्रवर्ती अंग्रेजों में है और उसका वैश्वत भी अंग्रेजों के नस-नस में है| घोर अंधकार ने अब सबको समान भाव से ढँक लिया| अब चेष्टा में दृढ़ता नहीं रही और न ही मन में बल| अपमान से घृणा नहीं है और दासत्व से अरुची नहीं है| हृदय में प्रीति नहीं और मन में आशा नहीं है| क्या केवल, प्रबल इर्ष्या, स्वजातीय द्वेष मानव प्रदत्त धर्म की आड़ में आडम्बर, कर्मकांड और शोषण ही हमारे वर्तमान का एक मात्र सच है| अच्छे मोबइल के विज्ञापनों में सेक्स ओवरटोन (यौन सम्बन्ध) के परोक्ष और अपरोक्ष संकेत है| दिन-रात टीवी चैनेलों में देखिये| यौन इच्छा को बढ़ावा का दावा करने वाली दवाओं के विज्ञापन छोटे दिखते हैं| हर छोटे-बड़े धारावाहिक की आधारभूमि अवैध सम्बन्ध और हिंसा है| फ़िल्मी गाने सुनिए तो लगेगा सभी द्वीअर्थी या एकर्थी है| फिल्म जिस्म-२ की सफलता देखिये, सेक्स विषय पर बम्पर बिजनस, छोटे-छोटे बच्चों के रियल्टी शो को देख लीजिये, वे कैसे-कैसे फ़िल्मी गाने पर नृत्य करते हैं या गाते हैं| शीला की जवानी, नही चाहिए तेरी सेकण्ड हैण्ड जवानी, जैसे गाने बच्चे गाते हैं, उसपर बच्चों के अभिभावक खूब तालियाँ बजाते हैं| धर्म, भक्ति, पूजा का एक मात्र लक्ष्य स्वार्थ साधने में रह गया है | ज्ञान अनित्य वस्तुओं के संग्रह में है| भोग, पैशाचिक आचार में है| और भौतिक कर्म दूसरों के दासत्व में है| सभ्यता विदेशियों की नकल करने में है| वक्तृत्व कटु भाषण में है| और भाषा की उन्नति अमीरों की बेढंगी खुसामद और अश्लीलता के प्रचार में है| जब सारे देश में शुद्रत्व भरा हुआ है तो शूद्रों के विषय में क्या कहा जाए? यानी देश के शुद्रकुल की नींद टूटी जरुर है और उनमे विद्या नहीं है| उसके बदले है उनका साधारण जाति गुण, स्वजातीय द्वेष| उसकी संख्या अधिक ही है तो क्या? जिस एकता के बल पर दस मनुष्य लाख मनुष्यों की शक्ति अर्जित करते हैं, वह एकता शूद्रों से कोसों दूर है| इसलिए आज भी सारी शुद्र जाति आडम्बर, कर्मकांड, भाग्य, किस्मत, भय के नियमों के अनुसार ही पराधीन है| मेरा मानना है कि भारत में शर्म और हया नाम की  कोई चीज नहीं रही| क्या भारत शर्म और हया से मुक्त समाज हो सकता है? बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं देंगे परन्तु अश्लील विज्ञापन दिखायेंगे| टीवी प्रतियोगिता में उतारेंगे, अश्लील सिनेमा दिखायेंगे, फिर बात करेंगे १२-१४ वर्ष के बच्चे घरों से क्यों भाग जाते हैं? दरअसल भारतीय समाज तेजी से टूट रहा है| जिस तरह रियेल्टी शो डांस विज्ञापन, बिकिनी शो, बूगी-वूगी में बिकिनी पहनाकर छोटे-छोटे बच्चों को नचाया गया या रैम्प करवाया गया, वह क्या है? कहीं से तो कोई आवाज़ उठे इन चीज़ों के खिलाफ| ना माता-पिता आवाज़ उठाते हैं ना ही समाज| सरकार और सरकार के लोग, पदाधिकारी तो इन चीज़ों में नंगे ही हैं| बल्कि ऐसा आयोजन करने वाला या फिल्म बनाने वाला, आज की भाषा में बम्पर बिजनेस करता है| उन्हें कई तरह के अवार्ड मिलते हैं| नैतिकता, अध्यात्म, साधना, संस्कृति की जगह अब बिजनेस ही सब कुछ होता चला गया| भगत सिंह, सुभाष, विवेकानंद, कबीर, मोहम्मद, लाल बहादुर शास्त्री, पटेल, यीशु, शिव, कृष्ण ये वर्तमान में किन्ही के लिए प्रासंगिक नही हैं| ये हमारे रोल मॉडल नहीं रह गए| अब हमारे रोल मॉडल हैं – बिल गेट्स, सचिन, अमिताभ बच्चन, अम्बानी, विजय माल्या आदि| ना मोरल, ना एथिक्स, अश्लील, वल्गर चीजों ने साहित्य के चरित्र का सत्यानाश कर दिया है| अनेक ऐसी पत्रिकाओं में लोगों के अनुभव पढ़िए, कैसे अश्लील अनुभव छपते हैं| इंटरनेट, टीवी पर विज्ञापन, मोबाईल