Friday 28 December 2012

बलात्कारी कौन ?


रिश्तों के आड़ में छुपे बलात्कारियों को कौन सा कानून और कंदील रोकेगा?   


आदिकाल से मनुष्य बाहरी शक्ति का उपासक है| बाहरी शक्ति से मेरा तात्पर्य भौतिक शक्ति से है| जबकि असल में मनुष्य अपने कर्म का निर्णय लेता है आतंरिक शक्ति अर्थात मन से| मनुष्य का मन प्रधानत: तीन गुणों से प्रभावित होता है- सतो गुण (सात्विक), रजो गुण (राजसिक) और तमो गुण (तामसिक)| इन तीनों गुणों का जिस मन में संतुलन है वहीं शांति है| मन पर जब सतो गुणों का प्रभाव रहता है, तो मन में अच्छे विचार आते हैं और मनुष्य सद कार्य को प्रेरित होता है| रजो गुण का प्रभाव रहेगा तो मन में चंचलता, आवेग, जोश, नाच-गान, उछल-कूद करने का भाव पैदा होता है| मन में नाम, यश, धर्म प्राप्ति की भूख होती है| और इसी तरह तमो गुण का प्रभाव जब मन पर रहेगा तब मन में किसी का शोषण करने, परेशान करने, कष्ट देने जैसा भाव पनपता है| तथा साथ-साथ भय, आहार और मैथुन की प्रबलता रहेगी| इसलिए आज जररूरत है मन पर नियंत्रण रखने की| मनुष्य को यम-नियम के अभ्यास की आवश्यकता होती है जिसके कारण मन में शुद्धता और पवित्रता आती है| तब मन नियंत्रण में रहता है |

मन का उत्स ईश्वरी भाव है पर मानव का विकास पशुता से अग्रसर होते हुए हुआ है| इसलिए मनुष्य के मन में दोनो तरह के गुण मौजूद हैं- दैवीय गुण और पशुवत गुण| इन्हीं कारणों से मनुष्य का एक विचार उसे ऊपर उठाता है, तो दूसरा नीचे गिराता है| मनुष्य का व्यक्तित्व उसके विचारों का प्रोडक्ट होता है| एक मनुष्य होता है जिसके भीतर नैतिकता नाम की कोई चीज़ नहीं होती है, दूसरा मनुष्य होता है जिसके भीतर सहज नैतिकता होती है और तीसरा मनुष्य होता है जिसके भीतर अध्यात्मिक नैतिकता होती है| सहज नैतिकता वाले मनुष्य की  वृति लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष के आवेग में टूट जाता है| परन्तु जहाँ अध्यात्मिक नैतिकता होती है वहाँ व्यक्ति इष्ट के प्रति समर्पित होता है| ऐसे लोगों का नैतिक पतन असंभव सा होता है| मनुष्य के नैतिक उत्थान के लिए साधना और ध्यान में प्रतिष्ठित होना आवश्यक है| सिर्फ वही व्यक्ति समाज का कल्याण कर सकता है, जो ध्यान में प्रतिष्ठित है| क्योंकि वह व्यक्ति इस बात को मान कर समाज में जीता है (हरेड़ पिता, गौरी माता, स्वदेशो त्रिभुवन) परम पिता परमात्मा मेरे पिता हैं, परमा प्रकृति मेरी माँ है और त्रिभुवन मेरा घर है| हम सभी जीव-जंतु मनुष्य उसी परम पिता के संतान हैं इसलिए वह व्यक्ति किसी भी तरह का सामाजिक शोषण बर्दास्त नहीं करेगा| इसलिए मानव समाज को नैतिक मूल्यों को ग्रहण कर अध्यात्मिक पथ पर चलना ही होगा|

वर्तमान में जो शिक्षा मनुष्य को दी जाती है, उससे लोगों के नैतिक मूल्यों का उत्थान नहीं हो पता| ऐसी शिक्षा से मनुष्य का नैतिक पतन होने की अत्यधिक सम्भावना बनी रहती है| मनुष्य का शारीरिक एवं मानसिक विकास हो जाने से उसका पूर्ण विकास नहीं माना जा सकता| आदि काल में जो लोग शारीरिक रूप से बलवान होते थे वही राज करते थे, नेतृत्व  करते थे | उस युग को क्षत्रिय युग कहते थे| परन्तु जब बुद्धिजीवी वर्ग नेतृत्व करने लगे तो उसे विप्र युग कहने लगे| परन्तु समाज में नैतिक पतन की स्थिति वही रही | नैतिक उत्थान के लिए समय-समय पर बुद्ध,  गुरूनानक, मोहम्मद जैसे महापुरुष धरती पर आकर उत्थान किये हैं| नैतिक उत्थान के लिए जो शिक्षा-दीक्षा है, वह सिर्फ अध्यात्मिक क्षेत्र है| इसलिए मानव समाज के मानसिक विकास के साथ-साथ अध्यात्मिक विकास आवश्यक है| जिस तरह विज्ञान, भूगोल, इतिहास की पढाई होती है, उसी तरह अध्यात्मिक विज्ञान की पढाई नीचे क्लास से ही होनी चाहिए, तभी हम नैतिकवान व्यक्ति का निर्माण कर पाएंगे | उसी से सामाजिक परिवेश भी सुंदर बनेगा| तभी जाकर नैतिक ह्रास या नैतिक अवनति नहीं होगी| आज जरुरत है इसी तरह कि सामाजिक परिवेश बनाने की| ताकि आदमी अच्छे कर्मों या अच्छे कार्यों को करने में उत्साह दिखा पाएंगे और बुरे कर्म करने वालों को प्रोत्साहन नहीं मिल पायेगा| अध्यात्म से आतंरिक अनुशासन का विकास होता है| व्यवस्था मात्र बाहरी अनुशासन विकसित करता है| जबकि मनुष्य आतंरिक कारणों से ही अच्छे कार्य कर पाएंगे| बाह्य कारणों से व्यवस्था अंशत: ही सुदृढ़ हो पायेगी| मनुष्य अपने इन्द्रियों की संतुष्टि चाहता है पर वह संतुष्टि क्षणिक होती है| आतंरिक जगत में इन्द्रियाँ मदद नहीं करती हैं| वहां भाव जगत से मतलब है| इन्द्रियाँ सदा बाह्य दुनिया से जोड़ती हैं| उससे मन में जो विचार पैदा होते हैं वह सीमित और कुंठित होते हैं|

मानसिक पवित्रता निर्भर करती है शुद्ध आहार, शुद्ध विचार और शुद्ध परिवेश पर| यह नहीं होगा तो मानसिक पवित्रता नष्ट होती है| तब मन पे नियंत्रण नहीं रहता है| मनुष्य होश खोकर पशुवत गुणों का सहारा ले लेता है| पशुवत गुण है– आहार, निंद्रा, भय और मैथुन| जहाँ मनुष्य के जीवन में इच्छा शक्ति का महत्व है जैसे मन में विचार आया चोरी करेंगे यानि  लोभ आया यानि लोभ के कारण चोरी करेंगे, दूसरा विचार आया कि पुलिस पकड़ेगी, तीसरा विचार आया कि समाज के लोग क्या कहेंगे, लज्जा पैदा हुई, यहाँ मन में तीन भाव काम कर रही हैं| ऐसे समय में इच्छा शक्ति जिस भाव के साथ काम करेंगी, शरीर वैसा ही काम करेगा| इच्छा शक्ति का हमेशा बाह्य प्रदर्शन होता है| इसी जगह देखा जाता है मन के भीतर हरेक तरह के कार्य करने के लायक इच्छा होती है| चोरी, बेईमानी, बलात्कार...| यहीं मन पर नियंत्रण की जररूरत होती है| जब-जब मनुष्य दूसरों के हित की भावना नहीं रखता है वह स्वार्थी बन जाता है| और स्वार्थ के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता है| इसलिए देखा गया है अच्छे लोग भी जिनमें कल्याण करने कि भावना नहीं रहती है, वो गलत कार्य कर बैठते हैं| किसी भी तरह के अच्छा करने की भावना इच्छा शक्ति से आती है| ऐसा देखा गया है कि इच्छा शक्ति में सकारात्मक भावना आती है तब मनुष्य गलत कार्य नहीं करता| मनुष्य जीवन में ख़ुशी नहीं चाहता है| वह शांति चाहता है| इन्ही कारणों से लोग भौतिक संसाधनों के पीछे दौरते हैं| जो मनुष्य भौतिक चीजों से शांति पाना चाहते हैं उसे ख़ुशी नहीं मिलती है| इसलिए किसी भी तरह के कार्य के लिए अपने पर नियंत्रण होना बहुत जरुरी है|

हमारा शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है, इसलिए हमरा मन खान-पान, वातावरण, विचारों से प्रभावित रहता है| जैसे शराबी किसी भी शहर में जाकर शराब की दुकान खोजता है, सिनेमा का शौकीन सिनेमाघर खोजता है, खेल का शौकीन स्टेडियम खोजता है, इसलिए देखा गया है, मनुष्य का जैसा स्वभाव है, वैसा ही परिवेश चाहता है| इसलिए मनुष्य के खान-पान का चुनाव ढंग से होना बहुत जरुरी है| क्योंकि खाने से हमारे शरीर का सेल बनता है| यह सेल हमारे शरीर और मन को जोड़ता है, तब वैसा ही हमारा मन बनता है, फिर वैसा ही शरीर बनता है और इसी मानसिकता के कारण अपराध की प्रवृति बनती है| इसलिए किसी भी तरह के कानून से किसी भी तरह के अपराध को ख़त्म नहीं किया जा सकता| इसके लिए जररूरी है नैतिक एवं अध्यात्मिक शिक्षा के साथ उचित परिवेश का होना| देखा गया है दुनिया के कई देशों में बलात्कार जैसे अपराधों के लिए फांसी की व्यवस्था है| परन्तु देखा गया है उस देश में बलात्कार कि घटना बढती ही गई| मुझे दुःख नहीं होता, मुझे हंसी आती है, इंग्लिश मेम विलायती बोल वाले तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग, उच्च संस्कार वाले,  जिन्हें न तो किसी भी तरह के शोषण का ज्ञान है, न जानकारी, न हीं बलात्कार की परिभाषा की समझ है|

