ज़रा
सोचिये!
समाज के
पतन के लिए जिम्मेवार कौन है? और वर्तमान पीढ़ी हमें कहाँ ले जा रही है?
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनास्मी जानताम,
देवाभागम यथा पूर्वे संजानाना उपासते|
समानी वा आकूति समाना ह्रदयानि वः,
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति||
गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णुः गुरुर देवो महेश्वरः |
गुरुर साक्षात् परमब्रह्म तस्मै श्री गुरुए नमः ||
हमारे जीवन का परम उद्देश्य
इन्ही दो श्लोकों में सारगर्भित है|
सब साथ चलें, एकजुट
रहें और सबके मन का भाव समान हो तथा प्रत्येक मन को जोड़कर विश्वस्तरीय मन का
निर्माण करें !
ब्रह्माण्ड के सभी
गुणों का समुचित उपयोग करो, जिस प्रकार पुराने ज़माने में ऋषि-मुनि हवि: (यज्ञों का
भोजन) स्वीकारते थे|
आपका एक आदर्श हो और
आप एक-दुसरे से अविभाज्य हों!
आपके मन में एक ही
भाव का समावेश हो ताकि आप एक रहें!
ऋषि-मुनियों के काल
से ही नैतिकता साधना की आधारभूमि रही है| परन्तु यह याद रखना चाहिए कि नैतिकता
साधना का चरम लक्ष्य नहीं है| साधना के प्रारंभ में ही मानसिक सामंजस्य की आवश्यकता
होती है| इसी मानसिक सामंजस्य का नाम है नैतिकता अर्थात मोरालिटी| नीतिवाद की पहली
शिक्षा है यम साधना| ऋषि-मुनि, हमारी संस्कृति और हमारे परमपुरुष ने यम के बारे
में बताया है| परमपुरुष के अनुसार अहिंसा,
सत्य, अस्त्रे, ब्रह्मचर्य, संयम और अपरिग्रह ये जीवन के मूल दर्शन हैं| संयम शब्द
का अर्थ है नियंत्रित व्यवहार जिससे किसी को कष्ट ना हो, कभी किसी का अनहित ना हो|
जीवन के इन्ही मूल दर्शन को ध्यान में रखकर ही हमारे इतिहास की नीव पड़ी थी|
किन्तु, आज गंभीर
चिंता का विषय यह है कि हम आज़ादी के ६५ साल बाद भी “बसुधैव कुटुम्बकम” एवं “आत्म
मोक्षार्थ जगत हिताय च” से कितनी दूर हो चुके हैं और वर्त्तमान समय में हम कहाँ
है| इस देश के हाल के बारे में क्या कहा जाये| शूद्रों की बात तो अलग रही, भारत का
ब्रह्मत्व अभी भी गोरे अध्यापकों में है और उसका क्षत्रित्व चक्रवर्ती अंग्रेजों में
है और उसका वैश्वत भी अंग्रेजों के नस-नस में है| घोर अंधकार ने अब सबको समान भाव
से ढँक लिया| अब चेष्टा में दृढ़ता नहीं रही और न ही मन में बल| अपमान से घृणा नहीं
है और दासत्व से अरुची नहीं है| हृदय में प्रीति नहीं और मन में आशा नहीं है| क्या
केवल, प्रबल इर्ष्या, स्वजातीय द्वेष मानव प्रदत्त धर्म की आड़ में आडम्बर,
कर्मकांड और शोषण ही हमारे वर्तमान का एक मात्र सच है| अच्छे मोबइल के विज्ञापनों
में सेक्स ओवरटोन (यौन सम्बन्ध) के परोक्ष और अपरोक्ष संकेत है| दिन-रात टीवी
चैनेलों में देखिये| यौन इच्छा को बढ़ावा का दावा करने वाली दवाओं के विज्ञापन
छोटे दिखते हैं| हर छोटे-बड़े धारावाहिक की आधारभूमि अवैध सम्बन्ध और हिंसा है| फ़िल्मी
गाने सुनिए तो लगेगा सभी द्वीअर्थी या एकर्थी है| फिल्म जिस्म-२ की सफलता देखिये,
सेक्स विषय पर बम्पर बिजनस, छोटे-छोटे बच्चों के रियल्टी शो को देख लीजिये, वे
कैसे-कैसे फ़िल्मी गाने पर नृत्य करते हैं या गाते हैं| शीला की जवानी, नही चाहिए
तेरी सेकण्ड हैण्ड जवानी, जैसे गाने बच्चे गाते हैं, उसपर बच्चों के अभिभावक खूब
तालियाँ बजाते हैं| धर्म, भक्ति, पूजा का एक मात्र लक्ष्य स्वार्थ साधने में रह
गया है | ज्ञान अनित्य वस्तुओं के संग्रह में है| भोग, पैशाचिक आचार में है| और
भौतिक कर्म दूसरों के दासत्व में है| सभ्यता विदेशियों की नकल करने में है|
वक्तृत्व कटु भाषण में है| और भाषा की उन्नति अमीरों की बेढंगी खुसामद और अश्लीलता
के प्रचार में है| जब सारे देश में शुद्रत्व भरा हुआ है तो शूद्रों के विषय में
क्या कहा जाए? यानी देश के शुद्रकुल की नींद टूटी जरुर है और उनमे विद्या नहीं है|
उसके बदले है उनका साधारण जाति गुण, स्वजातीय द्वेष| उसकी संख्या अधिक ही है तो
क्या? जिस एकता के बल पर दस मनुष्य लाख मनुष्यों की शक्ति अर्जित करते हैं, वह
एकता शूद्रों से कोसों दूर है| इसलिए आज भी सारी शुद्र जाति आडम्बर, कर्मकांड,