पर एसएम्एस या एम्एसएस आना कि क्या आप किसी लड़की से बात करेंगे| इससे सब पीड़ित हैं, परन्तु हम सब प्रतीक्षा में हैं| कोई सुभाष, कोई भगत, या कोई विजयी सम्राट या इश्वर अवतार ले और हमें इन चीजों से मुक्ति दिलाये| अपने अकर्म की कीमत हम चुका रहे हैं| ऐसे सामाजिक हालतों से सरोकार सबको है| इस बीमारी से सब पीड़ित हैं| पर ऐसे विषय पर विरोध में ना शिक्षकों की आवाज़ सुनी ना अभिभावकों की, ना सामाजिक संगठनों की आवाज़ सुनी और ना ही आम आदमी की| सरकार की तो बात ही कुछ और है| एन.जी.ओ. तो बोलेंगे ही नहीं क्योंकि उन्हें अच्छे और इन कामों के लिए फंड ही नहीं मिलते हैं| क्या यही आदर्श समाज है? सरकार और राजनीतिक दल तो कुछ है ही नही, उन्हें पता है कि जनता और लोगों के पोप्युलर ट्रेंड, टेस्ट और रुझान क्या है| फिर भला अश्लील चीजों पर पाबंद कौन लगाएगा? स्कूल, कॉलेजों में बिना पढाये यदि खुलेआम चोरी करवाकर वाहवाही सरकार लूटती है| फिर ऐसे चीजों पर पाबन्दी कैसे? इन्ही सारे कार्यों से तो सरकार की सस्ती लोकप्रियता बढती जा रही है और समाज घुन-खाए-खम्भा की तरह धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है| प्रत्येक स्कूल के शिक्षक के लिए कुछ किताबें जैसे – गीता, रबिन्द्र नाथ टैगोर, अरविन्द, श्री आनंदमूर्ती जी की किताबें जो शिक्षक के चरित्र का निर्माण करती हो, आवश्यक होनी चाहिए| प्राथमिक शिक्षक से लेकर प्रोफेसर तक का चरित्र क्या है? ऐसे अनेकों अपवाद हैं और मिलेंगे| जिसके कारण लोग गाँव में परेशान हैं| बच्चे-बच्चियां बिगड़ रहे हैं, उन्हें खुद से पूछना चाहिए कि बिहार और झारखण्ड में जब पारा (अर्ध) शिक्षकों की नियुक्ति हुई तो क्या-क्या खेल हुआ| कितनी माँ-पत्नियों के जेवर बिके? अनेक ऐसे मामले हैं जिसमे रिश्तेदारों से पैसे लेकर फर्जी अंकपत्र, सिफारिश पर शिक्षकों के पदों पर बहाल कराया गया|  हमने सुना है कि १९७०-८० के पूर्व के मुखिया ईमानदारी पर चुने जाते थे| लेकिन आज अगर गरीब व्यक्ति भी मुखिया बन गया तो ५ वर्षों में वह अमीर या करोड़पति बन जाता है| आज अगर मुखिया ठान ले तो प्राइमरी स्कूल, सेकेंडरी स्कूल को सुधर सकता है| एक आम, आदमी अन्ना हजारे, क्या अपने गाँव का कायाकल्प नही किया? लोकतंत्र में पंचायती राज व्यवस्था का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है| और उस व्यवस्था को चलाने वाले प्रधान ही अगर बेईमान हो जाएँ तो क्या यह  लोकतंत्र बच पायेगा? सामाजिक व्यवस्था को समाप्त होने से कौन बचाएगा? जब समाज नही बचेगा तो क्या देश बच पायेगा?




मेरा मानना है इन सारी बातों के लिए आम आदमी जिसे हम वोटर कहते हैं वो ही जिम्मेदार है| आम आदमी को सामाजिक और राष्ट्रीय विकास में कम और अपने निजी विकास में ज्यादा दिलचस्पी रहती है| शिक्षक को घर मे बैठे तनख्वाह चाहिए| अपने निजी क्लिनिक पर बैठे डॉक्टर को सरकारी असपताल से  तनख्वाह चाहिए| स्कूल की सारी धनराशि ऊपर से नीचे तक डी.ई.ओ. से लेकर शिक्षक और प्रधानाध्यापक तक लूटते हैं| बैठे-बैठे मनरेगा की मजदूरी हमें मिल जाये, मुखिया जी भी वाह-वाह, मजदूर भी वाह-वाह| रोड का ईंट घर में लगाने दो, आम आदमी जयकार करते नहीं थकता| नहर की पानी को सरकार फ्री कर लोन वसूली ना करे तो वह सरकार बहुत अच्छी| बिजली जलाएंगे उसका पैसा नहीं देंगे, वह सरकार बहुत अच्छी| किसी तरफ का लोन, वह छात्रवृति क्यों ना हो, हम लौटायेंगे नही| इस खतरनाक प्रवृति की चाहत रखने वाले  आदमी अच्छे समाज की क्या कल्पना कर सकता है| आम आदमी से कैसे उम्मीद करते हैं कि वह लोकतंत्र बचा पायेगा?
दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी गुजरात का मुख्यमंत्री जो उसके साथ काम करने वाले आई.ए.एस.ने कहा कि लॉ के मुताबिक नरेन्द्र मोदी खुद अपराधी हैं| फिर क्यों ना वो दीपावली मनाएंगे| जिस देश की ६०% जनता रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, आवास के लिए लालायित हो और दूसरी तरफ इसी देश के १०० आदमी का अधिपत्य भारत की  राजनीति, सारी संपदा, खनिज और भूखंडों पर हो उस देश में नरेन्द्र मोदी दीपावली नही मनाएंगे तो कौन मनायेगा? एक मुखिया लाखों-करोड़ों की मिट्टी का काम करवाता है और उस देश का अधिकतर मिट्टी का कार्य किये बिना ही गलत बिल उठा लेता है, रोजगार गारेंटी योजना में मुखिया सौदेबाजी करता है| साल में १५० दिन काम देने का प्रावधान है वे मजदूर को कहते हैं कि बिना काम किये ही तुम ७५ दिन की मजदूरी ले लो और शेष मेरा| फर्जी मास्टर रोल बनाता है| ऐसी धांधली दुनिया में कहीं चली है? सिर्फ यह हमारे समाज मे है| वृक्षारोपण की योजना बनी यह अद्भुद योजना थी, इससे श्रृष्टि और मनुष्य का अस्तित्व जुड़ा हुआ है| कितने पेड़ लगे कितने सूख गए इसका सोशल औडिट हुआ है क्या? मुखिया और मजदूर बैठे-बैठे पैसा पाए| बिना काम के मजदूरी लेकर काहिलों की फ़ौज खड़ी की जा रही है| इससे पूरा का पूरा समाज ही बीमार हो जायेगा| कहीं वोट के लिए साईकिल तो कहीं टीवी तो कहीं जेवर तो कहीं लैपटॉप, कहीं चावल| यह सब सरकार की सस्ती लोकप्रियता नही तो क्या है? जब वोट साईकिल, चावल, मोटरसाइकिल पर ही मिलना है तो सरकार को अच्छे काम करने की क्या जरुरत है? और ऐसी सरकार तो  बेईमान होगी ही| जो कुछ-देकर सरकार मे लौटेगी तो उसे बेईमान तो होना ही है| बाद में वही सरकार वसूलती है| प्रत्येक पंचायत में सोलर सिस्टम लगाने की एक अद्भुत योजना बनी| इसकी आज जांच करा लिया जाये तो कितने सोलर लगाये गए और कितने बिना लगाये ही पैसे उठा लिए गए| दो नंबर का सोलर सिस्टम लगाया गया| १०-१२ हज़ार का सोलर सिस्टम ३५-३६ हज़ार में खरीदा गया| स्थिति यह है कि जो लगाया गया वो करीब-करीब काम ही नही करते हैं| इसके लिए सोशल औडिट की जरुरत है| कौन आएगा इसमें आगे? गाँव में जो आजकल सरकारी चापाकल लगवाया जाता है वो रामभरोसे है, जो किसी की निजी दरवाज़े पर लगाया गया हो वो तो सही है अन्यथा एक भी चापाकल पंचायत में सही नही है| २०० फीट नीचे तक पाइपलाइन डालना परन्तु पाइप डाला गया मात्र ५०-६० फीट| पाइप भी प्लास्टिक का कोई निकालकर जांच भी नही कर सकता| यही स्थिति लगभग पंचायत स्तर पर सार्वजनिक जीवन की है| गाँव के लोग खुद सामाजिक, जातीय, धार्मिक और निजी कारणों से बंटा हुआ है| लोभ और भय के कारण जब लोग मूक दर्शक हो जाएँ तो फिर वह स्वर्ग में रहने की कल्पना कैसे कर लेते हैं? नरक में रह कर स्वर्ग में जीने की चाहत बेईमानी है| अगर कोई सच मे नैतिक समाज चाहता है, बच्चों में संस्कार और मूल्य चाहता है तो खुद में निजी जीवन में अमूल चूल परिवर्तन करन होगा| जब तक आप अपने इस सोच को सुधारकर, सही विचारधारा से आगे कदम नही बढ़ाएंगे तो कैसे सुंदर समाज की  कल्पना करेंगे? गाँव की बुनियादी संस्थाओं की जड़ में मट्ठा डालेंगे और उम्मीद करेंगे कि आपके समाज में विषैल पैदा ना हो, अच्छे लोग पैदा हों ये कैसे संभव है? तोड़ दीजिये ऐसे भ्रम को! अगर बचपन से ही यदि कोई बच्चा शराब में डूबा हुआ है तो वह बड़ा होकर परिवार, समाज, राज्य में बोझ बनने वाला है| हमने स्कूल से लेकर आजतक जब कभी कबीर की वाणी को सुना, बिना समझे रहीम के दोहे सुने, बिना अर्थ या मर्म जाने सूरदास, तुलसीदास, रसखान, मीरा, सुभाष, विवेकानंद, भगत, रविन्द्र, आचर्य रजनीश, गुरुनानक, गुरु गोविन्द जी, आनंदमूर्ति जी, महात्मा बुद्ध, जायसी को पढ़ा| इन सबों की तमाम उपदेश हमारे पीढ़ी के कानों में गूंजे तो, लेकिन मर्म की समझ नहीं थी| कहीं रामचरितमानस की पंक्तियाँ गूंजी तो कहीं मानव निर्माण और मानव सभ्यता और मानवीय जीवन में एक उच्च आदर्श की स्थापना कर्म, ज्ञान के आधार पर मानव की विवेचना करने वाले ब्रह्म