वैसे छोटे-बड़े किसी भी तरह बलात्कार को जायज नहीं ठहराया जा सकता| ऐसे प्रवृति का विरोध सामाजिक रूप से जमकर होना चाहिए| लेकिन विरोध का स्वरूप सिर्फ इंडिया गेट पर कैंडल जला लेने और किसी भी सरकार विशेष को गाली दे देने भर से नहीं होना चाहिए| उर्जा के साथ युक्ति का होना आवश्यक है| युक्ति यदि नहीं हो तो आन्दोलन दिशाहीन हो जाता है, उग्र हो जाता है| और ऐसे समय में देखा गया है कि सही मुद्दे गौण हो जाते हैं| जरुरी है यह जानना और समझना कि सेक्स जैसी प्रवृति किन-किन कारणों से पैदा होती है और बलात्कार विकृति जैसी विकृतियाँ कितने अंदर तक हैं| आज समाज में यौन इच्छा को बढाने और उकसाने का काम ज्यादा किया जा रहा है| गौर से देखने पर पाएंगे कि पूरे माहौल में मानो सेक्समय हुआ पड़ा हो| टीवी-फ़िल्म, विज्ञापन, साहित्य, इंटरनेट हर जगह स्त्री को सेक्स के रूप में परोसा जा रहा है| फ़िल्मी गानों, विज्ञापनों, रैंप ने समाज में सेक्समय माहौल की सबसे बड़ी भूमिका निभाई है| आदमी और औरत दोनों इस काम में लगे हैं| आईटम नम्बर पर नाचने वाली नायिका आखिर क्या कर रही है| अधिकांश हिस्सा स्त्रियों को सिर्फ भोगना चाह रहा है| उपभोक्तावाद, बाजारवाद असीमित लाभ की प्रवृति ने मिलकर जो माहौल बनाया है वह स्त्री-पुरुष को बराबर की हमजोली बनने से ज्यादा पुरुष को स्त्री को भोगने के लिए उकसा रहा है| सेक्स की मांग बेतहासा तरीके से बढ़ा दी गई है| यौन इच्छा की पूर्ति के लिए विवाह और वैश्यावृति के इन्तजाम कम पड़ते हैं| बेकाबू-हुई-यौन-इच्छा परिवार में मौजूद बच्चे, लड़के और लड़की दोनों को शिकार बनाते हैं| पुरुष बाल यौन शोषण का तरीका या अन्य तरीके अपना कर अपनी बेकाबू हुई यौन इच्छा को शांत करने में लगे हैं| परन्तु वह अतृप्त इच्छा पूरी नहीं हुई है| बल्कि वह ज्यादा बेकाबू हो रही है| सभी तरह के सर्वे ने यह स्पष्ट कर दिया है कि बलात्कार जैसे घटना में ९२% अपराधी परिवार, पड़ोसी और नजदीकी रिश्तेदार ही होते हैं| पिता, चाचा-चाची, साला-साली, भाई-बहन, चचेरी-मौसेरी-फुफेरी बहन के बीच बलात्कार जैसे घटनाओं को अत्यधिक रूप से बढ़ते हुए देखा गया है| स्थिति यह है कि कुछ दिनों के बाद पारिवारिक बदनामी के कारण अधिकतर केसों में समझौता होता देखा गया है|

दोस्तों! बलात्कार अभी थमी नहीं है बल्कि कभी नहीं थमेगी, क्योकि जब तक स्त्री को यौन-वस्तु के रूप में बदलने के तरीके बढ़ते रहेंगे| स्त्री को यौन वस्तु के रूप में दिखाने वाले हर चीजो का विरोध करना पड़ेगा| दोनों हाथो में लड्डू, ‘चित भी मेरी पट भी मेरी’ नहीं चल सकती| अतिरिक्त यौन इच्छा को सहलाने के लिए हर किस्म के मादकता और पोर्न भी आँखों के सामने रहे और घर कि स्त्रियाँ भी सुरक्षित रहे यह संभव नहीं है| किसी एक को चुनना होगा| पूनम पाण्डेय और जिस्म-२ की हेरोईन सन्नी लियोन के वास्तविकता को अकेले में मजे लो और दुर्घटना होने पर सरकार और कानून पर चिल्लाओ| यह कौन सा अनुशासन है| सोचिये किस तरह हम इन्टरनेट, समाज, फिल्मों, मीडिया विज्ञापनों में फैली अश्लीलता को कम कर सकते है| सोचिये बड़ी-बड़ी कंपनियो के स्त्रियों को यौन वस्तु में बदलने के चाल को कैसे नाकाम किया जाय| सोचिये जिस वक्त किशोर इन्टरनेट, फिल्म, विज्ञापन, पोर्न में स्त्री को भोगते हुए देखता है, उसके देह से खेलते हुए देखता है तो उसके मन में स्त्रियों की पहली छवि जो बनती है वो यौन वस्तु की ही है, माँ, बहन, बेटी के रूप में नहीं| इसके बाद किशोर साथी या दोस्त बनाना नहीं चाहते| सिर्फ उसे भोगना चाहते हैं| इसके लिए वे हर तरह के रिश्तों का जाल बुनना चाहते है| समाज में एक विचित्र मानसिक स्थिति पैदा होती जा रही है कि बलात्कार का मतलब ऊंचे या पढ़ी लिखी लडकियों के साथ जो बलात्कार हो वही बलात्कार है| न जाने इस देश में कितने मजदूर मालिक-जमींदार के हबस का शिकार होते आ रहे हैं| गाँव के पगडंडियों पर छोटा दुकान हो या लघु उद्योग या बड़े उद्योग, गरीब अबलाओं का शोषण हर जगह चला आ रहा है| कहीं नौकरी का लोभ, तो कहीं उधार का लाभ, तो कहीं कोई मज़बूरी| लोभ प्रत्येक घटना का सबसे बड़ा कारण है|

बढ़ते भौतिकवाद, बाजारवाद का यह आलम है कि समाज का हर व्यक्ति आसमान को छूना चाहता है| गरीबी तो एक अभिशाप ही है जो हर घटना-दुर्घटना का दरवाज़ा खोलती है| समाज में इन कारणों से आपसी सहमती से जो शोषण होता है, उसे क्या आप बलात्कार नहीं कहेंगे| यदि किसी के घर में उसका जीवन-साथी शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से सुंदर है, इसके वाबजूद कोई व्यक्ति वैश्यावृति के लिए जाता है या अन्य औरतों के साथ सम्बन्ध बनता है तो क्या वह बलात्कार नहीं है? क्या चलती गाड़ी में ही ऊँचे घरानों के लड़कियों के बलात्कार को ही बलात्कार कहा जायेगा? यह सही है कि सेक्स व्यक्ति की मूलभूत जरूरतों में से एक है| बहुत कम ही सन्यासी इस जरुरत पर नियंत्रण रख सके हैं| सेक्स की स्थिति यह है कि आंकड़ों के अनुसार महिलाएं अपने लोगों के बीच ही असुरक्षित हैं| सवाल यह उठता है कि आखिर महिलाएं सुरक्षा को लेकर कहाँ आश्वस्त हो सकती हैं? दुष्कर्म के मामले सड़कों पर अकेली लड़की से ज्यादा खतरा उनके बीच होते हैं जहाँ वो सुरक्षित महसूस करती हैं| दरअसल वे कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं| चाहे वो घर हो या सड़क| क्या इस तरह के घटनाओं के लिए समाज, सरकारी तंत्र, व्यवस्था, सरकारी लोग, ऊँचे लोग दोषी नहीं हैं? मैं आंकड़ों के खेल में नहीं जाना चाहता| समाचारपत्र, टीवी, पत्र-पत्रिकाएं में सर्वे के द्वारा जो आंकड़ें दिखाए जाते हैं वो असल संख्या के मुकाबले बिलकुल ही नगण्य हैं| इस तरह के घटनाओं में हम यदि जाते हैं तो पाते हैं कि छोटे कस्बे, शहर, गाँव में इनकी संख्या अत्यधिक है जो ना तो समाचारपत्रों में आता है ना ही किसी तरह का केस दर्ज होता है| समाज के सामने जो घटनाएँ आ जाती हैं वो शायद दर्ज हो जाये लेकिन जो समाज, मीडिया, समाचारपत्रों में नहीं आ पाती, वो कभी दर्ज नहीं होता|