भाग्य, किस्मत, भय के नियमों के अनुसार ही पराधीन है| मेरा मानना है कि भारत में
शर्म और हया नाम की कोई चीज नहीं रही| क्या
भारत शर्म और हया से मुक्त समाज हो सकता है? बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं देंगे
परन्तु अश्लील विज्ञापन दिखायेंगे| टीवी प्रतियोगिता में उतारेंगे, अश्लील सिनेमा
दिखायेंगे, फिर बात करेंगे १२-१४ वर्ष के बच्चे घरों से क्यों भाग जाते हैं? दरअसल
भारतीय समाज तेजी से टूट रहा है| जिस तरह रियेल्टी शो डांस विज्ञापन, बिकिनी शो,
बूगी-वूगी में बिकिनी पहनाकर छोटे-छोटे बच्चों को नचाया गया या रैम्प करवाया गया,
वह क्या है? कहीं से तो कोई आवाज़ उठे इन चीज़ों के खिलाफ| ना माता-पिता आवाज़
उठाते हैं ना ही समाज| सरकार और सरकार के लोग, पदाधिकारी तो इन चीज़ों में नंगे ही
हैं| बल्कि ऐसा आयोजन करने वाला या फिल्म बनाने वाला, आज की भाषा में बम्पर बिजनेस
करता है| उन्हें कई तरह के अवार्ड मिलते हैं| नैतिकता, अध्यात्म, साधना, संस्कृति
की जगह अब बिजनेस ही सब कुछ होता चला गया| भगत सिंह, सुभाष, विवेकानंद, कबीर,
मोहम्मद, लाल बहादुर शास्त्री, पटेल, यीशु, शिव, कृष्ण ये वर्तमान में किन्ही के
लिए प्रासंगिक नही हैं| ये हमारे रोल मॉडल नहीं रह गए| अब हमारे रोल मॉडल हैं –
बिल गेट्स, सचिन, अमिताभ बच्चन, अम्बानी, विजय माल्या आदि| ना मोरल, ना एथिक्स,
अश्लील, वल्गर चीजों ने साहित्य के चरित्र का सत्यानाश कर दिया है| अनेक ऐसी
पत्रिकाओं में लोगों के अनुभव पढ़िए, कैसे अश्लील अनुभव छपते हैं| इंटरनेट, टीवी पर
विज्ञापन, मोबाईल पर एसएम्एस या एम्एसएस आना कि क्या आप किसी लड़की से बात करेंगे|
इससे सब पीड़ित हैं, परन्तु हम सब प्रतीक्षा में हैं| कोई सुभाष, कोई भगत, या कोई
विजयी सम्राट या इश्वर अवतार ले और हमें इन चीजों से मुक्ति दिलाये| अपने अकर्म की
कीमत हम चुका रहे हैं| ऐसे सामाजिक हालतों से सरोकार सबको है| इस बीमारी से सब
पीड़ित हैं| पर ऐसे विषय पर विरोध में ना शिक्षकों की आवाज़ सुनी ना अभिभावकों की,
ना सामाजिक संगठनों की आवाज़ सुनी और ना ही आम आदमी की| सरकार की तो बात ही कुछ और
है| एन.जी.ओ. तो बोलेंगे ही नहीं क्योंकि उन्हें अच्छे और इन कामों के लिए फंड ही
नहीं मिलते हैं| क्या यही आदर्श समाज है? सरकार और राजनीतिक दल तो कुछ है ही नही,
उन्हें पता है कि जनता और लोगों के पोप्युलर ट्रेंड, टेस्ट और रुझान क्या है| फिर
भला अश्लील चीजों पर पाबंद कौन लगाएगा? स्कूल, कॉलेजों में बिना पढाये यदि खुलेआम
चोरी करवाकर वाहवाही सरकार लूटती है| फिर ऐसे चीजों पर पाबन्दी कैसे? इन्ही सारे
कार्यों से तो सरकार की सस्ती लोकप्रियता बढती जा रही है और समाज घुन-खाए-खम्भा की
तरह धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है| प्रत्येक स्कूल के शिक्षक के लिए कुछ
किताबें जैसे – गीता, रबिन्द्र नाथ टैगोर, अरविन्द, श्री आनंदमूर्ती जी की किताबें
जो शिक्षक के चरित्र का निर्माण करती हो, आवश्यक होनी चाहिए| प्राथमिक शिक्षक से
लेकर प्रोफेसर तक का चरित्र क्या है? ऐसे अनेकों अपवाद हैं और मिलेंगे| जिसके कारण
लोग गाँव में परेशान हैं| बच्चे-बच्चियां बिगड़ रहे हैं, उन्हें खुद से पूछना
चाहिए कि बिहार और झारखण्ड में जब पारा (अर्ध) शिक्षकों की नियुक्ति हुई तो
क्या-क्या खेल हुआ| कितनी माँ-पत्नियों के जेवर बिके? अनेक ऐसे मामले हैं जिसमे
रिश्तेदारों से पैसे लेकर फर्जी अंकपत्र, सिफारिश पर शिक्षकों के पदों पर बहाल कराया
गया| हमने सुना है कि १९७०-८० के पूर्व के
मुखिया ईमानदारी पर चुने जाते थे| लेकिन आज अगर गरीब व्यक्ति भी मुखिया बन गया तो
५ वर्षों में वह अमीर या करोड़पति बन जाता है| आज अगर मुखिया ठान ले तो प्राइमरी स्कूल,
सेकेंडरी स्कूल को सुधर सकता है| एक आम, आदमी अन्ना हजारे, क्या अपने गाँव का
कायाकल्प नही किया? लोकतंत्र में पंचायती राज व्यवस्था का बहुत ही महत्वपूर्ण
स्थान है| और उस व्यवस्था को चलाने वाले प्रधान ही अगर बेईमान हो जाएँ तो क्या यह लोकतंत्र बच पायेगा? सामाजिक व्यवस्था को समाप्त
होने से कौन बचाएगा? जब समाज नही बचेगा तो क्या देश बच पायेगा?