और सदाशिव और महासंभूती श्री कृष्ण के साथ-साथ कक्षा चार या पांच में सुदर्शन की हार या जीत पढ़ी जो हर इन्सान को महीने में एक बार पढना चाहिए| सरदार पूरण सिंह के निबंध पढ़े जिन्होंने मन को छुआ| और वैसे ही पवित्र नामों के स्पर्श का जादू था कि हम जैसे अज्ञानी, नासमझ व्यक्ति भी काम चलाऊ बन गए| परन्तु अब तो अंत्याक्षरी भी फ़िल्मी गीतों में होने लगे| शायद कविता और फ़िल्मी गानों में फर्क आज का समाज नहीं जान पायेगा| कविता संस्कार देती है, मूल्य देती है और मानवीय बनाती है, कुछ फ़िल्मी गीत मन को स्पर्श भी करता है लेकिन आजकल अत्यधिक फ़िल्मी गाने इन्द्रियों को छूते हैं, भौतिक भूख बढ़ाते हैं, भौतिक आकाँक्षाओं की आग में घी डालने का काम करते हैं|
२००३-०४ के आस-पास की घटना है| एनरौन दुनिया की मशहूर मल्टीनेशनल कम्पनी थी, अचानक एनरौन तथा कुछ और अमेरिकन कम्पनियाँ दिवालिया हो गयी| उस वक्त टाईम्स की एक महिला पत्रकार ने शोध किया| जिन कंपनियों के टर्न ओवर कई बड़े देश के जी.डी.पी. से अधिक थे वे रातों-रात दरिद्रता और कंगाली में डूब कैसे गए और दिवालिया कैसे हो गए| उस पत्रकार को इस बेहतर रिपोर्ट के लिए उस वर्ष का सबसे सम्मानित अवार्ड भी मिला| उसने अपने शोध में पाया की बड़े-बड़े कंपनियों में टॉप पर बैठे ‘लोग’ या जो ‘दिमाग’ थे, वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन संस्थानों से पढ़ कर निकले थे, जिन्हें सेंटर ऑफ़ एक्सिलेंस कहते हैं| यहाँ से पढ़कर निकलते ही करोड़ों के नौकरी! जहाँ एडमिशन होना अभी के दुनिया में मोक्ष-पाना माना जाता है| असीम उपलब्धि या नोबल प्राइज़ पाने जैसे उपलब्धि ऐसे सर्वश्रेष्ठ संस्थानों से निकले लोगों ने इन बड़ी कंपनियों में जमकर फर्जीवाड़ा, लूट भोग किया, अकाउंटिंग में हेर-फेर की, ऐसा करने वाले लोग अत्यंत ही मेधावी यानि दुनिया के बेस्ट ब्रेन्स थे| दुनिया की सर्वश्रेष्ठ जगह से पढ़े लोग थे पर ये लोग धोखाधड़ी, छल-प्रपंच क्यों करते रहे? इसपर कई मनोवैज्ञानिकों ने राय दी के इनमे प्रतिभा थी पर परन्तु मूल्य, एथिक्स और सार्वभौमिक ज्ञान का सख्त अभाव था|
किसी भी इन्सान में मूल्य और एथिक्स गढ़ने का काम समाज में कविता, कहानी और अध्यात्म ही करते हैं| तबसे इन प्रबंधन स्कूलों में अरविन्द, गीता, सुभाष, विवेकानंद, गाँधी, अन्य गुरुओं या अन्य भाषाओँ में ऐसी चर्चा बढ़ी, इन्हें भी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाने लगा| दुनिया की सर्वश्रेष्ठ संस्थाऐ मूल्य और सरोकार पैदा करने वाली साहित्य को रख रहे हैं| लेकिन पता कर लीजिये की वर्त्तमान में हमारे स्कूलों या अध्यापकों में इन चीजों के प्रति कितना सरोकार है| जब कुम्हार को मिट्टी गढ़ना ही नहीं मालूम तो वह कैसा बर्तन बनाएगा! अपने बच्चों के जीवन पर नज़र डालिए! घर से शुरुआत हो, एक क्लास से ही लगातार बच्चे ट्यूशन के लिए भागते हैं, देर रात घर पहुंचते हैं| डॉक्टर कहते हैं की स्कूलों में असमय पुस्तकों का बढ़ता बोझ बच्चों को नाटा, कुबड़ा बना रहा है| तनाव इतना है की कम उम्र में बच्चों को मधुमेह, डाईबिटिज़ जैसे रोग होने लगे हैं| स्कूल अगर महंगे हैं तो काउंसलर या सही सलाह देने वाले मिल जाते हैं| कितने भारतीय आज की इस महंगाई में अपने बच्चों को महंगे स्कूल में पढ़ा सकते हैं? एक नहीं कई बच्चे हैं, जनसँख्या पर आत्म संयम तो है नहीं| वर्त्तमान में बच्चों के शिक्षक कैसे हैं, यह कहने की जरुरत नहीं| चीन का एक उदाहरण समझ लीजिये वह देश या समाज अपने नागरिकों या आने वाली पीढ़ी में जो मूल्य संस्कार देखना चाहता है, उन्ही मूल्य और संस्कारों के अनुरूप अध्यापकों का परीक्षा कराता है| विश्व के अनुरूप नहीं| शिक्षक के बारे में गोपनीय रिपोर्ट लिया जाता है कि इन अध्यापकों का जीवन चरित्र कैसा है? इनमे वे दाग तो नहीं जो भविष्य में अपने चीनी समाज में देखना नहीं चाहते| भारत सरकार की अनेक नौकरियों में अंग्रेजों ने प्रावधान तय किया था कि चयन के बाद उनकी पारिवारिक या निजी पृष्ठभूमि मंगाई जाती थी| अब ऐसी प्रथा बंद