लेकिन जिन बलात्कार के घटनाओं में समाज को दिशा देने वाले और कानून बनाने वाले नामित हैं, उसे अगर समाज की सहमती मिल जाती है तो फिर हमारा दिशाहीन छात्र, नौजवान किस पथ के पथिक होंगे? कौन सी ऐसी पार्टी, कौन सा ऐसा लोकसभा या विधानसभा नहीं है जिसमे कुछ ना कुछ ऐसे जनप्रतिनिधि नहीं हैं जिसपर कई तरह के शोषण और बलात्कार का केस ना हों? एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफोर्म्स के रिपोर्ट को आप देख सकते हैं कि कानून व्यवस्था के क्या हालात हैं? फिर समाज ऐसे लोगों को क्यों चुनती है? जात-धर्म के नाम पर सारे बुराइयों को दबा दिया जाता है| ये कौन सा समाज है जहाँ की जनता गुजरात में उस व्यक्ति को चुनता है जो शीर्ष पद पर बैठ कर आदेश देता है कि पेट के बच्चे को निकाल कर जला दो? और वहां की जनता ही भेड़ीयों की तरह एक कमजोर समाज पर टूट पड़ता है| ना जाने कितने ही माँ, बहन, अबलाओं के इज्जत का तार-तार कर दिया जाता है| और उसके बाद उसी देश की जनता उसे देश का प्रधानमंत्री बनाने पर अमादा हो जाए| तब इंडिया गेट पर हाय-तौबा क्यों नहीं मचता? कैंडल क्यों नहीं जलाया जाता? न जाने कितने दशकों से मुंबई की धरती पर मराठी उत्तर भारतीयों के नाम पर कितने की इज्जत लुटी गयी, कितनो की जाने गयी| हमेशा से भीड़-तंत्र लोकतंत्र का गला घोटती रही है| उसके बाबजूद दस लाख से ऊपर जनता सड़क पर उतर कर एक आदमखोर व्यक्ति के सम्मान के लिए आगे बढ़ कर उसे पुरस्कृत करता है और उसके हर तरह के कुकर्मो पर पर्दा डाल देता है और उसे इस सदी का सबसे बड़ा महानायक बना देता है| तो हमारे नौजवान किशोर किस राह के पथिक हों?

 हर तरह के स्केंडल घटनाओं के बाद भी मुख्यमंत्री, मंत्री, राजनेता बनते है तो किशोर छात्र, नौजवान किस राह पर जायेंगे| स्टिंग ऑपरेशन में राजनेताओं को, ब्यूरोक्रेट्स को, सुधारवादी को, बलात्कार करते दिखाया जाता है उसे ही जनता राज करने भेज देती है| ऐसे ही रोल मॉडल बन जाते है| विजय माल्या, अम्बानी जैसे लोग ही आज रोल मॉडल है| फिर चिंता कहाँ रह जाती है इन छोटी बातो के लिए| जब देश का प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, मंत्री और राजनेतालोग सत्यसाई बाबा, डेरा सच्चा सौदा, आशाराम बापू, नित्यानंद स्वामी, सुधांशु रंजन, बाबा चंद्रास्वामी, स्वामी चिन्मयानन्द जैसे अनगिनत बाबाओं  का पैर जब छुएंगे, जब देश के बड़े उद्योगपति इन लोगो के पैर पड़ेंगे तो दिशाहीन नौजवान किस राह के पथिक होंगे? भंवरी देवी सेक्स स्केंडल, आइसक्रीम पार्लर स्केंडल को जब लोग भूल जाये तो स्केंडल को कौन रोकेगा| रंगा बिल्ला, बोबी मर्डर केस को जब समाज भूल जाता है तो दिल्ली की घटना को भूलने में कितना वक्त लगेगा| लोग समझते है कि एक ही गोपाल कांडा गोयल पैदा हुए| लेकिन जहाँ हर डाल पर उल्लू बैठा हो अंजाम गुलिस्ता क्या होगा? घर का रखवाला ही जब बईमान हो जाये फिर उस घर को कौन बचा सकता है | सत्य साईं बाबा पर दर्जनों बार बाल यौन शोषण के आरोप लगे है| क्या उसके लिए हाय तौबा मची? नित्यानंद स्वामी, बाबा आशाराम बापू के आश्रम का कौन सा घिनौना हरकत समाज के सामने नहीं आया? लेकिन क्या इन लोगो के चौखट पर लोगो की भीड़ कम हुई? फिर यह समाज हाय-तौबा क्यों मचाती है जो खुद सब चीजो को बढ़ावा देती है| हरियाणा के खाप पंचायत जिसे दुनिया जानती है कि वह कोई कानून नहीं मानता बल्कि मुगलिया फरमान देता है सिर्फ परंपरा के नाम पर| आज तक क्यों दिल्ली के नौअवानों ने खापों के खिलाफ कैंडल नहीं जलाया? जो लोग सड़कों पर हाय-तौबा मचा रहे हैं वे कौन से दूध से धुले हुए हैं? इन जैसे लोग जो समाज में सबसे पहले भ्रूण हत्या कर बेटियों को मार देते हैं वैसे नौजवान ही औरत के सम्मान का ठेकेदार बनेंगे?

जिन नौजवानों को अपने कर्म और पुरुषार्थ पर भरोसा नहीं हो, जो भाग्य पर जीते हैं, जो भगवन की भी पूजा ग्रह-नक्षत्र के अनुसार करते हों, कहीं दिन के उजाले में लाखों लीटर सरसों तेल (शनि देव को) तो कहीं भगवान को लाखों लीटर शराब चढ़ाये जाते हैं, यदि ऐसा समाज सिर्फ कैंडल जला कर विरोध करता है तो यह महज दिखावा है| भगवन बुद्ध ने कहा था कि मदिरा एक ऐसा नशा है जो हर तरह की बुराइयों का जड़ है और दूसरी तरफ नासमझ भीड़ जो शराब को अपना जीविका के साथ-साथ अपना फैशन बना रहे हैं| जो भगवन को भी शराब से खुश करना चाहते हैं| उस भीड़ से हम किस तरह के समाज बनाने की उम्मीद कर सकते हैं? मैं उन लोगों से जानना चाहता हूँ जो इंडिया गेट पर कैंडल जलाना चाहते हैं, क्या उन्हें मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ के आदिवासी की चीखें नहीं सुनाई देती? उस गरीब अनपढ़ लड़की पर हुए अत्याचार पर क्रोध क्यों नहीं आया? देश में अमानवीय कुकर्म करने वाले डॉक्टर, वकील, पदाधिकारी पर खून क्यों नहीं उबलता? पटना के डॉक्टर के द्वारा बच्ची का रेप किया गया| इस पर हाय तौबा क्यों नहीं मचती? बलात्कारी साधु-संत, चर्च मंदिरों में हुए बलात्कार के खिलाफ आक्रोश क्यों नहीं होते? कानून बनाने वाले नेताओ को भट्टी में क्यों नहीं झोका जाता? गुवाहाटी के बीच बाज़ार में जब मासूम लड़की को घंटो छेड़ा जाता है और वहां सरकार और मीडिया मजाक बना कर परोसती है तो उस घटना पर गुस्सा क्यों नहीं फूटता| कोई कहता है लिंग काट लो| किस किस का लिंग काटोगे? कही से आवाज उठती है फांसी दे दो| सर्वविदित है कि हमाम में सब नंगे है; लिंग काटना और फांसी देना समाधान नहीं है| कानून सशक्त हो और वह ईमानदार और सशक्त रूप से लागू हो, सवाल यह है|

लेकिन इससे भी बड़ा सवाल है मनुष्य का बदलाव, चिंतन में बदलाव, मनुष्य के आहार में बदलाव, यह बड़ा सवाल है| बिना मनुष्य के बदले समाज नहीं बदलेगा| न ही बलात्कार के घटनाओं को रोका जा सकता है| यह बढ़ेंगे ही| दिल्ली में जिस तरह स्त्रियों के सम्मान के लिए हाय तौबा मचाया गया है| मैं इससे सहमत नहीं हूँ| दिल्ली में इससे बड़ा मामला रंगा बिल्ला में बवाल आया था| क्या बलात्कार रुक गया? उससे भी ज्यादा गांवो और कस्बो में बलात्कार बढ़ गया? उसे कौन सा कानून रोकेगा ? केंडल मार्च रोकेगा?  बुद्धिजीवी जो समाज को सुन्दर बनाना चाहते हैं वे शिक्षा नीति के आमूल-चूल परिवर्तन के लिए दबाव डालें| दूसरा शराब, दहेज़, भ्रूण हत्या, पाश्चात्य आहार-विहार, विचार के खिलाफ सख्त से सख्त कानून बने, तभी हम समाज का निर्माण कर पाएंगे | और इस तरह के घटनाओं को रोक पाएंगे|  

Monday 24 December 2012

“युगद्रष्टा”


“युगद्रष्टा”


किस गहन चिंतन में-डूब गया है तू,
क्या ठान ली है स्वर्ग धरा पर लाने की ?
फलक के किन तारों को तू देख रहा,
या इच्छा है चाँद को ही उतार लाने की ?
प्रकाश खोजने अंधकार में मारा-फिरेगा,
मातम मानती माँ का क्या तू गोद भरेगा ?
कितने बहनों का भाई बन पीड़ा सहेगा,
असुरों से अकेले क्या तू लड़ता रहेगा ?
चंडाल चौकड़ी से आवृत यह शहर है,
दमन का दौड़ अंधा कातिलों का कहर है |

फिर क्यों आयो हो यहाँ पुरुषार्थ जगाने,
जख्में-दिल पर मोहब्बत का दरिया बहाने ?
क्या चाहते हो बिगुल क्रांति का बजे,
सद्भाव से मानवता पुन: सजे-धजे |
तो आततायी का सिर कलम करना पड़ेगा |
बीज नैतिकता का धरा पर बोना पड़ेगा |
सुख-शांति-समृद्धि का सर्वत्र राज हो,
जो हैं सहज-सरल, उनके सिर ताज हो |
असंभव नहीं जगत में तारों को तोड़ लेना,
चाह में दम हो तो नभ भी नमन करेगा –
चाह में दम हो नभ भी नमन करेगा |


हमारी सारी शक्ति दूसरों के अवगुणों की खोज में क्षय हो जाती है | काश ! इन अवगुणों को स्वयं में खोज कर उन्हें परिष्कृत कर पाते तो समाज कितना सुंदर हो जाता |

Saturday 22 December 2012

“पथिक”


“पथिक”


राग–द्वेष से विरक्त वियोगी,
जेहन में जगअवसाद लिए |
शक्ति-श्रोत नवयुवातुर्क  का,
रंग ओढ़ दधिचि गरल पीए |
जज्वा है जलधि मापने का,
नभ भी नब्ज पहचान रहा |
पग जिधर चला झूंड चली,
प्यासा-पथ विकल बेजान रहा |
पूर्वांचल का पथिक धरोहर,
याचक समरसता का सरोवर |
दनुज से जूझने मचल पड़ा,
वह स्वर्ग लूटने निकल पड़ा |


भौतिकता की भूख हमारे सारे कुकर्मों का उद्गम है | नैतिकता के

मर्यादाओं का पालन कर इसे नियंत्रित किया जा सकता है |

Thursday 8 November 2012

ज़रा सोचिये! समाज के पतन के लिए जिम्मेवार कौन है? और वर्तमान पीढ़ी हमें कहाँ ले जा रही है?