मेरा मानना है इन सारी बातों के लिए आम आदमी जिसे हम वोटर कहते हैं वो ही
जिम्मेदार है| आम आदमी को सामाजिक और राष्ट्रीय विकास में कम और अपने निजी विकास
में ज्यादा दिलचस्पी रहती है| शिक्षक को घर मे बैठे तनख्वाह चाहिए| अपने निजी
क्लिनिक पर बैठे डॉक्टर को सरकारी असपताल से
तनख्वाह चाहिए| स्कूल की सारी धनराशि ऊपर से नीचे तक डी.ई.ओ. से लेकर
शिक्षक और प्रधानाध्यापक तक लूटते हैं| बैठे-बैठे मनरेगा की मजदूरी हमें मिल जाये,
मुखिया जी भी वाह-वाह, मजदूर भी वाह-वाह| रोड का ईंट घर में लगाने दो, आम आदमी
जयकार करते नहीं थकता| नहर की पानी को सरकार फ्री कर लोन वसूली ना करे तो वह सरकार
बहुत अच्छी| बिजली जलाएंगे उसका पैसा नहीं देंगे, वह सरकार बहुत अच्छी| किसी तरफ
का लोन, वह छात्रवृति क्यों ना हो, हम लौटायेंगे नही| इस खतरनाक प्रवृति की चाहत
रखने वाले आदमी अच्छे समाज की क्या कल्पना
कर सकता है| आम आदमी से कैसे उम्मीद करते हैं कि वह लोकतंत्र बचा पायेगा?
दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी गुजरात का मुख्यमंत्री जो उसके साथ काम करने वाले
आई.ए.एस.ने कहा कि लॉ के मुताबिक नरेन्द्र मोदी खुद अपराधी हैं| फिर क्यों ना वो
दीपावली मनाएंगे| जिस देश की ६०% जनता रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, आवास के लिए
लालायित हो और दूसरी तरफ इसी देश के १०० आदमी का अधिपत्य भारत की राजनीति, सारी संपदा, खनिज और भूखंडों पर हो उस
देश में नरेन्द्र मोदी दीपावली नही मनाएंगे तो कौन मनायेगा? एक मुखिया
लाखों-करोड़ों की मिट्टी का काम करवाता है और उस देश का अधिकतर मिट्टी का कार्य
किये बिना ही गलत बिल उठा लेता है, रोजगार गारेंटी योजना में मुखिया सौदेबाजी करता
है| साल में १५० दिन काम देने का प्रावधान है वे मजदूर को कहते हैं कि बिना काम
किये ही तुम ७५ दिन की मजदूरी ले लो और शेष मेरा| फर्जी मास्टर रोल बनाता है| ऐसी
धांधली दुनिया में कहीं चली है? सिर्फ यह हमारे समाज मे है| वृक्षारोपण की योजना
बनी यह अद्भुद योजना थी, इससे श्रृष्टि और मनुष्य का अस्तित्व जुड़ा हुआ है| कितने
पेड़ लगे कितने सूख गए इसका सोशल औडिट हुआ है क्या? मुखिया और मजदूर बैठे-बैठे
पैसा पाए| बिना काम के मजदूरी लेकर काहिलों की फ़ौज खड़ी की जा रही है| इससे पूरा का
पूरा समाज ही बीमार हो जायेगा| कहीं वोट के लिए साईकिल तो कहीं टीवी तो कहीं जेवर
तो कहीं लैपटॉप, कहीं चावल| यह सब सरकार की सस्ती लोकप्रियता नही तो क्या है? जब
वोट साईकिल, चावल, मोटरसाइकिल पर ही मिलना है तो सरकार को अच्छे काम करने की क्या
जरुरत है? और ऐसी सरकार तो बेईमान होगी
ही| जो कुछ-देकर सरकार मे लौटेगी तो उसे बेईमान तो होना ही है| बाद में वही सरकार
वसूलती है| प्रत्येक पंचायत में सोलर सिस्टम लगाने की एक अद्भुत योजना बनी| इसकी
आज जांच करा लिया जाये तो कितने सोलर लगाये गए और कितने बिना लगाये ही पैसे उठा
लिए गए| दो नंबर का सोलर सिस्टम लगाया गया| १०-१२ हज़ार का सोलर सिस्टम ३५-३६ हज़ार
में खरीदा गया| स्थिति यह है कि जो लगाया गया वो करीब-करीब काम ही नही करते हैं|
इसके लिए सोशल औडिट की जरुरत है| कौन आएगा इसमें आगे? गाँव में जो आजकल सरकारी
चापाकल लगवाया जाता है वो रामभरोसे है, जो किसी की निजी दरवाज़े पर लगाया गया हो वो
तो सही है अन्यथा एक भी चापाकल पंचायत में सही नही है| २०० फीट नीचे तक पाइपलाइन
डालना परन्तु पाइप डाला गया मात्र ५०-६० फीट| पाइप भी प्लास्टिक का कोई निकालकर
जांच भी नही कर सकता| यही स्थिति लगभग पंचायत स्तर पर सार्वजनिक जीवन की है| गाँव
के लोग खुद सामाजिक, जातीय, धार्मिक और निजी कारणों से बंटा हुआ है| लोभ और भय के
कारण जब लोग मूक दर्शक हो जाएँ तो फिर वह स्वर्ग में रहने की कल्पना कैसे कर लेते
हैं? नरक में रह कर स्वर्ग में जीने की चाहत बेईमानी है| अगर कोई सच मे नैतिक समाज
चाहता है, बच्चों में संस्कार और मूल्य चाहता है तो खुद में निजी जीवन में अमूल
चूल परिवर्तन करन होगा| जब तक आप अपने इस सोच को सुधारकर, सही विचारधारा से आगे
कदम नही बढ़ाएंगे तो कैसे सुंदर समाज की कल्पना करेंगे? गाँव की बुनियादी संस्थाओं की
जड़ में मट्ठा डालेंगे और उम्मीद करेंगे कि आपके समाज में विषैल पैदा ना हो, अच्छे