हो गई| आज हिंदी प्रदेशों में सबसे तिरस्कृत प्राइमरी स्कूल की शिक्षा व्यवस्था है| कितने शिक्षा अधिकारी आज स्कूलों में औचक निरिक्षण करते हैं? गाँव के स्कूल में इंस्पेक्टर का आना ऐतिहासिक घटना होती थी| इसकी तैयारी चलती थी| स्कूल में कोई अभिभावक कुछ कह ना दे इसके कारण स्कूलों में साफ़-सफाई की चिंता दिखती थी| आज़ादी के बाद जो अच्छी चीज हमें विरासत में मिली हम उसे भी तहस-नहस और बर्वाद कर चुके हैं| सच कहिये तो हमारे अंदर ज्ञान का सख्त अभाव है| हम काम करने की कला-संस्कृति से काफी अनभिज्ञ हैं| किसी कामों को सही तरीके से करना हमारे व्यक्तित्व में नहीं है| अगर अमेरिका जैसे संपन्न देश में यह व्यवस्था है की प्रत्येक स्कूल में समान शिक्षा हो तो भारत जैसे गरीब मुल्क में क्यों नहीं हो सकता? हमें याद है की हम जिस जिला स्कूल में पढ़ते थे वह अंग्रेजों के ज़माने से हुआ करता था वहां समान शिक्षा हुआ करता था| आज़ादी के बाद भी कुछ दिनों तक प्राइमरी स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र कैसे अच्छा रहता था? जहाँ आने-जाने की सुविधा भी नहीं थी वहां डॉक्टर, शिक्षक के रहने की व्यवस्था समुचित थी और रहते थे| आज हालत बदले हैं सुई से प्लेन पर चले गए| न्यूक्लियर बम से दुनिया को नष्ट करने की क्षमता बढ़ी| बड़े-बड़े उद्योग के जरिये प्रकृति को नष्ट कर देश का जी.डी.पी. और कुछ मुट्ठी भर लोगों ने धन को मजबूत करने के कुछ नऐ तरीके देखे गए हैं| हम सवा सौ करोड़ के लगभग हैं| शायद २० वर्ष में १५० करोड़ के ऊपर हो जायेंगे| जमीन घटती चली गयी और अट्टालिका माकन के बढ़ते देखे हैं| परन्तु व्यवस्था वहीँ रह गयी| फिर हम कैसे समाज या राष्ट्र को बचा पाएंगे? भारत और राज्य सरकारों को जी.डी.पी. पर इठलाने की जरुरत नहीं, उसे जमीन  की हकीकत को समझनी चाहिए| जहाँ शिक्षक, डॉक्टर और इंजीनियर अपना काम जिम्मा लगा देते हैं और वेतन का एक निश्चित राशि उसे लगा देते हैं और खुद दूसरे धंधे से जुड़े रहते हैं| ऐसे में समाज की आधुनिक शिष्टाचार को जानने की जरुरत है| अधकचरे पश्चिमी संस्कार हाय, हेल्लो, गुड इविनिंग, गुड नाईट, सभी तरह की अच्छे सामाजिक रीतियाँ परंपरा का खात्मा और बुरे परम्पराओं का आडम्बर भारत में चारों तरफ देखने को मिलता है| दुनिया की जानी-मानी संस्थाओं ने अध्ययन कर कहा है कि भारत की ७०% इंजिनियर या मैनेजमेंट-स्नातक नौकरी देने योग्य नहीं हैं| ये लोग अयोग्य हैं| लेकिन इन्होने डिग्री पाई है| इन देशों में अब ये व्यवस्था हो रही है कि पांच वर्षों से अधिक प्राइमरी स्कूल में कोई छात्र नहीं रहेगा उसे हर हाल में पास किया जायेगा, यानि सब धन बाईस पसेरी अर्थात योग्य, अयोग्य, सक्षम, असक्षम सब एक साथ| यह कौन सी व्यवस्था हम कर रहे हैं| बिहार और झारखण्ड में ९०% शिक्षक की बहाली अयोग्य जो अक्षम लोगों की की गई| जो अंग्रेजी में अपने पिता का नाम नहीं लिख सकते जो हिंदी भाषा में शुद्ध रूप से बोल नहीं सकते वे भी शिक्षक हैं| अयोग्य शिक्षक योग्य छात्र कैसे पैदा करेंगे| बिहार में कुछ माह पहले टी.ई.टी. हुई थी| उसमे ९५% लोग फेल हो गए| जो पास किये वे पैरवी, पैसे और चोरी के बदौलत| अब सोचिये कैसी पढाई होगी हमारे स्कूलों में! बिहार के एक विद्वान प्राचार्य ने कहा कि न स्कूलों में सही शिक्षा है न घर में सही परवरिस|



हालात क्या है सिवान की एक घटना से समझिये| एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र बस में जा रहे थे| रेल ढाला से गुजरते समय एक्सप्रेस ट्रेन से बस टकराई जिसमे सात-आठ लड़के मारे गए| यह जांच हो रही है कि क्या बस में बैठे लड़के ने गेटमैन को समझाकर गेट खोलवायी या नहीं पर छात्रो के लाश की आड़ में गाँव वाले चैन, घडी, मोबाइल, लोगों के पैसे लूट रहे थे| कही ट्रेन में आग लगा दी| यात्रियों से वो लूट-पाट के साथ-साथ औरत और लड़कियों से छेड़खानी शुरू कर दिए| कहाँ पहुच गए हम? यह मानव समाज है या जंगली समाज? इसी तरह मधुबनी में मेडिकल बोर्ड बार-बार कह रहा था कि हमारे पास जो लाश है उसकी उम्र २६ वर्ष