ज़रा सोचिये!
समाज के पतन के लिए जिम्मेवार कौन है? और वर्तमान पीढ़ी हमें कहाँ ले जा रही है?

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनास्मी जानताम,
देवाभागम यथा पूर्वे संजानाना उपासते|
समानी वा आकूति समाना ह्रदयानि वः,
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति||

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णुः गुरुर देवो महेश्वरः  |
गुरुर साक्षात् परमब्रह्म तस्मै श्री गुरुए नमः ||

हमारे जीवन का परम उद्देश्य इन्ही दो श्लोकों में सारगर्भित है|

सब साथ चलें, एकजुट रहें और सबके मन का भाव समान हो तथा प्रत्येक मन को जोड़कर विश्वस्तरीय मन का निर्माण करें !

ब्रह्माण्ड के सभी गुणों का समुचित उपयोग करो, जिस प्रकार पुराने ज़माने में ऋषि-मुनि हवि: (यज्ञों का भोजन) स्वीकारते थे|

आपका एक आदर्श हो और आप एक-दुसरे से अविभाज्य हों!
आपके मन में एक ही भाव का समावेश हो ताकि आप एक रहें!

ऋषि-मुनियों के काल से ही नैतिकता साधना की आधारभूमि रही है| परन्तु यह याद रखना चाहिए कि नैतिकता साधना का चरम लक्ष्य नहीं है| साधना के प्रारंभ में ही मानसिक सामंजस्य की आवश्यकता होती है| इसी मानसिक सामंजस्य का नाम है नैतिकता अर्थात मोरालिटी| नीतिवाद की पहली शिक्षा है यम साधना| ऋषि-मुनि, हमारी संस्कृति और हमारे परमपुरुष ने यम के बारे में बताया है| परमपुरुष के अनुसार  अहिंसा, सत्य, अस्त्रे, ब्रह्मचर्य, संयम और अपरिग्रह ये जीवन के मूल दर्शन हैं| संयम शब्द का अर्थ है नियंत्रित व्यवहार जिससे किसी को कष्ट ना हो, कभी किसी का अनहित ना हो| जीवन के इन्ही मूल दर्शन को ध्यान में रखकर ही हमारे इतिहास की नीव पड़ी थी|

किन्तु, आज गंभीर चिंता का विषय यह है कि हम आज़ादी के ६५ साल बाद भी “बसुधैव कुटुम्बकम” एवं “आत्म मोक्षार्थ जगत हिताय च” से कितनी दूर हो चुके हैं और वर्त्तमान समय में हम कहाँ है| इस देश के हाल के बारे में क्या कहा जाये| शूद्रों की बात तो अलग रही, भारत का ब्रह्मत्व अभी भी गोरे अध्यापकों में है और उसका क्षत्रित्व चक्रवर्ती अंग्रेजों में है और उसका वैश्वत भी अंग्रेजों के नस-नस में है| घोर अंधकार ने अब सबको समान भाव से ढँक लिया| अब चेष्टा में दृढ़ता नहीं रही और न ही मन में बल| अपमान से घृणा नहीं है और दासत्व से अरुची नहीं है| हृदय में प्रीति नहीं और मन में आशा नहीं है| क्या केवल, प्रबल इर्ष्या, स्वजातीय द्वेष मानव प्रदत्त धर्म की आड़ में आडम्बर, कर्मकांड और शोषण ही हमारे वर्तमान का एक मात्र सच है| अच्छे मोबइल के विज्ञापनों में सेक्स ओवरटोन (यौन सम्बन्ध) के परोक्ष और अपरोक्ष संकेत है| दिन-रात टीवी चैनेलों में देखिये| यौन इच्छा को बढ़ावा का दावा करने वाली दवाओं के विज्ञापन छोटे दिखते हैं| हर छोटे-बड़े धारावाहिक की आधारभूमि अवैध सम्बन्ध और हिंसा है| फ़िल्मी गाने सुनिए तो लगेगा सभी द्वीअर्थी या एकर्थी है| फिल्म जिस्म-२ की सफलता देखिये, सेक्स विषय पर बम्पर बिजनस, छोटे-छोटे बच्चों के रियल्टी शो को देख लीजिये, वे कैसे-कैसे फ़िल्मी गाने पर नृत्य करते हैं या गाते हैं| शीला की जवानी, नही चाहिए तेरी सेकण्ड हैण्ड जवानी, जैसे गाने बच्चे गाते हैं, उसपर बच्चों के अभिभावक खूब तालियाँ बजाते हैं| धर्म, भक्ति, पूजा का एक मात्र लक्ष्य स्वार्थ साधने में रह गया है | ज्ञान अनित्य वस्तुओं के संग्रह में है| भोग, पैशाचिक आचार में है| और भौतिक कर्म दूसरों के दासत्व में है| सभ्यता विदेशियों की नकल करने में है| वक्तृत्व कटु भाषण में है| और भाषा की उन्नति अमीरों की बेढंगी खुसामद और अश्लीलता के प्रचार में है| जब सारे देश में शुद्रत्व भरा हुआ है तो शूद्रों के विषय में क्या कहा जाए? यानी देश के शुद्रकुल की नींद टूटी जरुर है और उनमे विद्या नहीं है| उसके बदले है उनका साधारण जाति गुण, स्वजातीय द्वेष| उसकी संख्या अधिक ही है तो क्या? जिस एकता के बल पर दस मनुष्य लाख मनुष्यों की शक्ति अर्जित करते हैं, वह एकता शूद्रों से कोसों दूर है| इसलिए आज भी सारी शुद्र जाति आडम्बर, कर्मकांड, भाग्य, किस्मत, भय के नियमों के अनुसार ही पराधीन है| मेरा मानना है कि भारत में शर्म और हया नाम की  कोई चीज नहीं रही| क्या भारत शर्म और हया से मुक्त समाज हो सकता है? बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं देंगे परन्तु अश्लील विज्ञापन दिखायेंगे| टीवी प्रतियोगिता में उतारेंगे, अश्लील सिनेमा दिखायेंगे, फिर बात करेंगे १२-१४ वर्ष के बच्चे घरों से क्यों भाग जाते हैं? दरअसल भारतीय समाज तेजी से टूट रहा है| जिस तरह रियेल्टी शो डांस विज्ञापन, बिकिनी शो, बूगी-वूगी में बिकिनी पहनाकर छोटे-छोटे बच्चों को नचाया गया या रैम्प करवाया गया, वह क्या है? कहीं से तो कोई आवाज़ उठे इन चीज़ों के खिलाफ| ना माता-पिता आवाज़ उठाते हैं ना ही समाज| सरकार और सरकार के लोग, पदाधिकारी तो इन चीज़ों में नंगे ही हैं| बल्कि ऐसा आयोजन करने वाला या फिल्म बनाने वाला, आज की भाषा में बम्पर बिजनेस करता है| उन्हें कई तरह के अवार्ड मिलते हैं| नैतिकता, अध्यात्म, साधना, संस्कृति की जगह अब बिजनेस ही सब कुछ होता चला गया| भगत सिंह, सुभाष, विवेकानंद, कबीर, मोहम्मद, लाल बहादुर शास्त्री, पटेल, यीशु, शिव, कृष्ण ये वर्तमान में किन्ही के लिए प्रासंगिक नही हैं| ये हमारे रोल मॉडल नहीं रह गए| अब हमारे रोल मॉडल हैं – बिल गेट्स, सचिन, अमिताभ बच्चन, अम्बानी, विजय माल्या आदि| ना मोरल, ना एथिक्स, अश्लील, वल्गर चीजों ने साहित्य के चरित्र का सत्यानाश कर दिया है| अनेक ऐसी पत्रिकाओं में लोगों के अनुभव पढ़िए, कैसे अश्लील अनुभव छपते हैं| इंटरनेट, टीवी पर विज्ञापन, मोबाईल पर एसएम्एस या एम्एसएस आना कि क्या आप किसी लड़की से बात करेंगे| इससे सब पीड़ित हैं, परन्तु हम सब प्रतीक्षा में हैं| कोई सुभाष, कोई भगत, या कोई विजयी सम्राट या इश्वर अवतार ले और हमें इन चीजों से मुक्ति दिलाये| अपने अकर्म की कीमत हम चुका रहे हैं| ऐसे सामाजिक हालतों से सरोकार सबको है| इस बीमारी से सब पीड़ित हैं| पर ऐसे विषय पर विरोध में ना शिक्षकों की आवाज़ सुनी ना अभिभावकों की, ना सामाजिक संगठनों की आवाज़ सुनी और ना ही आम आदमी की| सरकार की तो बात ही कुछ और है| एन.जी.ओ. तो बोलेंगे ही नहीं क्योंकि उन्हें अच्छे और इन कामों के लिए फंड ही नहीं मिलते हैं| क्या यही आदर्श समाज है? सरकार और राजनीतिक दल तो कुछ है ही नही, उन्हें पता है कि जनता और लोगों के पोप्युलर ट्रेंड, टेस्ट और रुझान क्या है| फिर भला अश्लील चीजों पर पाबंद कौन लगाएगा? स्कूल, कॉलेजों में बिना पढाये यदि खुलेआम चोरी करवाकर वाहवाही सरकार लूटती है| फिर ऐसे चीजों पर पाबन्दी कैसे? इन्ही सारे कार्यों से तो सरकार की सस्ती लोकप्रियता बढती जा रही है और समाज घुन-खाए-खम्भा की तरह धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है| प्रत्येक स्कूल के शिक्षक के लिए कुछ किताबें जैसे – गीता, रबिन्द्र नाथ टैगोर, अरविन्द, श्री आनंदमूर्ती जी की किताबें जो शिक्षक के चरित्र का निर्माण करती हो, आवश्यक होनी चाहिए| प्राथमिक शिक्षक से लेकर प्रोफेसर तक का चरित्र क्या है? ऐसे अनेकों अपवाद हैं और मिलेंगे| जिसके कारण लोग गाँव में परेशान हैं| बच्चे-बच्चियां बिगड़ रहे हैं, उन्हें खुद से पूछना चाहिए कि बिहार और झारखण्ड में जब पारा (अर्ध) शिक्षकों की नियुक्ति हुई तो क्या-क्या खेल हुआ| कितनी माँ-पत्नियों के जेवर बिके? अनेक ऐसे मामले हैं जिसमे रिश्तेदारों से पैसे लेकर फर्जी अंकपत्र, सिफारिश पर शिक्षकों के पदों पर बहाल कराया गया|  हमने सुना है कि १९७०-८० के पूर्व के मुखिया ईमानदारी पर चुने जाते थे| लेकिन आज अगर गरीब व्यक्ति भी मुखिया बन गया तो ५ वर्षों में वह अमीर या करोड़पति बन जाता है| आज अगर मुखिया ठान ले तो प्राइमरी स्कूल, सेकेंडरी स्कूल को सुधर सकता है| एक आम, आदमी अन्ना हजारे, क्या अपने गाँव का कायाकल्प नही किया? लोकतंत्र में पंचायती राज व्यवस्था का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है| और उस व्यवस्था को चलाने वाले प्रधान ही अगर बेईमान हो जाएँ तो क्या यह  लोकतंत्र बच पायेगा? सामाजिक व्यवस्था को समाप्त होने से कौन बचाएगा? जब समाज नही बचेगा तो क्या देश बच पायेगा?