लोग पैदा हों ये कैसे संभव है? तोड़ दीजिये ऐसे भ्रम को! अगर बचपन से ही यदि कोई बच्चा
शराब में डूबा हुआ है तो वह बड़ा होकर परिवार, समाज, राज्य में बोझ बनने वाला है| हमने
स्कूल से लेकर आजतक जब कभी कबीर की वाणी को सुना, बिना समझे रहीम के दोहे सुने,
बिना अर्थ या मर्म जाने सूरदास, तुलसीदास, रसखान, मीरा, सुभाष, विवेकानंद, भगत,
रविन्द्र, आचर्य रजनीश, गुरुनानक, गुरु गोविन्द जी, आनंदमूर्ति जी, महात्मा बुद्ध,
जायसी को पढ़ा| इन सबों की तमाम उपदेश हमारे पीढ़ी के कानों में गूंजे तो, लेकिन
मर्म की समझ नहीं थी| कहीं रामचरितमानस की पंक्तियाँ गूंजी तो कहीं मानव निर्माण
और मानव सभ्यता और मानवीय जीवन में एक उच्च आदर्श की स्थापना कर्म, ज्ञान के आधार
पर मानव की विवेचना करने वाले ब्रह्म और सदाशिव और महासंभूती श्री कृष्ण के
साथ-साथ कक्षा चार या पांच में सुदर्शन की हार या जीत पढ़ी जो हर इन्सान को महीने
में एक बार पढना चाहिए| सरदार पूरण सिंह के निबंध पढ़े जिन्होंने मन को छुआ| और
वैसे ही पवित्र नामों के स्पर्श का जादू था कि हम जैसे अज्ञानी, नासमझ व्यक्ति भी
काम चलाऊ बन गए| परन्तु अब तो अंत्याक्षरी भी फ़िल्मी गीतों में होने लगे| शायद
कविता और फ़िल्मी गानों में फर्क आज का समाज नहीं जान पायेगा| कविता संस्कार देती
है, मूल्य देती है और मानवीय बनाती है, कुछ फ़िल्मी गीत मन को स्पर्श भी करता है
लेकिन आजकल अत्यधिक फ़िल्मी गाने इन्द्रियों को छूते हैं, भौतिक भूख बढ़ाते हैं, भौतिक
आकाँक्षाओं की आग में घी डालने का काम करते हैं|
२००३-०४ के आस-पास की घटना है| एनरौन दुनिया की मशहूर मल्टीनेशनल कम्पनी थी, अचानक
एनरौन तथा कुछ और अमेरिकन कम्पनियाँ दिवालिया हो गयी| उस वक्त टाईम्स की एक महिला
पत्रकार ने शोध किया| जिन कंपनियों के टर्न ओवर कई बड़े देश के जी.डी.पी. से अधिक
थे वे रातों-रात दरिद्रता और कंगाली में डूब कैसे गए और दिवालिया कैसे हो गए| उस
पत्रकार को इस बेहतर रिपोर्ट के लिए उस वर्ष का सबसे सम्मानित अवार्ड भी मिला| उसने
अपने शोध में पाया की बड़े-बड़े कंपनियों में टॉप पर बैठे ‘लोग’ या जो ‘दिमाग’ थे,
वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन संस्थानों से पढ़ कर निकले थे, जिन्हें सेंटर ऑफ़
एक्सिलेंस कहते हैं| यहाँ से पढ़कर निकलते ही करोड़ों के नौकरी! जहाँ एडमिशन होना
अभी के दुनिया में मोक्ष-पाना माना जाता है| असीम उपलब्धि या नोबल प्राइज़ पाने
जैसे उपलब्धि ऐसे सर्वश्रेष्ठ संस्थानों से निकले लोगों ने इन बड़ी कंपनियों में
जमकर फर्जीवाड़ा, लूट भोग किया, अकाउंटिंग में हेर-फेर की, ऐसा करने वाले लोग
अत्यंत ही मेधावी यानि दुनिया के बेस्ट ब्रेन्स थे| दुनिया की सर्वश्रेष्ठ जगह से
पढ़े लोग थे पर ये लोग धोखाधड़ी, छल-प्रपंच क्यों करते रहे? इसपर कई मनोवैज्ञानिकों
ने राय दी के इनमे प्रतिभा थी पर परन्तु मूल्य, एथिक्स और सार्वभौमिक ज्ञान का सख्त
अभाव था|
किसी भी इन्सान में मूल्य और एथिक्स गढ़ने का काम समाज में कविता, कहानी और
अध्यात्म ही करते हैं| तबसे इन प्रबंधन स्कूलों में अरविन्द, गीता, सुभाष,
विवेकानंद, गाँधी, अन्य गुरुओं या अन्य भाषाओँ में ऐसी चर्चा बढ़ी, इन्हें भी
पाठ्यक्रम में शामिल किया जाने लगा| दुनिया की सर्वश्रेष्ठ संस्थाऐ मूल्य और
सरोकार पैदा करने वाली साहित्य को रख रहे हैं| लेकिन पता कर लीजिये की वर्त्तमान
में हमारे स्कूलों या अध्यापकों में इन चीजों के प्रति कितना सरोकार है| जब
कुम्हार को मिट्टी गढ़ना ही नहीं मालूम तो वह कैसा बर्तन बनाएगा! अपने बच्चों के
जीवन पर नज़र डालिए! घर से शुरुआत हो, एक क्लास से ही लगातार बच्चे ट्यूशन के लिए
भागते हैं, देर रात घर पहुंचते हैं| डॉक्टर कहते हैं की स्कूलों में असमय पुस्तकों
का बढ़ता बोझ बच्चों को नाटा, कुबड़ा बना रहा है| तनाव इतना है की कम उम्र में
बच्चों को मधुमेह, डाईबिटिज़ जैसे रोग होने लगे हैं| स्कूल अगर महंगे हैं तो
काउंसलर या सही सलाह देने वाले मिल जाते हैं| कितने भारतीय आज की इस महंगाई में
अपने बच्चों को महंगे स्कूल में पढ़ा सकते हैं? एक नहीं कई बच्चे हैं, जनसँख्या पर
आत्म संयम तो है नहीं| वर्त्तमान में बच्चों के शिक्षक कैसे हैं, यह कहने की जरुरत