है और जो लड़का भागा है उसकी उम्र १७ वर्ष है| दुखियारी माँ ने शोक में कह दिया कि वो लाश उसके बच्चे की है| फिर क्या था इमोशनल ब्लैकमेल के साथ पूरा शहर जल गया| किसी की अंतरात्मा शायद नहीं बची| और तो और राजनीति करने वाले तो मौके के तलाश में रहते हैं और शुरू हो जाती है राजनीती के गोटी सेकना| आग में घी डालने का काम भी शुरुआत कर देते हैं| आम लोग जो संवेदना की आड़ में लूट-पाट के मजे लेने के लिए शहर का शहर जला देते हैं उन लोगों का क्रांति या सामाजिक मुद्दों से कोई सरोकार नहीं| जिस छात्र का अपना कोई स्वविवेक नहीं होता उनके हाथों में तब तक क्रांति की मशाल नहीं दी जाती| मेरा मानना है समाज, देश और विश्व के हित में क्रांति की अनेक कथा और गाथा हैं परन्तु भारत में जिस तरह रोजमर्रे के घटनाओं को लेकर लोग अतिसंवेदनहीन हो जाते हैं एक घटना के बदले कई जानें चले जाना| छोटे पूंजी से बड़े पूंजी वाले लोगों की सारी उम्मीदें खाक हो जाएँ| यह सभ्य समाज के लिए उचित नहीं है| लोग सरकारी संपत्ति तो जलाते ही हैं लेकिन ये नहीं सझते कि इसमें गरीबों-किसानों का अहित है| इन सब घटनाओं का बोझ मानव समाज पर ही पड़ता है| जाति और धर्म, भाषागत, क्षेत्रवाद जैसे दंगे के साथ-साथ ऐसे घटनाओं में उपद्रवियों के लिए ब्रिटेन की तरह सख्त और कठोर कानून की आवश्यकता है, जो निश्चित समय के अंदर कठोर से कठोर सजा दें| विश्वविद्यालय का हाल देख लीजिये प्रोफेसरों और अन्य को लाखों तनख्वाह चाहिए| रिटायर्मेंट और सैलरी बढ़ने के लिए रोज आन्दोलन हो रहा है पर क्या कभी इनकी योग्यता की परख की गई? एक अत्यंत संवेदनशील अनुभवी प्रधानाध्यापक ने अपने लेख में लिखा है कि कई अध्यापक ऐसे हैं कि वे पढ़ा भी नहीं सकते क्योंकि वे अयोग्य हैं| पश्चिमी देशों में खास तौर पर अमेरिका में हर साल प्रधानाध्यापक, प्रोफेसरों को परफोर्मेंस रिव्यू प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है| उन्हें जज किया जाता है| इस औडिट के बाद ही उनका इन्क्रीमेंट (वेतन वृद्धि) तय होता है| बच्चों के परफोर्मेंस से भी शिक्षकों के इन्क्रीमेंट का सम्बन्ध है| भारत में ये शिक्षक पैदा कर रहे हैं अनएम्प्लौयेबल (अयोग्य ग्रेजुएट) परन्तु इनकी तनख्वाह हजारों में है| इन्हें हर साल वेतन वृद्धि चाहिए ही चाहिए| चीन ने हाल ही में टैलेंट पूल बनाया है| सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थियों को छांटकर अलग ढंग से प्रशिक्षित करने का प्रयास| मेरा मानना है कि भविष्य में प्रतिभा तय करने वाली है कि किस मूल्य की क्या हैसियत है| ओलिंपिक खेलों के लिए चीन में ४-५ वर्ष के उम्र से ही सख्त ट्रेनिंग का प्रावधान है| इसे एक हद तक क्रूर ट्रेनिंग कहा जा सकता है| जहाँ जज्बे का सवाल नहीं है| साधना और तप का सवाल है| हम अपने बच्चों को क्या परवरिस और माहौल दे रहे हैं| यह है बड़ा सवाल| चीन का सवाल उठेगा नहीं कि भारतीय तुरंत कह देंगे कि वहां व्यवस्था ही दूसरी है परन्तु भारतियों को समझना चाहिए वहां के शिक्षा में जो प्रावधान है वह डेमोक्रेटिक सिस्टम में भी संभव है| मुझे याद है एक बार राजनाथ सिंह यू.पी. में शिक्षा मंत्री हुआ करते थे उन्होंने मंत्री के रूप में एक ही काम किया जिसकी पहचान अखिल भारतीय सशक्त नेता के रूप में बन गई| उन्होंने कठोर निर्णय लिया, कक्षा १० और +२ में हम किसी कीमत पर नक़ल नहीं होने देंगे| राजनीतिक पार्टी के लिए वर्त्तमान समय में इतना कठोर निर्णय जब देश के हर प्रदेश में बिना काम किये, बिना नौकरी किये, बिना पढ़े सब कुछ पाने की होड़ लगी हुई है| सरकार खुद अपनी सस्ती लोकप्रियता और सत्ता में बने रहने के लिए आक्रामक बना रहा है, तब उस हालात में राजनाथ सिंह और उनकी पार्टी को बहुत महँगी पड़ी| अन्य विरोधी पार्टियों ने यह एलान कर दिया कि वे नक़ल की छूट देंगे| क्या आज के वर्तमान समय में सारे दल के लोग मिलकर ऐसे कठोर निर्णय ले सकते हैं जिससे हमारी शिक्षा की नींव मजबूत हो सके? प्रत्येक क्षेत्र में राष्ट्र या विश्व के निर्माण के लिए दलों में