मेरा मानना है इन सारी बातों के लिए आम आदमी जिसे हम वोटर कहते हैं वो ही जिम्मेदार है| आम आदमी को सामाजिक और राष्ट्रीय विकास में कम और अपने निजी विकास में ज्यादा दिलचस्पी रहती है| शिक्षक को घर मे बैठे तनख्वाह चाहिए| अपने निजी क्लिनिक पर बैठे डॉक्टर को सरकारी असपताल से  तनख्वाह चाहिए| स्कूल की सारी धनराशि ऊपर से नीचे तक डी.ई.ओ. से लेकर शिक्षक और प्रधानाध्यापक तक लूटते हैं| बैठे-बैठे मनरेगा की मजदूरी हमें मिल जाये, मुखिया जी भी वाह-वाह, मजदूर भी वाह-वाह| रोड का ईंट घर में लगाने दो, आम आदमी जयकार करते नहीं थकता| नहर की पानी को सरकार फ्री कर लोन वसूली ना करे तो वह सरकार बहुत अच्छी| बिजली जलाएंगे उसका पैसा नहीं देंगे, वह सरकार बहुत अच्छी| किसी तरफ का लोन, वह छात्रवृति क्यों ना हो, हम लौटायेंगे नही| इस खतरनाक प्रवृति की चाहत रखने वाले  आदमी अच्छे समाज की क्या कल्पना कर सकता है| आम आदमी से कैसे उम्मीद करते हैं कि वह लोकतंत्र बचा पायेगा?
दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी गुजरात का मुख्यमंत्री जो उसके साथ काम करने वाले आई.ए.एस.ने कहा कि लॉ के मुताबिक नरेन्द्र मोदी खुद अपराधी हैं| फिर क्यों ना वो दीपावली मनाएंगे| जिस देश की ६०% जनता रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, आवास के लिए लालायित हो और दूसरी तरफ इसी देश के १०० आदमी का अधिपत्य भारत की  राजनीति, सारी संपदा, खनिज और भूखंडों पर हो उस देश में नरेन्द्र मोदी दीपावली नही मनाएंगे तो कौन मनायेगा? एक मुखिया लाखों-करोड़ों की मिट्टी का काम करवाता है और उस देश का अधिकतर मिट्टी का कार्य किये बिना ही गलत बिल उठा लेता है, रोजगार गारेंटी योजना में मुखिया सौदेबाजी करता है| साल में १५० दिन काम देने का प्रावधान है वे मजदूर को कहते हैं कि बिना काम किये ही तुम ७५ दिन की मजदूरी ले लो और शेष मेरा| फर्जी मास्टर रोल बनाता है| ऐसी धांधली दुनिया में कहीं चली है? सिर्फ यह हमारे समाज मे है| वृक्षारोपण की योजना बनी यह अद्भुद योजना थी, इससे श्रृष्टि और मनुष्य का अस्तित्व जुड़ा हुआ है| कितने पेड़ लगे कितने सूख गए इसका सोशल औडिट हुआ है क्या? मुखिया और मजदूर बैठे-बैठे पैसा पाए| बिना काम के मजदूरी लेकर काहिलों की फ़ौज खड़ी की जा रही है| इससे पूरा का पूरा समाज ही बीमार हो जायेगा| कहीं वोट के लिए साईकिल तो कहीं टीवी तो कहीं जेवर तो कहीं लैपटॉप, कहीं चावल| यह सब सरकार की सस्ती लोकप्रियता नही तो क्या है? जब वोट साईकिल, चावल, मोटरसाइकिल पर ही मिलना है तो सरकार को अच्छे काम करने की क्या जरुरत है? और ऐसी सरकार तो  बेईमान होगी ही| जो कुछ-देकर सरकार मे लौटेगी तो उसे बेईमान तो होना ही है| बाद में वही सरकार वसूलती है| प्रत्येक पंचायत में सोलर सिस्टम लगाने की एक अद्भुत योजना बनी| इसकी आज जांच करा लिया जाये तो कितने सोलर लगाये गए और कितने बिना लगाये ही पैसे उठा लिए गए| दो नंबर का सोलर सिस्टम लगाया गया| १०-१२ हज़ार का सोलर सिस्टम ३५-३६ हज़ार में खरीदा गया| स्थिति यह है कि जो लगाया गया वो करीब-करीब काम ही नही करते हैं| इसके लिए सोशल औडिट की जरुरत है| कौन आएगा इसमें आगे? गाँव में जो आजकल सरकारी चापाकल लगवाया जाता है वो रामभरोसे है, जो किसी की निजी दरवाज़े पर लगाया गया हो वो तो सही है अन्यथा एक भी चापाकल पंचायत में सही नही है| २०० फीट नीचे तक पाइपलाइन डालना परन्तु पाइप डाला गया मात्र ५०-६० फीट| पाइप भी प्लास्टिक का कोई निकालकर जांच भी नही कर सकता| यही स्थिति लगभग पंचायत स्तर पर सार्वजनिक जीवन की है| गाँव के लोग खुद सामाजिक, जातीय, धार्मिक और निजी कारणों से बंटा हुआ है| लोभ और भय के कारण जब लोग मूक दर्शक हो जाएँ तो फिर वह स्वर्ग में रहने की कल्पना कैसे कर लेते हैं? नरक में रह कर स्वर्ग में जीने की चाहत बेईमानी है| अगर कोई सच मे नैतिक समाज चाहता है, बच्चों में संस्कार और मूल्य चाहता है तो खुद में निजी जीवन में अमूल चूल परिवर्तन करन होगा| जब तक आप अपने इस सोच को सुधारकर, सही विचारधारा से आगे कदम नही बढ़ाएंगे तो कैसे सुंदर समाज की  कल्पना करेंगे? गाँव की बुनियादी संस्थाओं की जड़ में मट्ठा डालेंगे और उम्मीद करेंगे कि आपके समाज में विषैल पैदा ना हो, अच्छे लोग पैदा हों ये कैसे संभव है? तोड़ दीजिये ऐसे भ्रम को! अगर बचपन से ही यदि कोई बच्चा शराब में डूबा हुआ है तो वह बड़ा होकर परिवार, समाज, राज्य में बोझ बनने वाला है| हमने स्कूल से लेकर आजतक जब कभी कबीर की वाणी को सुना, बिना समझे रहीम के दोहे सुने, बिना अर्थ या मर्म जाने सूरदास, तुलसीदास, रसखान, मीरा, सुभाष, विवेकानंद, भगत, रविन्द्र, आचर्य रजनीश, गुरुनानक, गुरु गोविन्द जी, आनंदमूर्ति जी, महात्मा बुद्ध, जायसी को पढ़ा| इन सबों की तमाम उपदेश हमारे पीढ़ी के कानों में गूंजे तो, लेकिन मर्म की समझ नहीं थी| कहीं रामचरितमानस की पंक्तियाँ गूंजी तो कहीं मानव निर्माण और मानव सभ्यता और मानवीय जीवन में एक उच्च आदर्श की स्थापना कर्म, ज्ञान के आधार पर मानव की विवेचना करने वाले ब्रह्म और सदाशिव और महासंभूती श्री कृष्ण के साथ-साथ कक्षा चार या पांच में सुदर्शन की हार या जीत पढ़ी जो हर इन्सान को महीने में एक बार पढना चाहिए| सरदार पूरण सिंह के निबंध पढ़े जिन्होंने मन को छुआ| और वैसे ही पवित्र नामों के स्पर्श का जादू था कि हम जैसे अज्ञानी, नासमझ व्यक्ति भी काम चलाऊ बन गए| परन्तु अब तो अंत्याक्षरी भी फ़िल्मी गीतों में होने लगे| शायद कविता और फ़िल्मी गानों में फर्क आज का समाज नहीं जान पायेगा| कविता संस्कार देती है, मूल्य देती है और मानवीय बनाती है, कुछ फ़िल्मी गीत मन को स्पर्श भी करता है लेकिन आजकल अत्यधिक फ़िल्मी गाने इन्द्रियों को छूते हैं, भौतिक भूख बढ़ाते हैं, भौतिक आकाँक्षाओं की आग में घी डालने का काम करते हैं|
