Monday 22 August 2011

नैतिक और सार्वभौमिक शिक्षा के बगैर सिर्फ कानून से कभी भी भ्रष्टाचार खत्म नही हो सकता



आनंदमूर्ति और विवेकानंद जी के शब्दों में कहा गया है कि व्यक्ति का सही निर्माण ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए|

भ्रष्टाचार को लगातार कई तरह से परिभाषित किया जाता रहा है, परन्तु मेरी नज़र में भ्रष्टाचार महापाप है और मुख्यतया इसके तीन कारण हैं|
१.      मनुष्य के लिए मौलिक आवश्यक वस्तुओं की कमी जैसे भोजन, वस्त्र, मकान, शिक्षा और चिकित्सा|
२.      चंद व्यक्तियों के पास धन का अकूत संग्रह होना अत्यधिक विनाश का कारण बनता है, यह पाप को पैदा करता है, किसी भी वस्तु/पदार्थ/विचार को अगर आप एक जगह रोकेंगे तो अनर्थ पैदा करेगा, जैसे – पानी जब तक बहता है वह साफ़ रहता है, और यदि उसका बहाव रुक जाता है तो वह गन्दा हो जाता है, काई जम जाती है उसमें|
३.      बौद्धिक, अध्यात्मिक, व्यवहारिक ज्ञान और आत्मज्ञान का अभाव| इसके बिना मनुष्य में मानसिक परिवर्तन नही हो सकता| यदि मनुष्य में मानसिक परिवर्तन नहीं होगा तो मानवता का कल्याण कतई संभव नहीं है|


कई मायनों में मानसिक उन्नति, कुछ लोगों की हुई है लेकिन उसका सही उपयोग नहीं हुआ है| जैसे नटवरलाल अपार बुद्धिमान था, लेकिन उसकी दिशा गलत थी| मन को सही दिशा नहीं मिलती है| इसे  सही दिशा देने की आवश्यकता है| तभी हम एक नैतिकवान व्यक्ति के रूप में अपना जीवन बना पाएँगे| इसके लिए आवश्यकता है नैतिक, अध्यात्मिक और व्यवहारिक ज्ञान की| सही ज्ञान के द्वारा ही समस्या का समाधान संभव है| हजारों वर्षों से देखा गया है, श्रृष्टि का नियम है परिवर्तन| इसलिए मनुष्य के भीतर नैतिक ज्ञान जैसे प्रकाश को लाना ही होगा, तभी हमारे जीवन और समाज से अंधकार दूर हो पायेगा|

मानसिक परिवर्तन से ही विचारधारा में परिवर्तन संभव है| तभी मनुष्य के आदर्श और आचरण में एकरूपता आएगी| जैसा चिंतन, वैसा आचरण और वैसा ही कर्म, इसी से मानव का प्रकटीकरण देखा जा सकता है| आज कल देखा गया है, आदर्श में कुछ और तथा कर्म में कुछ और| हमें बुद्ध, महावीर, विवेकानंद, गुरु गोविन्द, मोहम्मद जैसे महापुरुषों के कर्म से सबक लेना होगा| जीवन को सार्वभौमिक बनाये बगैर हम भ्रष्टाचार को खत्म करने की कल्पना नहीं कर सकते हैं| सार्वभौमिक व्यक्ति ही  मानव और राष्ट्र का कल्याण कर सकता है| अन्यथा मनुष्य अपने मन, गलत विचार और चिंतन के कारण नैतिक पतन की ओर आगे बढ़ता ही रहेगा| मन, विचार और चिंतन के कारण ही लोग आज खुद के जीवन के साथ राष्ट्र के विनाश का कारण भी बन गए हैं| मन को हम सिर्फ बौद्धिक और अध्यात्मिक ज्ञान से ही ठीक कर सकते हैं| तब जाकर मन तीन बिंदुओं पर रुकता है:
१.      मन की एकाग्रत (concentration)
२.      मन पर नियंत्रण (control)
३.      आत्मविश्वास (confidence)

मेरा मानना है कि जैसे मोबाइल को चलाने के लिए दो चीज़ों की जरुरत होती है, १. नेटवर्क और २. बैट्री बेकअप (चार्ज)| उसी तरह मन को चार्ज करने के लिए अध्यात्मिक साधना की आवश्यकता है और जोड़ने के लिए अनंत सत्ता की| यही एक मात्र रास्ता है सभी बुराइयों को खत्म के लिए| मानव समाज से असामनता, आर्थिक विषमता, निरक्षरता, मुनाफावादी संस्कृति, शिक्षा में समान अवसर का नहीं होना, व्यक्ति का वर्गीकरण, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, गरीबी-अमीरी, ऊँच-नीच भेद-भाव इत्यादि को जब तक सरकार और समाज आपस में मिलकर खत्म नहीं करती, जब तक भूख, रोटी, दवाई और शिक्षा में एकरूपता नहीं आती, तब तक कोई भी कानून लाकर या संविधान को बदलकर भ्रष्टाचार को खत्म नहीं किया जा सकता|

सन १९४७ के बाद से  आज तक बारंबार संविधान में संशोधन किये जाते रहे हैं| एक के बाद एक,  मजबूत से मजबूत कानून बनाये गए और बनाने के लिए वकालत किये गए| इसके बाद भी समाज को आज तक सही समाधान नहीं मिल पाया| कानून अपने आप में किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता है|

अन्ना जी! तथा उनके समर्थक! याद कीजिये! आंबेडकर जी ने संविधान सभा में अंतिम मसौदा  सौपने के समय एक बात कही थी: “संविधान/कानून कितना भी अच्छा क्यों ना हो लेकिन यह खराब साबित हो सकता है, अगर इसपर काम करने वाले व्यक्ति आदर्शहीन हुये तो; और कितना भी बुरा  संविधान हो, लेकिन इस पर काम करने वाले व्यक्ति नैतिकवान और अच्छे हों, तो संविधान/कानून अच्छा साबित होगा|”

अगर कानून बनाना ही है तो, देश में किसी व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक धन संग्रह नहीं कर सके, ऐसा कानून बनाईए| जिस तरह किसानों पर भु-हदबंदी कानून लागु है, उसी तरह शहरी संपत्ति पर भी कानून लागु होना चाहिए| जिसके पास एक निश्चित सीमा (जो कानून तय करेगा) से ज्यादा संपत्ति होगी, वह संपत्ति सरकार की होगी| या को-ऑपरेटिव व्यवस्था बनाकर धन का उपयोग जनता के लिए करना होगा| अन्न जी! गरीब, किसान और बेरोजगार के पास इतनी भी संपत्ति नहीं होती है कि वे अपनी मौलिक जरुरत पूरा कर सकें| जिसके पास जरुरत से अधिक संपत्ति होती है वही धनपशु, उद्योगपति, पूंजीपति, साधू, संत, नेता, कलाकार, अधिकारी आदि किसी की भी कीमत लगाते हैं| कानून, आप ऐसा बनाये कि कोई किसीका ईमान ना खरीद सके| जरुरत है धन पर रोक लगाने की, न्यूनतम धन के आधार पर काम करने की| बोयेंगे बबूल तो पाएँगे क्या आम!