सामाजिक और मानवीय मुद्दों पर आम सहमती जरुरी है| और मेरा मानना है कि यह राजनीतिक दलों पर लोक या जन दबाव से ही संभव है| वर्त्तमान में हमारी सामाजिक या मानवीय नीति क्या है? क्या २१वीं सदी का समाज १९वीं सदी के सामाजिक नियमों से चलेगा? पहले लड़कियों या बच्चों में किशोर होने की उम्र थी १५ या १६ वर्ष, अब वे १२-१३ वर्षों में ही किशोर हो रहे हैं| परन्तु हमारी नीति नहीं बदली| एक ओर नया भारत कहता है कि पाश्चात्य भाव, भाषा, खानपान और वेश-भूषा का अवलंबन करने से ही हमलोग पाश्चात्य जातियों की भाँती शक्तिमान हो सकेंगे| दूसरी तरफ प्राचीन भारत कहता है मुर्ख नकल करने से कहीं दुसरे का भाव अपना हुआ है| बिना उपार्जन किये कोई वस्तु अपनी नहीं होती| क्या सिंह की खाल पहनकर गदहा  सिंह हुआ है? एक ओर नवीन भारत कहता है कि पाश्चात्य भारत जो कुछ कर रही है वही अच्छा नहीं है तो वो कैसे बलवान हो सकते हैं? दूसरी तरफ प्राचीन भारत कहता है कि बिजली की चमक तो खुद की होती है, पर क्षणिक| छात्रों, आपकी आँखें चौंधिया रही हैं| सावधान! जहाँ तक जानने और सीखने का सवाल है वह तो अनंत तक है| जब तक जिज्ञासा की भूख लगी रहेगी तब तक आदमी को सीखना चाहिए| लेकिन ये जिज्ञासा की भूख को जगायेगा कौन? माता-पिता और गुरु| एक तरफ हम पाश्चात्य से सीखने की बात करते हैं और दूसरी तरफ हम खुद के स्कूल में पुस्तकालय में नहीं जाते| शहरों में पब्लिक लाइब्रेरी किस हाल में है, प्रतियोगी परीक्षाओं की होड़ है पर सही अर्थ में ज्ञान पाने, खुद के व्यक्तित्व को विकसित करने का माहौल ही नहीं है| देश मे सांसद फंड, विधायक फंड या अन्य फंडों से लाइब्रेरी विकसित करने की योजना रहती है, परन्तु यदि गहराई से जांच की जाए तो इसमें भी भ्रष्टाचार और सरांध के तथ्य मिलेंगे| बच्चे-बच्चियों में सीखने की ललक है, कुछ कर पाने की हसरत है, परन्तु उस हसरत, सपने को जब तक हम अनुशासन, संस्कार और मूल्य में बांधकर नहीं देंगे बच्चों को, तो वे पीढियां नव मानव समाज की श्रृष्टि का आधार नहीं बन पायेगा| हम बोयेंगे नीम के बीज और खोजेंगे बबूल को, ये कहाँ से होगा? क्या दुनिया में यह कहीं संभव है कि सबकुछ सरकार के भरोसे, राजनीतिक दलों के भरोसे या अफसर के भरोसे छोड़ दिया जाए, तो समाज के पास अपना क्या दायित्व बचेगा? अपने निजी बुराइयों में डूबे रहना? उपभोक्तावाद में डूबे रहना? भौतिक सफलताओं के लिए अपनी नैतिकता और मानवीयता को खो देना| इस माहौल में आप कैसे सोचते हैं कि आपके लिए कोई दूसरा आपका सबकुछ कर दे, यह नामुमकिन है| आज केंद्र सरकार हर राज्य में अच्छे अफसरों की मांग करती है|  लेकिन कई राज्य में अच्छे अफसर नहीं मिलते| कोई राजा अशोक चक्रवर्ती जैसा प्रतिनिधि है नहीं कि राज्याभिषेक में समस्त दुनिया की सबसे खुबसूरत लड़की किसी राज्य के राजा ने उपहार स्वरुप उन्हें भेंट दिया था| जब उपहार को खोला गया तो अशोक आश्चर्य से चकित होकर कहते हैं कि कास ये मेरी माँ होती तो मै कितना सुंदर होता| परन्तु वर्तमान के राजा और जनप्रतिनिधि को फटेहाल में बेबस लाचार कोई गरीब भी दिख जाए अपनी हवस की भूख मिटाने से वे बाज नहीं आयेंगे| पहले ज्ञान से परिपूर्ण राष्ट्रिय सामाजिक मुद्दे पर संघर्ष करने वाले आम आदमी, सांसद, विधायक और जनप्रतिनिधि बनते थे अब तो अरबपति, खरबपति जनप्रतिनिधि बनते हैं, वे भारत के किस वर्ग के हित में बात करेंगे? कैसी पीढ़ी और संस्कार विकसित होंगे ऐसे जनप्रतिनिधियों के नेतृत्व में? कई तरह से आवाजें उठती हैं कि संसद जनप्रतिनिधि भ्रष्टाचारियों का अड्डा है| संसदीय लोकतंत्र में संसद सर्वोपरी संस्था है, पर इस संसद की छवि किन लोगों ने ख़राब की, यह चिंतनीय विषय है| ऐसे लोगों को चुनते कौन है? हम और आप जैसे लोग| ADR (Association For Democratic Rights) के आंकड़ों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि कैसे लखपति, करोड़पति सांसद बन रहे हैं| उससे भी अधिक दुखद प्रसंग है, ऐसे जनप्रतिनिधियों की संपत्ति ५-१० गुना बढ़ कैसे जाता है? इसका राज या मेकेनिज्म क्या