नहीं| चीन का एक उदाहरण समझ लीजिये वह देश या समाज अपने नागरिकों या आने वाली
पीढ़ी में जो मूल्य संस्कार देखना चाहता है, उन्ही मूल्य और संस्कारों के अनुरूप
अध्यापकों का परीक्षा कराता है| विश्व के अनुरूप नहीं| शिक्षक के बारे में गोपनीय
रिपोर्ट लिया जाता है कि इन अध्यापकों का जीवन चरित्र कैसा है? इनमे वे दाग तो
नहीं जो भविष्य में अपने चीनी समाज में देखना नहीं चाहते| भारत सरकार की अनेक
नौकरियों में अंग्रेजों ने प्रावधान तय किया था कि चयन के बाद उनकी पारिवारिक या
निजी पृष्ठभूमि मंगाई जाती थी| अब ऐसी प्रथा बंद हो गई| आज हिंदी प्रदेशों में
सबसे तिरस्कृत प्राइमरी स्कूल की शिक्षा व्यवस्था है| कितने शिक्षा अधिकारी आज
स्कूलों में औचक निरिक्षण करते हैं? गाँव के स्कूल में इंस्पेक्टर का आना ऐतिहासिक
घटना होती थी| इसकी तैयारी चलती थी| स्कूल में कोई अभिभावक कुछ कह ना दे इसके कारण
स्कूलों में साफ़-सफाई की चिंता दिखती थी| आज़ादी के बाद जो अच्छी चीज हमें विरासत
में मिली हम उसे भी तहस-नहस और बर्वाद कर चुके हैं| सच कहिये तो हमारे अंदर ज्ञान
का सख्त अभाव है| हम काम करने की कला-संस्कृति से काफी अनभिज्ञ हैं| किसी कामों को
सही तरीके से करना हमारे व्यक्तित्व में नहीं है| अगर अमेरिका जैसे संपन्न देश में
यह व्यवस्था है की प्रत्येक स्कूल में समान शिक्षा हो तो भारत जैसे गरीब मुल्क में
क्यों नहीं हो सकता? हमें याद है की हम जिस जिला स्कूल में पढ़ते थे वह अंग्रेजों
के ज़माने से हुआ करता था वहां समान शिक्षा हुआ करता था| आज़ादी के बाद भी कुछ दिनों
तक प्राइमरी स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र कैसे अच्छा रहता था? जहाँ आने-जाने की सुविधा
भी नहीं थी वहां डॉक्टर, शिक्षक के रहने की व्यवस्था समुचित थी और रहते थे| आज
हालत बदले हैं सुई से प्लेन पर चले गए| न्यूक्लियर बम से दुनिया को नष्ट करने की
क्षमता बढ़ी| बड़े-बड़े उद्योग के जरिये प्रकृति को नष्ट कर देश का जी.डी.पी. और
कुछ मुट्ठी भर लोगों ने धन को मजबूत करने के कुछ नऐ तरीके देखे गए हैं| हम सवा सौ
करोड़ के लगभग हैं| शायद २० वर्ष में १५० करोड़ के ऊपर हो जायेंगे| जमीन घटती चली
गयी और अट्टालिका माकन के बढ़ते देखे हैं| परन्तु व्यवस्था वहीँ रह गयी| फिर हम
कैसे समाज या राष्ट्र को बचा पाएंगे? भारत और राज्य सरकारों को जी.डी.पी. पर
इठलाने की जरुरत नहीं, उसे जमीन की हकीकत
को समझनी चाहिए| जहाँ शिक्षक, डॉक्टर और इंजीनियर अपना काम जिम्मा लगा देते हैं और
वेतन का एक निश्चित राशि उसे लगा देते हैं और खुद दूसरे धंधे से जुड़े रहते हैं|
ऐसे में समाज की आधुनिक शिष्टाचार को जानने की जरुरत है| अधकचरे पश्चिमी संस्कार
हाय, हेल्लो, गुड इविनिंग, गुड नाईट, सभी तरह की अच्छे सामाजिक रीतियाँ परंपरा का
खात्मा और बुरे परम्पराओं का आडम्बर भारत में चारों तरफ देखने को मिलता है| दुनिया
की जानी-मानी संस्थाओं ने अध्ययन कर कहा है कि भारत की ७०% इंजिनियर या मैनेजमेंट-स्नातक
नौकरी देने योग्य नहीं हैं| ये लोग अयोग्य हैं| लेकिन इन्होने डिग्री पाई है| इन
देशों में अब ये व्यवस्था हो रही है कि पांच वर्षों से अधिक प्राइमरी स्कूल में
कोई छात्र नहीं रहेगा उसे हर हाल में पास किया जायेगा, यानि सब धन बाईस पसेरी
अर्थात योग्य, अयोग्य, सक्षम, असक्षम सब एक साथ| यह कौन सी व्यवस्था हम कर रहे
हैं| बिहार और झारखण्ड में ९०% शिक्षक की बहाली अयोग्य जो अक्षम लोगों की की गई|
जो अंग्रेजी में अपने पिता का नाम नहीं लिख सकते जो हिंदी भाषा में शुद्ध रूप से
बोल नहीं सकते वे भी शिक्षक हैं| अयोग्य शिक्षक योग्य छात्र कैसे पैदा करेंगे| बिहार
में कुछ माह पहले टी.ई.टी. हुई थी| उसमे ९५% लोग फेल हो गए| जो पास किये वे पैरवी,
पैसे और चोरी के बदौलत| अब सोचिये कैसी पढाई होगी हमारे स्कूलों में! बिहार के एक
विद्वान प्राचार्य ने कहा कि न स्कूलों में सही शिक्षा है न घर में सही परवरिस|
हालात क्या है सिवान की एक घटना से समझिये| एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र बस में
जा रहे थे| रेल ढाला से गुजरते समय एक्सप्रेस ट्रेन से बस टकराई जिसमे सात-आठ लड़के