२००३-०४ के आस-पास की घटना है| एनरौन दुनिया की मशहूर मल्टीनेशनल कम्पनी थी, अचानक एनरौन तथा कुछ और अमेरिकन कम्पनियाँ दिवालिया हो गयी| उस वक्त टाईम्स की एक महिला पत्रकार ने शोध किया| जिन कंपनियों के टर्न ओवर कई बड़े देश के जी.डी.पी. से अधिक थे वे रातों-रात दरिद्रता और कंगाली में डूब कैसे गए और दिवालिया कैसे हो गए| उस पत्रकार को इस बेहतर रिपोर्ट के लिए उस वर्ष का सबसे सम्मानित अवार्ड भी मिला| उसने अपने शोध में पाया की बड़े-बड़े कंपनियों में टॉप पर बैठे ‘लोग’ या जो ‘दिमाग’ थे, वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन संस्थानों से पढ़ कर निकले थे, जिन्हें सेंटर ऑफ़ एक्सिलेंस कहते हैं| यहाँ से पढ़कर निकलते ही करोड़ों के नौकरी! जहाँ एडमिशन होना अभी के दुनिया में मोक्ष-पाना माना जाता है| असीम उपलब्धि या नोबल प्राइज़ पाने जैसे उपलब्धि ऐसे सर्वश्रेष्ठ संस्थानों से निकले लोगों ने इन बड़ी कंपनियों में जमकर फर्जीवाड़ा, लूट भोग किया, अकाउंटिंग में हेर-फेर की, ऐसा करने वाले लोग अत्यंत ही मेधावी यानि दुनिया के बेस्ट ब्रेन्स थे| दुनिया की सर्वश्रेष्ठ जगह से पढ़े लोग थे पर ये लोग धोखाधड़ी, छल-प्रपंच क्यों करते रहे? इसपर कई मनोवैज्ञानिकों ने राय दी के इनमे प्रतिभा थी पर परन्तु मूल्य, एथिक्स और सार्वभौमिक ज्ञान का सख्त अभाव था|
किसी भी इन्सान में मूल्य और एथिक्स गढ़ने का काम समाज में कविता, कहानी और अध्यात्म ही करते हैं| तबसे इन प्रबंधन स्कूलों में अरविन्द, गीता, सुभाष, विवेकानंद, गाँधी, अन्य गुरुओं या अन्य भाषाओँ में ऐसी चर्चा बढ़ी, इन्हें भी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाने लगा| दुनिया की सर्वश्रेष्ठ संस्थाऐ मूल्य और सरोकार पैदा करने वाली साहित्य को रख रहे हैं| लेकिन पता कर लीजिये की वर्त्तमान में हमारे स्कूलों या अध्यापकों में इन चीजों के प्रति कितना सरोकार है| जब कुम्हार को मिट्टी गढ़ना ही नहीं मालूम तो वह कैसा बर्तन बनाएगा! अपने बच्चों के जीवन पर नज़र डालिए! घर से शुरुआत हो, एक क्लास से ही लगातार बच्चे ट्यूशन के लिए भागते हैं, देर रात घर पहुंचते हैं| डॉक्टर कहते हैं की स्कूलों में असमय पुस्तकों का बढ़ता बोझ बच्चों को नाटा, कुबड़ा बना रहा है| तनाव इतना है की कम उम्र में बच्चों को मधुमेह, डाईबिटिज़ जैसे रोग होने लगे हैं| स्कूल अगर महंगे हैं तो काउंसलर या सही सलाह देने वाले मिल जाते हैं| कितने भारतीय आज की इस महंगाई में अपने बच्चों को महंगे स्कूल में पढ़ा सकते हैं? एक नहीं कई बच्चे हैं, जनसँख्या पर आत्म संयम तो है नहीं| वर्त्तमान में बच्चों के शिक्षक कैसे हैं, यह कहने की जरुरत नहीं| चीन का एक उदाहरण समझ लीजिये वह देश या समाज अपने नागरिकों या आने वाली पीढ़ी में जो मूल्य संस्कार देखना चाहता है, उन्ही मूल्य और संस्कारों के अनुरूप अध्यापकों का परीक्षा कराता है| विश्व के अनुरूप नहीं| शिक्षक के बारे में गोपनीय रिपोर्ट लिया जाता है कि इन अध्यापकों का जीवन चरित्र कैसा है? इनमे वे दाग तो नहीं जो भविष्य में अपने चीनी समाज में देखना नहीं चाहते| भारत सरकार की अनेक नौकरियों में अंग्रेजों ने प्रावधान तय किया था कि चयन के बाद उनकी पारिवारिक या निजी पृष्ठभूमि मंगाई जाती थी| अब ऐसी प्रथा बंद हो गई| आज हिंदी प्रदेशों में सबसे तिरस्कृत प्राइमरी स्कूल की शिक्षा व्यवस्था है| कितने शिक्षा अधिकारी आज स्कूलों में औचक निरिक्षण करते हैं? गाँव के स्कूल में इंस्पेक्टर का आना ऐतिहासिक घटना होती थी| इसकी तैयारी चलती थी| स्कूल में कोई अभिभावक कुछ कह ना दे इसके कारण स्कूलों में साफ़-सफाई की चिंता दिखती थी| आज़ादी के बाद जो अच्छी चीज हमें विरासत में मिली हम उसे भी तहस-नहस और बर्वाद कर चुके हैं| सच कहिये तो हमारे अंदर ज्ञान का सख्त अभाव है| हम काम करने की कला-संस्कृति से काफी अनभिज्ञ हैं| किसी कामों को सही तरीके से करना हमारे व्यक्तित्व में नहीं है| अगर अमेरिका जैसे संपन्न देश में यह व्यवस्था है की प्रत्येक स्कूल में समान शिक्षा हो तो भारत जैसे गरीब मुल्क में क्यों नहीं हो सकता? हमें याद है की हम जिस जिला स्कूल में पढ़ते थे वह अंग्रेजों के ज़माने से हुआ करता था वहां समान शिक्षा हुआ करता था| आज़ादी के बाद भी कुछ दिनों तक प्राइमरी स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र कैसे अच्छा रहता था? जहाँ आने-जाने की सुविधा भी नहीं थी वहां डॉक्टर, शिक्षक के रहने की व्यवस्था समुचित थी और रहते थे| आज हालत बदले हैं सुई से प्लेन पर चले गए| न्यूक्लियर बम से दुनिया को नष्ट करने की क्षमता बढ़ी| बड़े-बड़े उद्योग के जरिये प्रकृति को नष्ट कर देश का जी.डी.पी. और कुछ मुट्ठी भर लोगों ने धन को मजबूत करने के कुछ नऐ तरीके देखे गए हैं| हम सवा सौ करोड़ के लगभग हैं| शायद २० वर्ष में १५० करोड़ के ऊपर हो जायेंगे| जमीन घटती चली गयी और अट्टालिका माकन के बढ़ते देखे हैं| परन्तु व्यवस्था वहीँ रह गयी| फिर हम कैसे समाज या राष्ट्र को बचा पाएंगे? भारत और राज्य सरकारों को जी.डी.पी. पर इठलाने की जरुरत नहीं, उसे जमीन  की हकीकत को समझनी चाहिए| जहाँ शिक्षक, डॉक्टर और इंजीनियर अपना काम जिम्मा लगा देते हैं और वेतन का एक निश्चित राशि उसे लगा देते हैं और खुद दूसरे धंधे से जुड़े रहते हैं| ऐसे में समाज की आधुनिक शिष्टाचार को जानने की जरुरत है| अधकचरे पश्चिमी संस्कार हाय, हेल्लो, गुड इविनिंग, गुड नाईट, सभी तरह की अच्छे सामाजिक रीतियाँ परंपरा का खात्मा और बुरे परम्पराओं का आडम्बर भारत में चारों तरफ देखने को मिलता है| दुनिया की जानी-मानी संस्थाओं ने अध्ययन कर कहा है कि भारत की ७०% इंजिनियर या मैनेजमेंट-स्नातक नौकरी देने योग्य नहीं हैं| ये लोग अयोग्य हैं| लेकिन इन्होने डिग्री पाई है| इन देशों में अब ये व्यवस्था हो रही है कि पांच वर्षों से अधिक प्राइमरी स्कूल में कोई छात्र नहीं रहेगा उसे हर हाल में पास किया जायेगा, यानि सब धन बाईस पसेरी अर्थात योग्य, अयोग्य, सक्षम, असक्षम सब एक साथ| यह कौन सी व्यवस्था हम कर रहे हैं| बिहार और झारखण्ड में ९०% शिक्षक की बहाली अयोग्य जो अक्षम लोगों की की गई| जो अंग्रेजी में अपने पिता का नाम नहीं लिख सकते जो हिंदी भाषा में शुद्ध रूप से बोल नहीं सकते वे भी शिक्षक हैं| अयोग्य शिक्षक योग्य छात्र कैसे पैदा करेंगे| बिहार में कुछ माह पहले टी.ई.टी. हुई थी| उसमे ९५% लोग फेल हो गए| जो पास किये वे पैरवी, पैसे और चोरी के बदौलत| अब सोचिये कैसी पढाई होगी हमारे स्कूलों में! बिहार के एक विद्वान प्राचार्य ने कहा कि न स्कूलों में सही शिक्षा है न घर में सही परवरिस|