बनाइये आप कानून, एन.जी.ओ., कॉर्पोरेट, मीडिया घराने, धार्मिक ट्रस्ट, स्वयम्भू भगवान, रामदेव, रविशंकर, आशाराम बापू, सत्य साईं, जैसे दर्जनों दर्ज़न ढोंगी बाबाओं के लिए| आपने तो सीधा भगवान के तरह ये कह दिया कि अगर भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ तो आप कपिल सिब्बल के घर पानी भरेंगे| इस तरह के बेतुका और बचकाना बयान, आप जैसे गंभीर व्यक्ति के मुह से शोभा नहीं देता| इससे स्पष्ट होता है कि आपकी राजनैतिक और व्यवहारिक दृष्टि कितनी कमजोर है| क्योंकि कानून अपने आप में कभी भी हल नही हुआ है-इतिहास साक्षी है|

कड़क कानून से अगर भ्रष्ट्राचार समाप्त किया जा सकता तो चीन से ज्यादा कड़क कानून दुनियां में शायद ही कहीं हो लेकिन वहाँ की दशा सर्वविदित है| हम सबको विचार करना होगा कि आखिर ऐसी बुराइयां आती कहाँ से है| मेरा मानना है कि ऐसी इन बुराइयों का जड़ हैं- अंतहीन लोभ; इन अंतहीन लोभ का खात्मा, अंतहीन धन रखने की व्यवस्था को खत्म कर ही पूंजीवादी व्यवस्था पर रोक लगाया जा सकता है| एक बात और समझना जरूरी है कि भ्रष्टाचार सिर्फ आर्थिक खतरा नहीं है बल्कि सामाजिक बुराइयां जैसे जातीय उन्माद, चारित्रिक दोष, किसी भी तरह का दिखावा, अहंकार आदि से मानव जीवन का प्रभावित होना, समाज के नैतिक व्यवस्था पर बहुत बड़ा दाग है|

भ्रष्टाचार का जड़ व्यक्ति के दिल में होता है| यह अनंत-अनंत तक लेने की प्रवृति, खत्म नही होने वाली लालच से ही पनपता है|और सवाल उठता है, भ्रष्टाचार का विरोध कर कौन रहा है! जो खुद इसमें लिप्त हैं! जितने भी पेशेवर व्यक्ति हैं वो धंधा करने वाले व्यवसाई हों या टेक्स बचाने का गुड़ सिखाने वाले चार्टर एकाउटेंट, वकील अथवा डॉक्टर, नगर निगम के अधिकारी या निजी क्षेत्र के  कार्यकारी अधिकारी, छात्र-नौजवान, में सब से आग्रह करता हूँ कि एक बार अपनी गिरेवान में झांक कर देखें...रोजमर्रा के जिंदगी में वो खुद को इसमें लिप्त पाएँगे| पाता चला है इंडिया गेट पर कंदील जलाने वाले अधिकांश शराब पिए हुये थे| और कई वहाँ से सीधा डिस्को गए| भ्रष्टाचार के हमाम में हम सब नंगे हैं| जब हम स्वयं अच्छे, नैतिकवान, ईमानदार नहीं हैं तो हम किस क्रांति को लाने की बात कर रहे हैं?

क्रांति का अर्थ होता है महान परिवर्तन अर्थात हर तरह के शोषण की समाप्ति| लेकिन यहाँ तो शोषण करने वाले व्यक्ति ही क्रांति के बात करते हैं, भ्रष्टाचार खत्म करने की बात करते हैं| सरकारी लोकपाल हो या सिविल सोसाइटी का जनलोकपाल, मेरा मानना है कि ये दोनों महाजनी लोकपाल साबित होगा| मार्केट, मैनेजमेंट, मीडिया, एन.आर.आई. और पैसे के तमाशे से क्रांति नहीं लायी जा सकती| अमेरिका प्रायोजित संत रविशंकर, अरबपति रामदेव, सबके सब झूम रहे हैं| पाँच सितारा की संस्कृति में बैठकर भ्रष्टाचार को खत्म नहीं किया जा सकता| अन्ना जी, यदि आप सही में लौहपुरुष/इतिहासपुरुष बनना चाहते हैं, तो उठिए और जनता के जागरूकता के लिए एक नयी तहरीर लिख डालिए! चलाइए रामबाण, अर्जुनबाण! उस व्यवस्था के खिलाफ जो सही मायने में भ्रष्टाचार की गंगोत्री होती है – चुनावी व्यवस्था| बदल डालिए ऐसी चुनावी व्यवस्था को! इससे आम से लेकर खास, सर्वसाधारण से लेकर ऊपर तक का व्यक्ति अपना मन, आत्मा, तन, विचार, ईमान, धर्म, सब गिरवी रख देता है| कीजिये क्रांति! कीजिये असंभव को संभव! बन जाइये हनुमान! जो व्यवस्था कई तरह के बुराइयों को जन्म देती है, जला डालिए उस पूंजीवादी धन पशु के लंका को!

बनाइये एक ऐसा मजबूत कानून जिससे चुनावी प्रक्रिया को बहुत सरल बनाया जा सके| चुनाव के आधार को और मजबूत किया जाए| समय के सीमा को बहुत कम करना होगा| भ्रष्टाचार को कम करने में सही चुनावी प्रक्रिया भी हमारे लिए रामबाण साबित होगा|

कानून बना तो था हरियाणा में, शराब बंदी का, नशा बंदी का| पड़ोस के घर से शराब दुगने में और महंगे आने लगे| क्या हुआ कानून का हश्र? जब भी कानून बनाकर जबरदस्ती लोगों पर थोपा गया तब-तब एक नई कु-व्यवस्था और कु-संस्कृति का जन्म हुआ| बिना मन, विचार और दिल बदले कानून बनाकर जबरदस्ती सुधार नहीं किया जा सकता| क्या हुआ आज तक धर्म के नाम पर सैकड़ों-सैकड़ों सालों से, हजारों लाशें गिरायी गयीं, धर्म के नाम पर सदियों से औरतों और दलितों ने कष्ट उठाया; एक तरह से सारा मानव समाज कष्ट उठाया, परन्तु आज तक एक भी व्यक्ति धर्म के राह और विचारों पर चल नहीं पाया; अगर चल पाते तो वे बेईमानी नही करते, झूठ नही बोलते...| कानून में तो प्रावधान है बलात्कारियों के सजा का| क्या हुआ बलात्कार रुक गया? इसे रोकने के लिए मनुष्य के चरित्र बल को मजबूत करना होगा| फैशन शो, गलत धारावाहिक, रियलिटी शो जैसे दकियानुसी व्यवस्था को कानूनी तरीके से रोकना होगा| तब सोचा जा सकता है कि बलात्कार को रोकें|