मारे गए| यह जांच हो रही है कि क्या बस में बैठे लड़के ने गेटमैन को समझाकर गेट
खोलवायी या नहीं पर छात्रो के लाश की आड़ में गाँव वाले चैन, घडी, मोबाइल, लोगों
के पैसे लूट रहे थे| कही ट्रेन में आग लगा दी| यात्रियों से वो लूट-पाट के साथ-साथ
औरत और लड़कियों से छेड़खानी शुरू कर दिए| कहाँ पहुच गए हम? यह मानव समाज है या
जंगली समाज? इसी तरह मधुबनी में मेडिकल बोर्ड बार-बार कह रहा था कि हमारे पास जो
लाश है उसकी उम्र २६ वर्ष है और जो लड़का भागा है उसकी उम्र १७ वर्ष है| दुखियारी
माँ ने शोक में कह दिया कि वो लाश उसके बच्चे की है| फिर क्या था इमोशनल ब्लैकमेल
के साथ पूरा शहर जल गया| किसी की अंतरात्मा शायद नहीं बची| और तो और राजनीति करने
वाले तो मौके के तलाश में रहते हैं और शुरू हो जाती है राजनीती के गोटी सेकना| आग
में घी डालने का काम भी शुरुआत कर देते हैं| आम लोग जो संवेदना की आड़ में लूट-पाट
के मजे लेने के लिए शहर का शहर जला देते हैं उन लोगों का क्रांति या सामाजिक
मुद्दों से कोई सरोकार नहीं| जिस छात्र का अपना कोई स्वविवेक नहीं होता उनके हाथों
में तब तक क्रांति की मशाल नहीं दी जाती| मेरा मानना है समाज, देश और विश्व के हित
में क्रांति की अनेक कथा और गाथा हैं परन्तु भारत में जिस तरह रोजमर्रे के घटनाओं
को लेकर लोग अतिसंवेदनहीन हो जाते हैं एक घटना के बदले कई जानें चले जाना| छोटे
पूंजी से बड़े पूंजी वाले लोगों की सारी उम्मीदें खाक हो जाएँ| यह सभ्य समाज के
लिए उचित नहीं है| लोग सरकारी संपत्ति तो जलाते ही हैं लेकिन ये नहीं सझते कि
इसमें गरीबों-किसानों का अहित है| इन सब घटनाओं का बोझ मानव समाज पर ही पड़ता है| जाति
और धर्म, भाषागत, क्षेत्रवाद जैसे दंगे के साथ-साथ ऐसे घटनाओं में उपद्रवियों के
लिए ब्रिटेन की तरह सख्त और कठोर कानून की आवश्यकता है, जो निश्चित समय के अंदर
कठोर से कठोर सजा दें| विश्वविद्यालय का हाल देख लीजिये प्रोफेसरों और अन्य को
लाखों तनख्वाह चाहिए| रिटायर्मेंट और सैलरी बढ़ने के लिए रोज आन्दोलन हो रहा है पर
क्या कभी इनकी योग्यता की परख की गई? एक अत्यंत संवेदनशील अनुभवी प्रधानाध्यापक ने
अपने लेख में लिखा है कि कई अध्यापक ऐसे हैं कि वे पढ़ा भी नहीं सकते क्योंकि वे
अयोग्य हैं| पश्चिमी देशों में खास तौर पर अमेरिका में हर साल प्रधानाध्यापक,
प्रोफेसरों को परफोर्मेंस रिव्यू प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है| उन्हें जज किया
जाता है| इस औडिट के बाद ही उनका इन्क्रीमेंट (वेतन वृद्धि) तय होता है| बच्चों के
परफोर्मेंस से भी शिक्षकों के इन्क्रीमेंट का सम्बन्ध है| भारत में ये शिक्षक पैदा
कर रहे हैं अनएम्प्लौयेबल (अयोग्य ग्रेजुएट) परन्तु इनकी तनख्वाह हजारों में है|
इन्हें हर साल वेतन वृद्धि चाहिए ही चाहिए| चीन ने हाल ही में टैलेंट पूल बनाया
है| सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थियों को छांटकर अलग ढंग से प्रशिक्षित करने का प्रयास|
मेरा मानना है कि भविष्य में प्रतिभा तय करने वाली है कि किस मूल्य की क्या हैसियत
है| ओलिंपिक खेलों के लिए चीन में ४-५ वर्ष के उम्र से ही सख्त ट्रेनिंग का
प्रावधान है| इसे एक हद तक क्रूर ट्रेनिंग कहा जा सकता है| जहाँ जज्बे का सवाल
नहीं है| साधना और तप का सवाल है| हम अपने बच्चों को क्या परवरिस और माहौल दे रहे
हैं| यह है बड़ा सवाल| चीन का सवाल उठेगा नहीं कि भारतीय तुरंत कह देंगे कि वहां
व्यवस्था ही दूसरी है परन्तु भारतियों को समझना चाहिए वहां के शिक्षा में जो
प्रावधान है वह डेमोक्रेटिक सिस्टम में भी संभव है| मुझे याद है एक बार राजनाथ
सिंह यू.पी. में शिक्षा मंत्री हुआ करते थे उन्होंने मंत्री के रूप में एक ही काम
किया जिसकी पहचान अखिल भारतीय सशक्त नेता के रूप में बन गई| उन्होंने कठोर निर्णय
लिया, कक्षा १० और +२ में हम किसी कीमत पर नक़ल नहीं होने देंगे| राजनीतिक पार्टी
के लिए वर्त्तमान समय में इतना कठोर निर्णय जब देश के हर प्रदेश में बिना काम
किये, बिना नौकरी किये, बिना पढ़े सब कुछ पाने की होड़ लगी हुई है| सरकार खुद अपनी
सस्ती लोकप्रियता और सत्ता में बने रहने के लिए आक्रामक बना रहा है, तब उस हालात