है? यह कोई छुपी बात नहीं है| दशकों पहले हमने देखा और सुना सबसे अच्छा जनप्रतिनिधि वे माने जाते थे जहाँ झगड़े कम होते थे| यह भी देखा कि कई विधवाएं घर बना कर अकेले रहती थीं| पूरा गाँव उनका परिवार होता था| ख़ास तौर पर पूर्व में देखा या सुना जाता था कि गाँव में कोई व्यक्ति भूखा नहीं सोता था| मौत या शादी पर पास पड़ोस गाँव के लोग भी हाल बांटने के लिए तत्पर रहते थे| ऐसा समाज और ऐसे मूल्य थे हमारे| हम आगे जरुर बढ़ गए, सड़के और बिजली आ गई, लेकिन हम अकेले हो गए| माता-पिता बोझ बन गए| पहले किसी के पास अधिक पैसा होता था तो समाज की उस पर नज़र होती थी| गलत ढंग से पैसा कमाने वाले की समाज में इज्जत नहीं होती थी| अध्यापक और चरित्रवान लोग ही पूजे जाते थे| आज गाँव समाज में लोग सबसे सुखी और विलासिता में रहना चाहते हैं| परन्तु चुनते हैं भ्रष्टाचारियों, जाति और धर्म के नाम पर नंगा लूटने वाले आदमखोर को| कुर्सी, ताकत और दौलत जिसके पास हो वह सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति है| इससे परिवर्तन की उम्मीद कैसे की जा सकती है? गाँव में पहले सुभाष, विवेकानंद, भगत, असफाक, कबीर, ऋषि-मुनि को पूजते थे| उनके नामों को याद करके अपने बच्चों के नाम रखते थे| लोगों के भीतर इनका जो दर्शन था, उनके चरित्र, संस्कार और रास्ते पर चलने का जो प्रयास था, जिसके कारण बच्चों के भीतर ऊँचे संस्कार देखे जाते थे| आज शहरी या ग्रामीण समाज में सोशल औडिट रह ही नहीं गया है| किसी के पास किसी भी तरह से सत्ता और पैसा है तो वो पूज्यनीय है| हमने पाश्चात्य परिवर्तन के दौर में समाज के साथ-साथ परिवार को भी तोड़ दिया और नए विकल्प के रूप में कुछ भी नहीं रहा| इसलिए भारतीय समाज आज पूर्णतः लकवाग्रस्त हो चुका है| पिछले कई दशक से इंग्लैंड, अमेरिका, ब्रिटेन वगैरह पश्चिमी देशों में परिवार मजबूत करने के आन्दोलन चला रहे हैं| इस मुद्दे पर राष्ट्रीय चुनाव लड़े जा रहे हैं| पर हम पश्चिमी और यूरोपीय देशों के रास्ते चल रहे हैं| यूरोपीय समाज में २०० वर्ष पुरानी परंपरा है, सामाजिक सुरक्षा के अनेक योजनायें हैं| अगर बेटा या बेटी १८ वर्ष की उम्र में घर छोड़ता है या अपनी अलग जगह रहता है तो उसे सरकारी भत्ते मिलते हैं| बड़े-बूढ़े समाज से अलग भी हैं तो सरकार के ओल्ड एज होम में रहते हैं| अच्छी चिकित्सा पाते हैं| बच्चे या बूढ़े के लिए हमारे यहाँ इस तरह की कोई व्यवस्था नही है| यूरोप में परिवार, समाज सरकार की जिम्मेवारी है| वहां की व्यवस्था इन्सान को पालती है| परन्तु न्यूक्लियर फैमिली ने सारी व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया| नए सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था हमने अच्छे पैटर्न पर बनाये नहीं| अधिकांस सामाजिक बीमारियों के कारण या तो पाश्चात्य व्यवस्था है या अकेलापन| यहाँ सभी अंकल-आंटी हैं| बड़े मम्मी-पापा सभी गायब हैं| भारतीय व्यवस्था में ये सिर्फ रिश्ते नहीं थे बल्कि समाज बाँधने के सूत्र थे| कई ऐसे देश हैं जो आज परिवार बचाने के लिए आन्दोलन चला रहे हैं| जो सरकार द्वारा नहीं बल्कि आम आदमी द्वारा| उनके कैम्पेन का नारा हुआ करता है – “सेव द फैमिली नॉऊ”| दूसरी तरफ अश्वेत परिवार में तलाक दर को २५% घटाने की योजना है| एच.आई.वी. एड्स जैसी बीमारियों को घटाने के लिए आम आदमी द्वारा आन्दोलन चलाये जाते हैं| उच्च विद्यालय से निकाले जाने दर को भी घटाने के लिए आन्दोलन किये जाते हैं| वरिष्ट नागरिक की रक्षा और अमेरिका के २५ शहरों में वृद्धों के लिए आवास का निर्माण| क्या भारत में इस तरफ की योजना या चिंतन या इस तरफ के विचार आम आदमी या सरकार के पास है? आज जरुरत है इन सारे मुद्दों को लेकर जागने की, आम आदमी के विचारों में परिवर्तन लाने की| न की प्रचार के भूख के लिए दिल्ली के चौराहे पर हम एक-दुसरे को गाली देते रहें, कैंडल जलाते रहें, जिससे किसी भी समाज का कोई भला नहीं हो सकता| आइये मिलकर हम नई व्यवस्था, नये समाज का निर्माण करें ताकि नूतन और शोषण-भय मुक्त भारत का निर्माण हो सके|