हालात क्या है सिवान की एक घटना से समझिये| एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र बस में जा रहे थे| रेल ढाला से गुजरते समय एक्सप्रेस ट्रेन से बस टकराई जिसमे सात-आठ लड़के मारे गए| यह जांच हो रही है कि क्या बस में बैठे लड़के ने गेटमैन को समझाकर गेट खोलवायी या नहीं पर छात्रो के लाश की आड़ में गाँव वाले चैन, घडी, मोबाइल, लोगों के पैसे लूट रहे थे| कही ट्रेन में आग लगा दी| यात्रियों से वो लूट-पाट के साथ-साथ औरत और लड़कियों से छेड़खानी शुरू कर दिए| कहाँ पहुच गए हम? यह मानव समाज है या जंगली समाज? इसी तरह मधुबनी में मेडिकल बोर्ड बार-बार कह रहा था कि हमारे पास जो लाश है उसकी उम्र २६ वर्ष है और जो लड़का भागा है उसकी उम्र १७ वर्ष है| दुखियारी माँ ने शोक में कह दिया कि वो लाश उसके बच्चे की है| फिर क्या था इमोशनल ब्लैकमेल के साथ पूरा शहर जल गया| किसी की अंतरात्मा शायद नहीं बची| और तो और राजनीति करने वाले तो मौके के तलाश में रहते हैं और शुरू हो जाती है राजनीती के गोटी सेकना| आग में घी डालने का काम भी शुरुआत कर देते हैं| आम लोग जो संवेदना की आड़ में लूट-पाट के मजे लेने के लिए शहर का शहर जला देते हैं उन लोगों का क्रांति या सामाजिक मुद्दों से कोई सरोकार नहीं| जिस छात्र का अपना कोई स्वविवेक नहीं होता उनके हाथों में तब तक क्रांति की मशाल नहीं दी जाती| मेरा मानना है समाज, देश और विश्व के हित में क्रांति की अनेक कथा और गाथा हैं परन्तु भारत में जिस तरह रोजमर्रे के घटनाओं को लेकर लोग अतिसंवेदनहीन हो जाते हैं एक घटना के बदले कई जानें चले जाना| छोटे पूंजी से बड़े पूंजी वाले लोगों की सारी उम्मीदें खाक हो जाएँ| यह सभ्य समाज के लिए उचित नहीं है| लोग सरकारी संपत्ति तो जलाते ही हैं लेकिन ये नहीं सझते कि इसमें गरीबों-किसानों का अहित है| इन सब घटनाओं का बोझ मानव समाज पर ही पड़ता है| जाति और धर्म, भाषागत, क्षेत्रवाद जैसे दंगे के साथ-साथ ऐसे घटनाओं में उपद्रवियों के लिए ब्रिटेन की तरह सख्त और कठोर कानून की आवश्यकता है, जो निश्चित समय के अंदर कठोर से कठोर सजा दें| विश्वविद्यालय का हाल देख लीजिये प्रोफेसरों और अन्य को लाखों तनख्वाह चाहिए| रिटायर्मेंट और सैलरी बढ़ने के लिए रोज आन्दोलन हो रहा है पर क्या कभी इनकी योग्यता की परख की गई? एक अत्यंत संवेदनशील अनुभवी प्रधानाध्यापक ने अपने लेख में लिखा है कि कई अध्यापक ऐसे हैं कि वे पढ़ा भी नहीं सकते क्योंकि वे अयोग्य हैं| पश्चिमी देशों में खास तौर पर अमेरिका में हर साल प्रधानाध्यापक, प्रोफेसरों को परफोर्मेंस रिव्यू प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है| उन्हें जज किया जाता है| इस औडिट के बाद ही उनका इन्क्रीमेंट (वेतन वृद्धि) तय होता है| बच्चों के परफोर्मेंस से भी शिक्षकों के इन्क्रीमेंट का सम्बन्ध है| भारत में ये शिक्षक पैदा कर रहे हैं अनएम्प्लौयेबल (अयोग्य ग्रेजुएट) परन्तु इनकी तनख्वाह हजारों में है| इन्हें हर साल वेतन वृद्धि चाहिए ही चाहिए| चीन ने हाल ही में टैलेंट पूल बनाया है| सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थियों को छांटकर अलग ढंग से प्रशिक्षित करने का प्रयास| मेरा मानना है कि भविष्य में प्रतिभा तय करने वाली है कि किस मूल्य की क्या हैसियत है| ओलिंपिक खेलों के लिए चीन में ४-५ वर्ष के उम्र से ही सख्त ट्रेनिंग का प्रावधान है| इसे एक हद तक क्रूर ट्रेनिंग कहा जा सकता है| जहाँ जज्बे का सवाल नहीं है| साधना और तप का सवाल है| हम अपने बच्चों को क्या परवरिस और माहौल दे रहे हैं| यह है बड़ा सवाल| चीन का सवाल उठेगा नहीं कि भारतीय तुरंत कह देंगे कि वहां व्यवस्था ही दूसरी है परन्तु भारतियों को समझना चाहिए वहां के शिक्षा में जो प्रावधान है वह डेमोक्रेटिक सिस्टम में भी संभव है| मुझे याद है एक बार राजनाथ सिंह यू.पी. में शिक्षा मंत्री हुआ करते थे उन्होंने मंत्री के रूप में एक ही काम किया जिसकी पहचान अखिल भारतीय सशक्त नेता के रूप में बन गई| उन्होंने कठोर निर्णय लिया, कक्षा १० और +२ में हम किसी कीमत पर नक़ल नहीं होने देंगे| राजनीतिक पार्टी के लिए वर्त्तमान समय में इतना कठोर निर्णय जब देश के हर प्रदेश में बिना काम किये, बिना नौकरी किये, बिना पढ़े सब कुछ पाने की होड़ लगी हुई है| सरकार खुद अपनी सस्ती लोकप्रियता और सत्ता में बने रहने के लिए आक्रामक बना रहा है, तब उस हालात में राजनाथ सिंह और उनकी पार्टी को बहुत महँगी पड़ी| अन्य विरोधी पार्टियों ने यह एलान कर दिया कि वे नक़ल की छूट देंगे| क्या आज के वर्तमान समय में सारे दल के लोग मिलकर ऐसे कठोर निर्णय ले सकते हैं जिससे हमारी शिक्षा की नींव मजबूत हो सके? प्रत्येक क्षेत्र में राष्ट्र या विश्व के निर्माण के लिए दलों में सामाजिक और मानवीय मुद्दों पर आम सहमती जरुरी है| और मेरा मानना है कि यह राजनीतिक दलों पर लोक या जन दबाव से ही संभव है| वर्त्तमान में हमारी सामाजिक या मानवीय नीति क्या है? क्या २१वीं सदी का समाज १९वीं सदी के सामाजिक नियमों से चलेगा? पहले लड़कियों या बच्चों में किशोर होने की उम्र थी १५ या १६ वर्ष, अब वे १२-१३ वर्षों में ही किशोर हो रहे हैं| परन्तु हमारी नीति नहीं बदली| एक ओर नया भारत कहता है कि पाश्चात्य भाव, भाषा, खानपान और वेश-भूषा का अवलंबन करने से ही हमलोग पाश्चात्य जातियों की भाँती शक्तिमान हो सकेंगे| दूसरी तरफ प्राचीन भारत कहता है मुर्ख नकल करने से कहीं दुसरे का भाव अपना हुआ है| बिना उपार्जन किये कोई वस्तु अपनी नहीं होती| क्या सिंह की खाल पहनकर गदहा  सिंह हुआ है? एक ओर नवीन भारत कहता है कि पाश्चात्य भारत जो कुछ कर रही है वही अच्छा नहीं है तो वो कैसे बलवान हो सकते हैं? दूसरी तरफ प्राचीन भारत कहता है कि बिजली की चमक तो खुद की होती है, पर क्षणिक| छात्रों, आपकी आँखें चौंधिया रही हैं| सावधान! जहाँ तक जानने और सीखने का सवाल है वह तो अनंत तक है| जब तक जिज्ञासा की भूख लगी रहेगी तब तक आदमी को सीखना चाहिए| लेकिन ये जिज्ञासा की भूख को जगायेगा कौन? माता-पिता और गुरु| एक तरफ हम पाश्चात्य से सीखने की बात करते हैं और दूसरी तरफ हम खुद के स्कूल में पुस्तकालय में नहीं जाते| शहरों में पब्लिक लाइब्रेरी किस हाल में है, प्रतियोगी परीक्षाओं की होड़ है पर सही अर्थ में ज्ञान पाने, खुद के व्यक्तित्व को विकसित करने का माहौल ही नहीं है| देश मे सांसद फंड, विधायक फंड या अन्य फंडों से लाइब्रेरी विकसित करने की योजना रहती है, परन्तु यदि गहराई से जांच की जाए तो इसमें भी भ्रष्टाचार और सरांध के तथ्य मिलेंगे| बच्चे-बच्चियों में सीखने की