में राजनाथ सिंह और उनकी पार्टी को बहुत महँगी पड़ी| अन्य विरोधी पार्टियों ने यह
एलान कर दिया कि वे नक़ल की छूट देंगे| क्या आज के वर्तमान समय में सारे दल के लोग
मिलकर ऐसे कठोर निर्णय ले सकते हैं जिससे हमारी शिक्षा की नींव मजबूत हो सके? प्रत्येक
क्षेत्र में राष्ट्र या विश्व के निर्माण के लिए दलों में सामाजिक और मानवीय
मुद्दों पर आम सहमती जरुरी है| और मेरा मानना है कि यह राजनीतिक दलों पर लोक या जन
दबाव से ही संभव है| वर्त्तमान में हमारी सामाजिक या मानवीय नीति क्या है? क्या
२१वीं सदी का समाज १९वीं सदी के सामाजिक नियमों से चलेगा? पहले लड़कियों या बच्चों
में किशोर होने की उम्र थी १५ या १६ वर्ष, अब वे १२-१३ वर्षों में ही किशोर हो रहे
हैं| परन्तु हमारी नीति नहीं बदली| एक ओर नया भारत कहता है कि पाश्चात्य भाव,
भाषा, खानपान और वेश-भूषा का अवलंबन करने से ही हमलोग पाश्चात्य जातियों की भाँती
शक्तिमान हो सकेंगे| दूसरी तरफ प्राचीन भारत कहता है मुर्ख नकल करने से कहीं दुसरे
का भाव अपना हुआ है| बिना उपार्जन किये कोई वस्तु अपनी नहीं होती| क्या सिंह की
खाल पहनकर गदहा सिंह हुआ है? एक ओर नवीन
भारत कहता है कि पाश्चात्य भारत जो कुछ कर रही है वही अच्छा नहीं है तो वो कैसे
बलवान हो सकते हैं? दूसरी तरफ प्राचीन भारत कहता है कि बिजली की चमक तो खुद की
होती है, पर क्षणिक| छात्रों, आपकी आँखें चौंधिया रही हैं| सावधान! जहाँ तक जानने
और सीखने का सवाल है वह तो अनंत तक है| जब तक जिज्ञासा की भूख लगी रहेगी तब तक
आदमी को सीखना चाहिए| लेकिन ये जिज्ञासा की भूख को जगायेगा कौन? माता-पिता और
गुरु| एक तरफ हम पाश्चात्य से सीखने की बात करते हैं और दूसरी तरफ हम खुद के स्कूल
में पुस्तकालय में नहीं जाते| शहरों में पब्लिक लाइब्रेरी किस हाल में है,
प्रतियोगी परीक्षाओं की होड़ है पर सही अर्थ में ज्ञान पाने, खुद के व्यक्तित्व को
विकसित करने का माहौल ही नहीं है| देश मे सांसद फंड, विधायक फंड या अन्य फंडों से
लाइब्रेरी विकसित करने की योजना रहती है, परन्तु यदि गहराई से जांच की जाए तो
इसमें भी भ्रष्टाचार और सरांध के तथ्य मिलेंगे| बच्चे-बच्चियों में सीखने की ललक
है, कुछ कर पाने की हसरत है, परन्तु उस हसरत, सपने को जब तक हम अनुशासन, संस्कार
और मूल्य में बांधकर नहीं देंगे बच्चों को, तो वे पीढियां नव मानव समाज की
श्रृष्टि का आधार नहीं बन पायेगा| हम बोयेंगे नीम के बीज और खोजेंगे बबूल को, ये
कहाँ से होगा? क्या दुनिया में यह कहीं संभव है कि सबकुछ सरकार के भरोसे, राजनीतिक
दलों के भरोसे या अफसर के भरोसे छोड़ दिया जाए, तो समाज के पास अपना क्या दायित्व
बचेगा? अपने निजी बुराइयों में डूबे रहना? उपभोक्तावाद में डूबे रहना? भौतिक
सफलताओं के लिए अपनी नैतिकता और मानवीयता को खो देना| इस माहौल में आप कैसे सोचते
हैं कि आपके लिए कोई दूसरा आपका सबकुछ कर दे, यह नामुमकिन है| आज केंद्र सरकार हर
राज्य में अच्छे अफसरों की मांग करती है|
लेकिन कई राज्य में अच्छे अफसर नहीं मिलते| कोई राजा अशोक चक्रवर्ती जैसा
प्रतिनिधि है नहीं कि राज्याभिषेक में समस्त दुनिया की सबसे खुबसूरत लड़की किसी
राज्य के राजा ने उपहार स्वरुप उन्हें भेंट दिया था| जब उपहार को खोला गया तो अशोक
आश्चर्य से चकित होकर कहते हैं कि कास ये मेरी माँ होती तो मै कितना सुंदर होता|
परन्तु वर्तमान के राजा और जनप्रतिनिधि को फटेहाल में बेबस लाचार कोई गरीब भी दिख
जाए अपनी हवस की भूख मिटाने से वे बाज नहीं आयेंगे| पहले ज्ञान से परिपूर्ण
राष्ट्रिय सामाजिक मुद्दे पर संघर्ष करने वाले आम आदमी, सांसद, विधायक और
जनप्रतिनिधि बनते थे अब तो अरबपति, खरबपति जनप्रतिनिधि बनते हैं, वे भारत के किस
वर्ग के हित में बात करेंगे? कैसी पीढ़ी और संस्कार विकसित होंगे ऐसे
जनप्रतिनिधियों के नेतृत्व में? कई तरह से आवाजें उठती हैं कि संसद जनप्रतिनिधि
भ्रष्टाचारियों का अड्डा है| संसदीय लोकतंत्र में संसद सर्वोपरी संस्था है, पर इस
संसद की छवि किन लोगों ने ख़राब की, यह चिंतनीय विषय है| ऐसे लोगों को चुनते कौन
है? हम और आप जैसे लोग| ADR (Association For Democratic Rights) के आंकड़ों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि कैसे