अन्ना जी, क्या आपकी मीडिया इन तमाम आरोपित आंदोलन जैसी समस्याओं के प्रति अपना नजरिया रखता है? ४ अप्रैल और २८ अप्रैल को पहली और दूसरी बार सिविल सोसाइटी की बैठक हुयी| बैठक के बाद ऐसे कौन से सवाल उठे या ऐसा क्या हुआ कि बीच की प्रक्रिया को छोड़, अन्ना और उनके साथी भूख हड़ताल पर चले गए? आखिर इस अनशन से उन्होंने क्या ऐसा पा लिया जो बातचीत से नही हुआ अथवा हो सकता था|

इस आंदोलन का वास्तविक उद्द्येश क्या था और इसका परिणाम क्या निकला? खुद सिविल सोसाइटी जिस तरह के व्यक्तियों पर थोपा गया, क्या वे देश के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हैं? इरोम शर्मीला का अनशन, कश्मीर, उत्तर-पूर्व, बस्तर, छत्तीसगढ़, पोस्को, जल जंगल जमीन का समान वितरण, रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी, बिजली, सड़क, साम्प्रदायिकता, आदिवासियों का विस्थापन, आरक्षण, मनुवादी, जातिवादी बेड़ियाँ, आर्थिक विसंगतियाँ, आदि समस्याओं के प्रति सिविल सोसाइटी का रुख अगर सही नहीं है तो, क्या ये नहीं समझा जाए कि आपका आंदोलन पूंजीपति, मीडिया, देश की संस्कृति और सभ्यता को नहीं समझने वाले नौजवानों के द्वारा प्रायोजित है?

मेरी समझ से यह आंदोलन दोधारी तलवार है| अन्ना और उनके सहयोगी पूंजीपति प्रायोजित शक्तियों के साथ कुछ दूर तक दिखाई ज़रूर देगी लेकिन जब मौलिक, सर्वहारा और सार्वभौमिक बदलाव की लड़ाई का वक्त आएगा तब यही शक्तियां आपके विरुद्ध खड़ी हो जाएँगी| हम अन्न जी के गिरफ्तारी का विरोध करते हैं| हम किसी भी तरह के लोकतान्त्रिक आंदोलन पर सरकारी दमन का विरोध करते हैं| हम बहुसंख्यक सर्वहारा, बेरोजगार, बुर्जुआ, छात्र नौजवान, से आह्वान करते हैं कि उन्हें समझ लेना चाहिए कि विवेकानंद, सुभाष, भगत सिंह, अम्बेडकर, पेरियार, फुले के अधूरे सपनों को साकार करना, मानवतावादी ताकतों का अंतहीन अजेंडा है|

मीडिया द्वारा प्रायोजित, सोची समझी रणनीति के तहत यह आंदोलन एक प्रबंधन है, कोई मिशन नहीं, कोई आदर्श नहीं| देश के शेष मुद्दों को खत्म करने की साजिश है| हमारे सामने समस्या की लंबी फेहरिस्त है| तन-मन में इतने जख्म भरे हैं कि दर्द बेचारा परेशान है कि किस जख्म से बाहर निकलें| लाखों किसानों की आत्महत्या, चीख-पुकार मचाते बेगुनाह आदिवासियों का खून से सने जिंदगी पर आप बोले होते तो समझ पाते कि आप लोग राष्ट्रभक्त हैं|

आज समझना होगा कि देश के बाहरी हमलावरों से तो हम आसानी से छुटकारा पा लिए क्योंकि दुश्मन खुला या बाहरी था| इस बार हमें अपने भीतर के ही दुश्मन का सामना करना पड़ रहा है| चोर-चोर मौसेरा भाई, मीडिया और पूजीपतियों का गठजोड़ पहली बार शानदार तरीके से देखने को मिला| एक तरफ सिविल सोसाइटी के हाई टेक टीम फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग और एन.आर.आई. के बदौलत एक बेहतरीन गठजोड़ को तैयार किया| इतने दिनों में शायद ही मैले कुचले बुर्जुआ लोग कहीं नज़र आये| मुद्दा था भ्रष्टाचार का लेकिन मुद्दा बन गया अन्ना और जेल| मीडिया की नज़र से लगता है कि पहली बार कोई जेल गया हो| मीडिया जो चाहती वह बेचारी जनता से करवा लेती| बहस छिड़ गई, सरकार ने गैर-लोकतान्त्रिक नीति अपनाई| क्या मात्र अन्ना के जेल जाने से सरकार गैर-लोकतान्त्रिक हो गई?

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने जब विनायक सेन को जेल में डालकर देशद्रोही कहा था तो क्या वह मीडिया को गैर-लोकतान्त्रिक नहीं लगा? ना जाने कितने सच्चे समाजसेवी जंगलों में आदिवासियों के लिए काम करने वाले सैकड़ों लोगों को वर्षों तक जेल में रखा गया तब मीडिया ने शोर नहीं मचाया| सिर्फ सिविल सोसाइटी ही नहीं देश का एक-एक बच्चा चाहता है कि भ्रष्टाचार खत्म हो| क्या भ्रष्टाचार एन.आर.आई. के काले धन और भ्रष्ट मीडिया के सहारे ही खत्म होगा? मीडिया यह क्यों भूल गयी कि ११ सालों से लगातार इरोम शर्मीला को जबरदस्ती आत्महत्या का केस दर्ज कर कभी जेल में रखना तो कभी अस्पताल में| एक गलत कानून के खिलाफ आवाज़ उठा रही इरोम के लिए हाय-तौबा नहीं मचाया| क्यों अन्ना जी को इरोम की याद नहीं आई? इस पुरे दौर में मंदी से लेकर महंगाई तक के मार के बीच भ्रष्टाचार के इस आंदोलन को मीडिया और प्रायोजित व्यवस्था ने दूसरी आज़ादी का नाम दिया| फिर क्या था, अन्ना को इस माहौल में उद्धारक की तरह पेश किया गया|

इस संतनुमा व्यक्ति ने जनता को उसी के भाषा में सभी नेताओं को भ्रष्ट बताया और भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए भूख हड़ताल, जंतर–मंतर पर मीडिया के सामने विशाल हुजूम के साथ ड्रामा और सोशल नेटवर्किंग साईट को हथियार बनाया| तमाम ऐसे लोग जिन्होंने इससे पहले कभी किसी आंदोलन को अच्छा नही कहा, आज वे उन्मादी स्थिति में अलग-अलग सडकों पर आये| मीडिया और इसके आयोजकों का दावा है कि कभी भी इतने लोग सड़कों पर नहीं आये| क्या यह एक सफ़ेद झूठ नहीं है? कभी गाँधी तो कभी जय प्रकाश, वी.पी. सिंह आदि के आंदोलन को इस आंदोलन से जोड़ना, तो कभी छोटा गाँधी कहना, क्या यह उपहास नहीं है? क्या नवसिखू मीडिया ने गाँधी या जय प्रकाश के आंदोलन को देखा था, या गाँधी के स्वदेशी, स्वावलंबन और शारीरिक श्रम की बात याद नहीं आती? सिर्फ मीडिया को अन्ना जी के सिविल सोसाइटी की होड़ याद आती है| अपने लिए जीवन जीने वाले या डिस्को में थिरकने वाले नौजवान भ्रम में ना आ जाएँ कि यह स्वतंत्रता की लड़ाई का दूसरा आंदोलन है| जय प्रकाश और विश्वनाथ प्रताप सिंह के भ्रष्टाचार के विरोधी आंदोलन, इस आंदोलन से बहुत बड़े थे| अगर इन दो जन आंदोलन को नज़र अंदाज़ भी कर दें, तो मजदूर और कर्मचारी अपनी मांगों को लेकर आंदोलन करते हुये कई बार सड़क पर आये| पिछले महीने भी पाँच लाख से अधिक कर्मचारी दिल्ली की सड़कों पर थे लेकिन जंतर-मंतर के आधे किलोमीटर की दूरी में कई हज़ार की भीड़ जुटा देने वाली मीडिया को पूंजीवाद या निजीकरण के खिलाफ सड़क पर उतरे काम-काजी जनता का हुजूम दिखाई नहीं देती|

अन्ना के तुलना जय प्रकाश से करते हुये मीडिया ने कभी यह नहीं बताया की जय प्रकाश जी के सम्पूर्ण क्रांति का क्या हुआ? वैसे जय प्रकाश या विश्वनाथ प्रताप सिंह के आंदोलन का इस तमाशे से तुलना करना अनैतिक और अव्यवहारिक है| अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद भी ये जनता के नेता थे| ये आंदोलन जनता का आंदोलन था| अपनी भयावह असफलता के वाबजूद इन्होंने हर तरह के दमन को झेलते हुये सरकार को पलटने में सफल रहे|

अन्ना जी! आप यथार्थ को समझें! आप के प्रयास को हमारे जैसे नौजवान सलाम करते हैं, लेकिन अन्ना जी आप भी तो मनुष्य ही हैं| भौतिकवाद और पश्चिमी संस्कृति के आवरण में ढके छात्र, नौजवान, युवतियां आप में छोटे गाँधी का रूप देखने लगे तो कोई आपको जे.पी., लोहिया और वी.पी. सिंह का रूप कहने लगे| अन्ना जी सत्याग्रह गांधीवादी पद्धति का एक अहम कारक है|

सत्याग्रह का मतलब सत्य के लिए आग्रह है और सत्य स्पष्ट रूप से नैतिक दायरे में आता है| अगर कोई व्यक्ति गांधीवादी तरीका इख्तयार करता है तो पहले उसे सच्चा होना होगा| उनका चरित्र बेदाग होना चाहिए विवेकानंद, कबीर, सुभाष और डॉक्टर अब्दुल कलाम की तरह; इतना ही नहीं उसे अध्यात्मिक रुझान वाला भी होना चाहिए| अन्ना जी, आप अपने समर्थकों को यह जरुर बता दें कि गाँधी जी अक्सर अनशन करते थे लेकिन उनका अनशन दूसरों के विरुद्ध ना होकर अपने प्रति होता था| अपनों को मनाने के लिए होता था, इसे वे किसी गलती का पश्चाताप कहते थे| किसी अन्य के विरुद्ध किया जाने वाला अनशन में कहीं ना कहीं दूसरों पर दवाब डालने का मंशा होती है| जो नैतिकता के नज़रिए से सही नहीं है| गाँधी जी तब अनशन करते थे जब देश में सांप्रदायिक दंगा छिड़ा होता था, दूसरे शब्दों में गाँधी जी का सत्याग्रह एक राजनैतिक औजार और राजनैतिक कुंठा के वनिस्पत प्राथमिक रूप से अध्यात्मिक होता था| इसके जरिये राजनैतिक मंशा नहीं थी|

सत्याग्रह का प्रयोग केवल सच्चे अध्यात्मिक रूप में ही किया जा सकता है| कोई भी जन आंदोलन किसी खास समाज, पार्टी या व्यक्ति के विरुद्ध नहीं होता बल्कि व्यवस्था के विरुद्ध होता है| सिविल सोसाइटी, सत्ता, पक्ष-विपक्ष के बीच आप सभी लोगों का मन कुंठा से ग्रसित है| आपलोगों  के आरोप-प्रत्यारोप की भाषा में आध्यात्मिकता नहीं परस्पर दुष्टता ही झलकती है| इसमें सत्य के प्रति आग्रह और आध्यात्मिकता का घोर अभाव है| सत्ता का खेल ज्यादा दिखता है| कोई भी नैतिक सवाल अनिवार्यत: व्यक्ति की आन्तरिकता और सत्य के प्रति उसके गहरे सरोकार पर आधारित होता है| एक तरफ अन्ना जी आप और आपकी टीम पूर्णत: जिद और अहंकार पर आधारित है एवं दूसरी तरफ एक होड़ सी लगी है कि हम बड़े कि तुम| मैं अन्ना हूँ, यहाँ तक तो समझ में आता है, परन्तु मैं किरण बेदी हूँ, मैं केजरीवाल हूँ, यह समझ से परे है|

इससे सपष्ट होता है कि आपकी सिविल सोसाइटी कितनी परिपक्व है| अन्ना जी, गाँधी साम्प्रदायिकता को मिटाने के लिए अनशन करते थे ताकि धर्म के हफीम का बोझ समाज के भीतर पैदा ना हो| परन्तु आपके बारे में काफ़िला नामक वेबसाइट पर मुकुल ने एक लेख लिखा है कि आपके अपने गाँव की संरचना आपने बिल्कुल हिंदू धार्मिक आधार पर की| यहाँ अन्ना का आदेश अंतिम फौजी आदेश है तथा उसका प्रतिरोध कर पाने की हिम्मत किसी को नहीं है| जाति संरचना का पदानुकरण का पूरा ध्यान रखा जाता है और गाँव में दलित समुदाय और अपने लिए मनुस्मृति के समुदाय का गठन करना पड़ता है| यहाँ की पूरी संरचना संघ के हिंदू राष्ट्रवाद के एक धर्म, एक भाषा, एक नेतृत्व वाले ही हैं| वहाँ का सरपंच कहता है कि जो अन्ना कहते हैं वह सेना के आदेश के तरह पालन किया जाता है और कोई उसका विरोध नहीं कर सकता| अपने एजेंडों को लागू करने के लिए अन्ना का मानना है कि हमेशा सहमति से काम नहीं चलता है| कई बार ताकत का भी उपयोग करना पड़ता है और अन्ना ने वहाँ पर शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के दवाबों का भरपूर इस्तेमाल किया जो प्रेरणा उन्हें फ़ौज से मिली| ड्राईवर और सिपाही के रूप में ऑफिसरों के हर आदेश बिना शक मानने का प्रशिक्षण आज अन्ना के चरित्र में अक्षरश: दिखता है| क्योंकि ऑफिसर की भूमिका में अन्ना नज़र आते हैं|