लखपति, करोड़पति सांसद बन रहे हैं| उससे भी अधिक दुखद प्रसंग है, ऐसे
जनप्रतिनिधियों की संपत्ति ५-१० गुना बढ़ कैसे जाता है? इसका राज या मेकेनिज्म क्या
है? यह कोई छुपी बात नहीं है| दशकों पहले हमने देखा और सुना सबसे अच्छा जनप्रतिनिधि
वे माने जाते थे जहाँ झगड़े कम होते थे| यह भी देखा कि कई विधवाएं घर बना कर अकेले
रहती थीं| पूरा गाँव उनका परिवार होता था| ख़ास तौर पर पूर्व में देखा या सुना
जाता था कि गाँव में कोई व्यक्ति भूखा नहीं सोता था| मौत या शादी पर पास पड़ोस गाँव
के लोग भी हाल बांटने के लिए तत्पर रहते थे| ऐसा समाज और ऐसे मूल्य थे हमारे| हम
आगे जरुर बढ़ गए, सड़के और बिजली आ गई, लेकिन हम अकेले हो गए| माता-पिता बोझ बन गए| पहले
किसी के पास अधिक पैसा होता था तो समाज की उस पर नज़र होती थी| गलत ढंग से पैसा
कमाने वाले की समाज में इज्जत नहीं होती थी| अध्यापक और चरित्रवान लोग ही पूजे
जाते थे| आज गाँव समाज में लोग सबसे सुखी और विलासिता में रहना चाहते हैं| परन्तु
चुनते हैं भ्रष्टाचारियों, जाति और धर्म के नाम पर नंगा लूटने वाले आदमखोर को|
कुर्सी, ताकत और दौलत जिसके पास हो वह सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति है| इससे परिवर्तन की
उम्मीद कैसे की जा सकती है? गाँव में पहले सुभाष, विवेकानंद, भगत, असफाक, कबीर,
ऋषि-मुनि को पूजते थे| उनके नामों को याद करके अपने बच्चों के नाम रखते थे| लोगों
के भीतर इनका जो दर्शन था, उनके चरित्र, संस्कार और रास्ते पर चलने का जो प्रयास
था, जिसके कारण बच्चों के भीतर ऊँचे संस्कार देखे जाते थे| आज शहरी या ग्रामीण
समाज में सोशल औडिट रह ही नहीं गया है| किसी के पास किसी भी तरह से सत्ता और पैसा
है तो वो पूज्यनीय है| हमने पाश्चात्य परिवर्तन के दौर में समाज के साथ-साथ परिवार
को भी तोड़ दिया और नए विकल्प के रूप में कुछ भी नहीं रहा| इसलिए भारतीय समाज आज
पूर्णतः लकवाग्रस्त हो चुका है| पिछले कई दशक से इंग्लैंड, अमेरिका, ब्रिटेन वगैरह
पश्चिमी देशों में परिवार मजबूत करने के आन्दोलन चला रहे हैं| इस मुद्दे पर
राष्ट्रीय चुनाव लड़े जा रहे हैं| पर हम पश्चिमी और यूरोपीय देशों के रास्ते चल
रहे हैं| यूरोपीय समाज में २०० वर्ष पुरानी परंपरा है, सामाजिक सुरक्षा के अनेक
योजनायें हैं| अगर बेटा या बेटी १८ वर्ष की उम्र में घर छोड़ता है या अपनी अलग जगह
रहता है तो उसे सरकारी भत्ते मिलते हैं| बड़े-बूढ़े समाज से अलग भी हैं तो सरकार के
ओल्ड एज होम में रहते हैं| अच्छी चिकित्सा पाते हैं| बच्चे या बूढ़े के लिए हमारे
यहाँ इस तरह की कोई व्यवस्था नही है| यूरोप में परिवार, समाज सरकार की जिम्मेवारी
है| वहां की व्यवस्था इन्सान को पालती है| परन्तु न्यूक्लियर फैमिली ने सारी
व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया| नए सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था हमने अच्छे पैटर्न
पर बनाये नहीं| अधिकांस सामाजिक बीमारियों के कारण या तो पाश्चात्य व्यवस्था है या
अकेलापन| यहाँ सभी अंकल-आंटी हैं| बड़े मम्मी-पापा सभी गायब हैं| भारतीय व्यवस्था
में ये सिर्फ रिश्ते नहीं थे बल्कि समाज बाँधने के सूत्र थे| कई ऐसे देश हैं जो आज
परिवार बचाने के लिए आन्दोलन चला रहे हैं| जो सरकार द्वारा नहीं बल्कि आम आदमी
द्वारा| उनके कैम्पेन का नारा हुआ करता है – “सेव द फैमिली नॉऊ”| दूसरी तरफ अश्वेत
परिवार में तलाक दर को २५% घटाने की योजना है| एच.आई.वी. एड्स जैसी बीमारियों को
घटाने के लिए आम आदमी द्वारा आन्दोलन चलाये जाते हैं| उच्च विद्यालय से निकाले
जाने दर को भी घटाने के लिए आन्दोलन किये जाते हैं| वरिष्ट नागरिक की रक्षा और
अमेरिका के २५ शहरों में वृद्धों के लिए आवास का निर्माण| क्या भारत में इस तरफ की
योजना या चिंतन या इस तरफ के विचार आम आदमी या सरकार के पास है? आज जरुरत है इन सारे
मुद्दों को लेकर जागने की, आम आदमी के विचारों में परिवर्तन लाने की| न की प्रचार
के भूख के लिए दिल्ली के चौराहे पर हम एक-दुसरे को गाली देते रहें, कैंडल जलाते
रहें, जिससे किसी भी समाज का कोई भला नहीं हो सकता| आइये मिलकर हम नई व्यवस्था,
नये समाज का निर्माण करें ताकि नूतन और शोषण-भय मुक्त भारत का निर्माण हो सके|