अन्ना जी! गाँधी ज़िंदा होते तो नरेंद्र मोदी, उद्धव ठाकरे, बाल ठाकरे, राज ठाकरे जैसों का कोई अस्तित्व नहीं होता| आपने तो कई कदम आगे बढ़कर उसका समर्थन किया जब हिन्दी भाषी लोगों के खिलाफ लाठी, गोली और बोली का इस्तेमाल राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे द्वारा किया जा रहा था| कभी नहीं भूलने वाली कलंक नरेंद्र मोदी ने भारत के इतिहास में लिख डाला| गाँधी के धरती पर मासूम अबलाओं की लाश ही लाश, जिन्हें इस देश की सिविल सोसाइटी एवं उच्चमध्य वर्गीय लोगों ने नायक बना दिया| आप उनके गुणगान करने में भी पीछे नहीं रहे| एक सही मुद्दे के आंदोलन को जो लोग दूसरी आज़ादी से परिभाषित कर रही है, उनसे पूछा जाना चाहिए कि आरक्षण अछूत क्यों? क्या यह सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा नहीं है? आपके साथ खड़े यही मध्य वर्गीय लोग समाज को ऊँच-नीच, जाति-धर्म, मजहब के नाम पर समाज को बांटने का काम किया है| क्या सिविल सोसाइटी जैसे मध्य वर्गीय लोग जिसे आप सैलाब कहते हैं, क्या उसके भीतर के हीन मान्यता भाव को आप खत्म कर पाएँगे? जाति, धर्म, मजहब को खत्म किये बगैर भ्रष्टाचार के मजहब का खात्मा संभव है? समाज के मध्य वर्गीय लोग अपने-अपने सुविधा के अनुसार नए-नए संस्कृति को जन्म दिए – क्षेत्रवाद, धर्मवाद, जातिवाद जैसे नाव पर चढ़कर, चुनाव रूपी व्यवस्था से नाव पर चढ़कर नदी को पार करते हैं| उच्च मध्य वर्गीय पूंजीवादी व्यवस्था की भीड़ ने ही अपनी अपसंस्कृति जैसे दिखावे के कारण दहेज, श्राद्ध जैसे दकियानुसी व्यवस्था को जन्म दिया है| जो लोग आपके साथ खड़े हैं, उनसे आप यह जरुर पूछें कि जाति व्यवस्था खत्म करने में क्या सहयोग प्राप्त होगा? क्या सिविल सोसाइटी के लोग दहेज जैसी दकियानुसी व्यवस्था को खत्म कर पाएँगे? क्या दहेज लेने और देने वाले भ्रष्टाचारी नहीं हैं? दहेज जैसे अभिशाप जो देश के प्रत्येक परिवार को प्रभावित करता हो, जिन्हें पढ़े-लिखे लोग पंडित, ज्ञानी, संतों ने इसे परंपरा, सभ्यता और संस्कृति बताकर जबरदस्ती समाज पर इस व्यवस्था को थोपती आई है| ना जाने इसके कारण कितने परिवार, कितनी माँ, कितनी बहनें, कितनी बेटियों की गोद सुनी हो गयीं| आज तक कोई सिविल सोसाइटी, संत, ज्ञानी, इस दकियानुसी सभ्यता को खत्म करने आगे नही आये|

आज पुरे भारतीय समाज में ऐसे भ्रष्ट संबंध जो समाज स्वीकृत हैं, गाँव के पंचायत स्तर से लेकर केन्द्र के मंत्री स्तर तक और एक छोटे से दुकान से लेकर बड़े कॉर्पोरेट तक एक यजमानी जीने वाले पंडे से लेकर बड़े महंत तक और दफ्तर के चपरासी से लेकर शीर्ष अधिकारी तक, पुरे भारतीय समाज को किसी ना किसी रूप में लेकर अपने गहरे गिरफ्त में लिया हुआ है| ये सभी भ्रष्ट संबंध एक दूसरे के पूरक भी हैं और एक दूसरे के साथ गहराई से जुड़े हैं| इनका जाल इतना अधिक मजबूत है कि कभी-कभार ही किन्ही कारणों से बस छोटे-बड़े लोग कागजी कानून के लपेटे में आते हैं| यह यथावत चलता रहता है| यह भ्रष्ट संबंध अधिकतर लोगों की विवशता और बाध्यता होती है| यह विवशता या बाध्यता लोगों के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिवेश तथा इस परिवेश को निर्माण करने वाली तत्वों से पैदा होती है| यह सब एक सामाजिक बहुजटिलता के कारण होती है, जिसके बहुयामी कारक हैं| यहाँ इसे इन उदाहरणों के साथ समझा जा सकता है|

भारतीय समाज में पुत्री के विवाह की जिम्मेवारी माता-पिता पर होती है| बेटी की शादी पिता के लिए आर्थिक बाध्यता पैदा करती है| अगर वह पिता कानून सम्मत तरीके से शादी के लिए धन नहीं जुटा सकते और उसके सामने कोई भ्रष्ट रास्ता खुला रहता है तो वह कानून की चिंता किये बगैर उस रास्ते को अपना लेता है| अगर लोग भविष्य के प्रति आशंकित हैं और किसी अंधविश्वास से पीड़ित हैं तो कोई ना कोई पंडित, ज्योतिष, मौलवी उनके इस अंधविश्वास का दोहन करने के लिए समाज स्वीकृत भ्रष्टाचार करेगा| इसी तरह प्रतिस्पर्धात्मक व्यवस्था में छोटे व्यापारियों से लेकर बड़ी कंपनियों के मालिक तक ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाकर बाज़ार में टिके रहने के लिए बाध्य होते हैं| मुनाफा उनकी सामाजिक जरुरत का हिस्सा हो जाता है| और इसके लिए वे किसी भी अधिकारी या नेता/मंत्री का सहयोग या समर्थन प्राप्त करने के लिए किसी भी तरह का भ्रष्ट रवैया अपना सकते हैं| कानून उनके लिए गौण हो जाता है| सम्पन्नता सांस्कृतिक तौर पर समाज स्वीकृत तत्व है यानि जो धनी है वह सम्मानित है| धन भ्रष्ट तरीके से आया या नैतिक तरीके से यह मायने नहीं रखता है| भारतीय समाज में जितने भी सामाजिक विभाजन हैं, चाहे वे जाति के हों या धर्म/ संप्रदाय के, किसी ना किसी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भ्रष्टाचार का पोषण करते हैं|

भ्रष्टाचार सिर्फ अर्थ स्थान्तरण में ही निहित नहीं होता| कई तरीकों से लाभ लेने या देने में भी निहित है| अगर एक व्यक्ति अपने जाति या अपने धर्म के नाम अपर चुनाव जीतने की कोशिश करता है या इसी के नाम पर धन जुटाने की कोशिश करता है या एक समूह विशेष के हितों की  वकालत करता है तो यह एक भ्रष्टाचार है| मगर यह भी एक सामाजिक बाध्यता से उत्पन्न होता है| इस बाध्यता के समक्ष भी लिखित कागजी कानून बेअसर हो जाते हैं| इस तरह के सामाजिक बाध्यता से उत्पन्न भ्रष्ट संबंध भारतीय समाज में हर जगह मौजूद हैं जो ना केवल भ्रष्टाचार का पोषण करते हैं बल्कि उनके उन प्रवृतिओं का भी शोषण करते हैं जिसके कारण सामान्य लोगों का स्वास्थ्य और सुरक्षित सामाजिक जीवन बाधित होता है|

अन्ना जी, इस दुनिया में चीन ने सबसे कठोर कानून बनाने का काम किया और सबसे अधिक भ्रष्टाचार आज चीन में ही है| अमेरिका ने भी एक लिबरल कानून बनाकर एक मजबूत लोकतंत्र व्यवस्था के द्वारा भ्रष्टाचार को खत्म करने की कोशिश की लेकिन नहीं हो पाया| क्या आप चीन से ज्यादा कठोर कानून बना सकते हैं? तब जहाँ की हुकूमत अपने आप में तानाशाह हो! अन्ना जी, बगैर यथार्थ समझे कोई नायक नहीं हो सकता| भीड़ कभी भी किसी को नायक नहीं बना सकता| नायक अपने कर्मों से बनते हैं| गाँधी, सुभाष, अम्बेडकर जैसे लोग अपने कर्मों से नायक बने थे, मीडिया, ट्विट्टर, फेसबुक, ब्लॉग, एन.आर.आई. जैसे पूंजीवाद व्यवस्था से नहीं| गाँधी होते तो बाल ठाकरे, राज ठकरे, नरेंद्र मोदी जैसे देश तोड़ने वालों के खिलाफ अपने ही देश में अनशन करके ऐसे तानाशाह को नेस्तनाबूत करते या फिर अपनी जान दे देते|

गाँधी सर्व धर्म संभाव और एक समाज के लिए अनशन करते थे| आप एक कट्टरवादी हिंदू व्यवस्था को लागू करने का काम किया| आपने तानाशाह को मदद कर देश की व्यवस्था पर चोट किया| फिर मीडिया या सिविल सोसाइटी या मध्य वर्गीय लोग कैसे कह सकते हैं कि आप छोटे गाँधी हैं या गाँधी की राह पर चल रहे हैं? आप आरक्षण विरोधी हैं| आप और आपकी भीड़ एक बहुसंख्यक समाज को समृद्ध करने वाले कानून के आप विरोधी हैं| क्या आज ८२ % लोगों को उनके जीवन के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उन्हें भी अच्छी शिक्षा और भोजन मिले? फिर विरोध क्यों? मुकुल कहते हैं कि अन्ना का बैंक अकाउंट भी है, जिसमे अच्छी खासी रकम भी है| जमीन भी है, ट्रस्ट के नाम से तो है ही| फिर मीडिया कैसे उन्हें गाँधी से लेकर ना जाने कौन-कौन सी उपाधियां दे डाली|

इन्टरनेट की दुनिया में दिखाया गया कि जो अन्ना के साथ नहीं हैं वे भ्रष्टाचार के साथ हैं| यही वजह है कि अगले ही दिन इंडिया गेट पर कुछ भीड़ जुट गया| आपकी इतिहास में दर्ज होने की इच्छा से आपकी मुट्ठी भर सिविल सोसाइटी के अति उत्साहित टीम ना जाने अपने लिए क्या-क्या स्वप्न देख लिए| दिल्ली में जब एक सर्वे कराया गया तो ८२ % लोगों को जन लोकपाल या लोकपाल बिल का ज्ञान नहीं था, परन्तु आक्रोश था गुस्सा था महंगाई के खिलाफ, संसदीय राजनीति के प्रति उनके मन में घृणा थी जो रूचि पैदा कर दी की भीड़ में शामिल होना है|

किसी बेहतर विकल्प के अभाव में बुरे या अधिक बुरे के बीच एक का चुनाव करना होता है और कुछ दिन बाद पता चलता है कि वह बुरा अधिक बुरे से भी बहुत आगे निकल गया है| इस बीच सत्ता को उखाड़ देने की ललक जगती है, लेकिन किसी सक्षम नेतृत्व और विकल्प का अभाव उसके गुस्से को क्रांति के सीमा से पार नहीं जाने देता| जनता के मन में गुबार था जिसका उसने इजहार कर दिया| इसे ही आपके सिविल सोसाइटी और मीडिया ने कह दिया कि दूसरी आज़ादी की लड़ाई है| वैसे इस आन्दोलन में जो भी लोग शामिल हुये वे भी चौकाने वाले हैं| अन्ना के मंच के पीछे आर.एस.एस. के तर्ज़ पर भारत माता का तस्वीर था, तो मंच पर आर.एस.एस. के राम माधव हिंदू पुनरुत्थान के नए प्रवक्ता रामदेव और नवधनिक पञ्च सितारा की संस्कृति वाले रविशंकर| उच्च मध्य वर्गीय लोगों की जो टोलियाँ आयी थी उसमे यूथ फॉर ईक्यूलिटी की भागीदारियों की संख्या ज्यादा थी| आश्चर्यजनक नहीं है कि एक तरफ आरक्षण का विरोध करने वाले मंच पर, तो दूसरे तरफ तमाम युवाओं के पीठ पर तमाम विरोधी पोस्टर लिए लोकतंत्र के दुश्मन हैं, जैसे पोस्टर लिए हुये थे| साफ़ है कि नव उदारवादी नैतिकता और सामाजिक राजनैतिक मूल्यों के युवा पैरवीकारों को मोमबत्तियाँ वाली यह काज बहुत सुहाती है| जिससे हमने भी कुछ किया का संतोष उन्हें चैन से आई.पी.एल. और रिअलिटी शो देखने देता है| पूंजीपति वर्ग को भी यह भ्रष्टाचार विरोध बहुत भाता है| यह उनके व्यापार के लिए नियंत्रणों को कम करने में सहायक होता है और साथ में उनके अनैतिक कर्मों से ध्यान हटाये रहता है|

वैसे इस जन आंदोलन में जिंदल अलमुनियम सहित पूंजीपतियों से लगभग ५० लाख धन इकठ्ठा किया और कुछ अन्य एन.जी.ओ. से लिया गया जिससे कुल आगत ८२ लाख ८७ हज़ार ६ अट्ठासी रुपये हुए थे| ३२ लाख ६९ हज़ार ९ सौ रूपये सिर्फ मीडिया पर खर्च किया गया| यह बात १४ अप्रैल को टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित था| मजेदार बात यह है कि आज भ्रष्टाचार के खिलाफ पूंजीपति और एन.आर.आई. हैं| जो एन.आर.आई. देश का पैसा लूटकर अपनी संपत्ति विदेशों में लगाकर धन उपार्जन करता हो उसे राष्ट्रभक्त कैसे कहा जा सकता है! अन्ना ने आज तक इनके खिलाफ एक शब्द भी नही कहा| पिछले बजटों में पूंजीपतियों को कॉर्पोरेट आयकर, उत्पाद शुल्क और सीमाकर  छूट के नाम पर २१ लाख २ हज़ार २३०५ करोड़ की छूट को भ्रष्टाचार क्यों नही कहा गया!

अन्ना जी! आप बार-बार कहते हैं कि देश हमारे साथ खड़ा है| कौन और कैसे लोग आपके साथ खड़े हैं, कभी आपने इसका मूल्यांकन किया है? आपने पूरे देश से निवेदन किया कि गरीब, पिछड़ों के लिए एक घंटे के लिए बिजली अपने-अपने घर में बंद कर दें| ये कैसा मजाक है? ये उपहास है हमारी गरीबी का| खैरात की भीख या दान गरीबों को खाने या लेने की आदत नहीं है|

सदियों से खैरात लेने की आदत पूंजीपतियों और अमीरों की रही है| गरीब सिर्फ गरीब होता है और आगे भी गरीब ही रहेगा| गरीबों का शोषण करने वाले लोग तो आपके साथ खड़े हैं, जंगलों में गरीबों के हाथ में बन्दूक थमाकर शोषण किया जाता है तो कहीं अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठाने वाले गरीब, दलित, आदिवासियों को गोली का शिकार बनाया जाता है| जहाँ देखिये गरीबों को ही हलाल होना है| धर्म और भगवान के नाम पर किस्मत, भाग्य और पुनर्जन्म का भय दिखाकर, सिर्फ गरीबों के पैसे से अरबपति-खरबपति बनने वाले बाबा लोग आपके साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े हैं|

मैं जब देखता हूँ इस आंदोलन के पक्ष में विद्यार्थी परिषद, भाजपा, आर.एस.एस., के साथ-साथ मुट्ठी भर वकीलों को तो भीतर से चोट पहुँचता है| इस देश में वकील, डॉक्टर, प्रोफेसर, शिक्षाविद, कर्मचारी, पदाधिकारी, नेता, पूंजीपति लोग ही ईमानदार हो जाएँ तो फिर भ्रष्टाचार की लड़ाई लड़ने की जरुरत ही क्या है? यह बात भी सही है ०.१% लोग होंगे ऐसे संस्थाओं में जिसके चलते आज भी ईमानदारी जैसा शब्द प्रासंगिक है| मैंने पहले भी कहा था कि खुद अच्छे बनो, सुधरो तो खुद-ब-खुद परिवार और समाज अच्छा बनेगा| पत्रकार भाइयों से पूछना चाहता हूँ जो विद्वान वकील सरकार को सर्विस टैक्स देने के खिलाफ खड़े हो सकते हैं, जो आज तक सर्विस टैक्स नहीं देता हो, जो हजारों-लाखों रुपये सिर्फ चंद मिनटों के लिए, गरीब से लेकर अमीर तक का शोषण करते हों, तो या इसे भी भ्रष्टाचार से मुक्त रखा जायेगा| दूसरे भगवान के रूप में डॉक्टर साहब, जिसका पूरा जीवन चलता-फिरता मशीन है, जो जीता ही है हाय पैसा, खाय पैसा, आय पैसा जैसी संस्कृति के लिए| मैं नहीं जनता कि इन्हें भगवान की उपाधि किसने दी, इसे विभीषण और रावन से भी किसी अच्छे शब्दों से अलंकृत किया जाए तो वह उपनाम देना चाहिए| दो से तीन साल के अंदर, पेट चीरकर, पैर जोड़कर, लखपति, करोड़पति से अरबपति हो जाते हैं| शोषण का नया तरीका किसी से सीखना हो तो डॉक्टर साहब के स्कूल में भर्ती हो जाएँ| सिविल सोसाइटी के लोग क्या ऐसे भ्रष्टाचार को खत्म कर पाएँगे? जो डॉ अभिमान रूपी स्वाभिमान के लिए अस्पताल में भर्ती सैकड़ों हजारों बच्चों, मासूम, अबला को मौत के घाट उतार देते हैं| उसे किस परिस्थिति में सम्मानित उपाधि दी जा सकती है|

ज्ञान देने वाले गुरु तुल्य प्रोफेसर, शिक्षक रातों-रात करोड़पति बनने की लालसा लेकर शिक्षा में क्रांति लाने की बात करते हैं| शिक्षा में शोषण की कल्पना लूट-खसोट की व्यवस्था चिरस्मरणीय है| पूंजीपतियों की शिक्षा की व्यवस्था पर मानो जन्म सिद्ध अधिकार है| गुरु सिर्फ इन लोगों के लिए ही पैदा हुये| शिक्षा का जातिकरण का नंगा नाच हमेशा से इस देश में देखने को मिला है| आश्चर्य तो तब होता है जब स्कूल–कॉलेज में विद्यार्थियों के टैलेंट का इंटरव्यू नहीं होता है, माता-पिता कितना टैक्स भरते हैं उसका इंटरव्यू होता है| क्या ऐसे गुरु से भी उम्मीद की जा सकती है भ्रष्टाचार मिटाने की? जिसने सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था को ही चौपट कर दिया हो, छोटे-छोटे मासूम बच्चे-बच्चियों के हाथ में भ्रष्टाचार वाले तख्ती देकर मीडिया वाले क्या दिखाना चाहते हैं?

इस देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ सुनामी आ गयी| जिस बच्चे को अपनी संस्कृति, संस्कार, परंपरा, देश, समाज, परिवार और नैतिक मूल्य का पता नहीं हो, उस मासूम के खेलते हँसते खिलखिलाते हुये चेहरे की मासूमियत क्यों छीनना चाहते हैं? क्यों आप अपने जिद और अहंकार के चलते उसकी मासूमियत को छीनना चाहते हैं? जीने दीजिए उसे बचपन में ताकि आने वाले समय में वे अपने परिवार को खुशी दे सकें| मत बनाइये उसे विद्रोही! क्या दिखाना चाहते हैं उन नौजवानों के नंगे बदन पर यह लिखवाकर कि वे अन्ना हैं? जिन नौजवानों को राष्ट्र गान और राष्ट्रीय गीत का ज्ञान नहीं हो, १५ अगस्त और २६ जनवरी में फर्क पता नहीं हो, जिसे भारत की विरासत और सामाजिक सभ्यता से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है, जिन नौजवान का आदर्श टाटा, बिडला, अम्बानी और डालमिया हो, जो कभी अमिताभ और सचिन को भगवान मान बैठता हो, जो रातो-रात करोड़पति बनने की उम्मीद पाल बैठा हो, जिन नौजवानों को परिवार और स्कूल से कॉलेज तक एक ही शिक्षा दी जाती हो; अहंकार में जीने का, सिर्फ मानव-मशीन बनने की पद्धति सिखाई जाती है और पूरे तन और मन में जाति, धर्म और मजहब को जहर की तरह भर दिया जाता है| आज का नौजवान पैसा कमाने वाला एक जीता जगता मशीन बन जाता है| पैसा नौजवानों का धर्म है और इश्क उसका भगवान, फिर भी हम उनसे भ्रष्टाचार खत्म करने की उमीद करें|

यह सच है कि कुछ उर्जावान नौजवान हमारे देश के निर्माण के मजबूत स्तंभ हैं, लेकिन ऐसे नौजवान स्वयं को ऐसे किसी भी तरह के आंदोलन से दूर रखना चाहते हैं, जो अच्छाइयों को जन्म न दे सके और बुराइयों को खत्म ना करे| जिन आंदोलन का मतलब एक सत्ता को हटाओ और दूजी को लाओ, उससे दूर रहना चाहते हैं| जे.पी. के आंदोलन के बाद इन नौजवानों ने अपने आप को ठगा महसूस किया| अन्ना जी, यही है आपकी भीड़? क्या इसी से आप दूसरी आज़ादी लड़ेंगे? क्या इसी से आप जन लोकपाल जैसे कमजोर मुद्दों की लड़ाई लड़ेंगे? आपकी सिविल सोसाइटी के लोग इतने कॉर्पोरेट, हाईटेक और चुस्त-दुरुस्त हैं कि आपके बोलने से पहले आपकी बात ट्विट्टर और फेसबुक पर   भेज देते हैं| यदि आप और आपकी सिविल सोसाइटी की टीम राष्ट्र के लिए सही मायने में लड़ना चाहती है तो आप सरकार को अपना कुछ सुझाव दें जिससे पूंजीवादी व्यवस्था का साम्राज्य खत्म हो|

१.      धन पर सीलिंग के साथ-साथ अकूत संपत्ति रखने का अधिकार किसी को नहीं मिलना चाहिए|
२.      एक ऐसा जन समीति बने जिसमे समाज के सभी वर्गों के नैतिकवान, सर्वाभौमिक व्यक्तियों की भागीदारी हो जिसे जीवन में किसी और लाभ के पद पर कभी नही रखा जाए| पहले व्यवस्था लागू हो| इस कमिटी के सभी सदस्य और उनके परिवार को अच्छे तरीके से जीने के लिए अच्छी तनख्वाह की व्यवस्था के साथ हर तरह के सामाजिक सुविधा प्राप्त हो|


कमिटी को निम्न अधिकार दिए जाएँ:-

I.            कोई भी बजट जो लोकसभा में पास होता हो उसे बनाने का अधिकार इस कमिटी के पास हो|
बजट बनाने के अधिकार को मंत्रालय को नहीं दिया जाना चाहिए| साथ-साथ यह कमिटी कार्यपालिका पर अंकुश रख सके| ऐसा प्रावधान इसके पास हो|
II.            चुनाव प्रक्रिया समानुपाती हो|
III.            शिक्षा समानरूप के साथ-साथ सरकार के द्वारा मुफ्त शैक्षणिक व्यवस्था, सरकार के द्वारा “नो लौस नो प्रोफिट” जैसी शिक्षा व्यवस्था जो गरीब से अमीर तक, मजदूर से प्रधानमंत्री के बच्चे तक एक साथ पढ़ सकें| शिक्षा के सिलेबस में अमूल-चूल परिवर्तन की गुंजाईश हो| शिक्षा को अध्यात्मिक, नैतिक, शारीरिक, मानसिक, सांस्कृतिक शिक्षा की व्यवस्था की जाए जिससे नौजवान नैतिकवान हो सकें| प्राथमिक शिक्षा से लेकर स्नातक तक की कक्षा में भ्रष्टाचार जैसी कोर्स को अनिवार्य किया जाए|
IV.            देश के सभी लोगों के संपत्ति का ब्यौरा सरकार ऑनलाइन करे|
V.            मुनाफवादी संस्कृति को खत्म की ओर ले जाना होगा|
VI.            कोई भी कर्मचारी या पदाधिकारी भ्रष्टाचारन् में सम्मिलित पाया जाए तो सजा के तौर पर उसकी डीग्री समाप्त कर दी जाए|
VII.            नीचे से लेकर ऊपर तक किसी भी जन प्रतिनिधि को एग्जेक्युटिव का पॉवर तो दिया जाए लेकिन उसे किसी भी तरह के आर्थिक व्यवस्था पर हस्ताक्षर करने का अधिकार नही दिया जाए| साथ-साथ यदि कोई भी जन प्रतिनिधि पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाता है तो लोक सभा अध्यक्ष अपनी कमिटी के द्वारा जांच करवाए और दोषी पाए जाने पर उसकी सदस्यता को समाप्त कर दी जाए|
VIII.            जितनी भी सरकारी, गैर सरकारी संस्थान हैं, उनकी वित्तीय स्थिति (न कि सिर्फ फाइनल स्टेटमेंट) को हर छ: माह पर ऑनलाइन करने का सरकार आदेश दे|
IX.            भारत में साढ़े तीन करोड़ केस लंबित हैं| उसमे लगभग २५० करोड़ सिविल केस हैं उन्हें एक निर्धारित समय के अंदर समाप्त करने की व्यवस्था सरकार करे| जो लंबित केस हैं, खास तौर पर उस केस के जांच का डेली रिपोर्ट प्रत्येक दिन अपटूडेट कर उसे ऑनलाइन किया जाए ताकि उसे कोई छेड़-छाड नही कर सके|


अन्ना जी, जिस देश में लाखों लोग नाटकीय परिस्थिति में रोज अनशन करने के लिए मजबूर हों, वहाँ ३३ लाख रुपये खर्च कर ४ दिन के अनशन पर रहना अनैतिक नहीं तो और क्या है? क्या विरोध के लिए अनशन का हथियार वैसा नहीं है जैसे उच्च मध्य वर्गीय समृद्ध लड़के झाड़ू लगाकर और जूता पोलिश कर कभी आरक्षण, कभी भ्रष्टाचार तो कभी मंडल का विरोध करते हैं?

और अंत में : अति विनाम्रतापुर्बक सिविल सोसाइटी के तमाम व्यक्तियों से मैं कहता हूँ कि नैतिक और सार्वभौमिक शिक्षा के बगैर सिर्फ कानून से (जैसा कि अन्ना जी कहते है –‘’जनलोकपाल से यदि भ्रष्ट्राचार खत्म नही होगा तो मैं कपिल सिब्बल के घर पानी भरूँगा”) यदि भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा तो मैं, राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव यह घोषणा करता हूँ कि मैं अपनी सारी संपत्ति (पैत्रिक और अर्जित सब) ग़रीबों को दान कर दूँगा |    




1 comment:

  1. Apke wichar bahut achchhe hain. Mere wichar sebharat men sabhi adami ke sampati ki sima taya ki jani chahie.log sampati jama karne aur kamane ke chakkar hain.

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