ललक है, कुछ कर पाने की हसरत है, परन्तु उस हसरत, सपने को जब तक हम अनुशासन, संस्कार और मूल्य में बांधकर नहीं देंगे बच्चों को, तो वे पीढियां नव मानव समाज की श्रृष्टि का आधार नहीं बन पायेगा| हम बोयेंगे नीम के बीज और खोजेंगे बबूल को, ये कहाँ से होगा? क्या दुनिया में यह कहीं संभव है कि सबकुछ सरकार के भरोसे, राजनीतिक दलों के भरोसे या अफसर के भरोसे छोड़ दिया जाए, तो समाज के पास अपना क्या दायित्व बचेगा? अपने निजी बुराइयों में डूबे रहना? उपभोक्तावाद में डूबे रहना? भौतिक सफलताओं के लिए अपनी नैतिकता और मानवीयता को खो देना| इस माहौल में आप कैसे सोचते हैं कि आपके लिए कोई दूसरा आपका सबकुछ कर दे, यह नामुमकिन है| आज केंद्र सरकार हर राज्य में अच्छे अफसरों की मांग करती है|  लेकिन कई राज्य में अच्छे अफसर नहीं मिलते| कोई राजा अशोक चक्रवर्ती जैसा प्रतिनिधि है नहीं कि राज्याभिषेक में समस्त दुनिया की सबसे खुबसूरत लड़की किसी राज्य के राजा ने उपहार स्वरुप उन्हें भेंट दिया था| जब उपहार को खोला गया तो अशोक आश्चर्य से चकित होकर कहते हैं कि कास ये मेरी माँ होती तो मै कितना सुंदर होता| परन्तु वर्तमान के राजा और जनप्रतिनिधि को फटेहाल में बेबस लाचार कोई गरीब भी दिख जाए अपनी हवस की भूख मिटाने से वे बाज नहीं आयेंगे| पहले ज्ञान से परिपूर्ण राष्ट्रिय सामाजिक मुद्दे पर संघर्ष करने वाले आम आदमी, सांसद, विधायक और जनप्रतिनिधि बनते थे अब तो अरबपति, खरबपति जनप्रतिनिधि बनते हैं, वे भारत के किस वर्ग के हित में बात करेंगे? कैसी पीढ़ी और संस्कार विकसित होंगे ऐसे जनप्रतिनिधियों के नेतृत्व में? कई तरह से आवाजें उठती हैं कि संसद जनप्रतिनिधि भ्रष्टाचारियों का अड्डा है| संसदीय लोकतंत्र में संसद सर्वोपरी संस्था है, पर इस संसद की छवि किन लोगों ने ख़राब की, यह चिंतनीय विषय है| ऐसे लोगों को चुनते कौन है? हम और आप जैसे लोग| ADR (Association For Democratic Rights) के आंकड़ों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि कैसे लखपति, करोड़पति सांसद बन रहे हैं| उससे भी अधिक दुखद प्रसंग है, ऐसे जनप्रतिनिधियों की संपत्ति ५-१० गुना बढ़ कैसे जाता है? इसका राज या मेकेनिज्म क्या है? यह कोई छुपी बात नहीं है| दशकों पहले हमने देखा और सुना सबसे अच्छा जनप्रतिनिधि वे माने जाते थे जहाँ झगड़े कम होते थे| यह भी देखा कि कई विधवाएं घर बना कर अकेले रहती थीं| पूरा गाँव उनका परिवार होता था| ख़ास तौर पर पूर्व में देखा या सुना जाता था कि गाँव में कोई व्यक्ति भूखा नहीं सोता था| मौत या शादी पर पास पड़ोस गाँव के लोग भी हाल बांटने के लिए तत्पर रहते थे| ऐसा समाज और ऐसे मूल्य थे हमारे| हम आगे जरुर बढ़ गए, सड़के और बिजली आ गई, लेकिन हम अकेले हो गए| माता-पिता बोझ बन गए| पहले किसी के पास अधिक पैसा होता था तो समाज की उस पर नज़र होती थी| गलत ढंग से पैसा कमाने वाले की समाज में इज्जत नहीं होती थी| अध्यापक और चरित्रवान लोग ही पूजे जाते थे| आज गाँव समाज में लोग सबसे सुखी और विलासिता में रहना चाहते हैं| परन्तु चुनते हैं भ्रष्टाचारियों, जाति और धर्म के नाम पर नंगा लूटने वाले आदमखोर को| कुर्सी, ताकत और दौलत जिसके पास हो वह सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति है| इससे परिवर्तन की उम्मीद कैसे की जा सकती है? गाँव में पहले सुभाष, विवेकानंद, भगत, असफाक, कबीर, ऋषि-मुनि को पूजते थे| उनके नामों को याद करके अपने बच्चों के नाम रखते थे| लोगों के भीतर इनका जो दर्शन था, उनके चरित्र, संस्कार और रास्ते पर चलने का जो प्रयास था, जिसके कारण बच्चों के भीतर ऊँचे संस्कार देखे जाते थे| आज शहरी या ग्रामीण समाज में सोशल औडिट रह ही नहीं गया है| किसी के पास किसी भी तरह से सत्ता और पैसा है तो वो पूज्यनीय है| हमने पाश्चात्य परिवर्तन के दौर में समाज के साथ-साथ परिवार को भी तोड़ दिया और नए विकल्प के रूप में कुछ भी नहीं रहा| इसलिए भारतीय समाज आज पूर्णतः लकवाग्रस्त हो चुका है| पिछले कई दशक से इंग्लैंड, अमेरिका, ब्रिटेन वगैरह पश्चिमी देशों में परिवार मजबूत करने के आन्दोलन चला रहे हैं| इस मुद्दे पर राष्ट्रीय चुनाव लड़े जा रहे हैं| पर हम पश्चिमी और यूरोपीय देशों के रास्ते चल रहे हैं| यूरोपीय समाज में २०० वर्ष पुरानी परंपरा है, सामाजिक सुरक्षा के अनेक योजनायें हैं| अगर बेटा या बेटी १८ वर्ष की उम्र में घर छोड़ता है या अपनी अलग जगह रहता है तो उसे सरकारी भत्ते मिलते हैं| बड़े-बूढ़े समाज से अलग भी हैं तो सरकार के ओल्ड एज होम में रहते हैं| अच्छी चिकित्सा पाते हैं| बच्चे या बूढ़े के लिए हमारे यहाँ इस तरह की कोई व्यवस्था नही है| यूरोप में परिवार, समाज सरकार की जिम्मेवारी है| वहां की व्यवस्था इन्सान को पालती है| परन्तु न्यूक्लियर फैमिली ने सारी व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया| नए सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था हमने अच्छे पैटर्न पर बनाये नहीं| अधिकांस सामाजिक बीमारियों के कारण या तो पाश्चात्य व्यवस्था है या अकेलापन| यहाँ सभी अंकल-आंटी हैं| बड़े मम्मी-पापा सभी गायब हैं| भारतीय व्यवस्था में ये सिर्फ रिश्ते नहीं थे बल्कि समाज बाँधने के सूत्र थे| कई ऐसे देश हैं जो आज परिवार बचाने के लिए आन्दोलन चला रहे हैं| जो सरकार द्वारा नहीं बल्कि आम आदमी द्वारा| उनके कैम्पेन का नारा हुआ करता है – “सेव द फैमिली नॉऊ”| दूसरी तरफ अश्वेत परिवार में तलाक दर को २५% घटाने की योजना है| एच.आई.वी. एड्स जैसी बीमारियों को घटाने के लिए आम आदमी द्वारा आन्दोलन चलाये जाते हैं| उच्च विद्यालय से निकाले जाने दर को भी घटाने के लिए आन्दोलन किये जाते हैं| वरिष्ट नागरिक की रक्षा और अमेरिका के २५ शहरों में वृद्धों के लिए आवास का निर्माण| क्या भारत में इस तरफ की योजना या चिंतन या इस तरफ के विचार आम आदमी या सरकार के पास है? आज जरुरत है इन सारे मुद्दों को लेकर जागने की, आम आदमी के विचारों में परिवर्तन लाने की| न की प्रचार के भूख के लिए दिल्ली के चौराहे पर हम एक-दुसरे को गाली देते रहें, कैंडल जलाते रहें, जिससे किसी भी समाज का कोई भला नहीं हो सकता| आइये मिलकर हम नई व्यवस्था, नये समाज का निर्माण करें ताकि नूतन और शोषण-भय मुक्त भारत का निर्माण हो सके|

Tuesday 19 June 2012

राजधर्म पर जातिवादी-आदमखोर-नायक भारी


राजधर्म पर जातिवादी-आदमखोर-नायक भारी



 जाति का इतिहास ३००० सालों का है| परन्तु जातिवाद का जन्म मेरी समझ से सौ-डेढ़ सौ साल पहले का है| मेरा मानना है कि १८५७ के बाद ब्रितानिया उपनिवेशवादी नीतियाँ, इसके प्रमुख कारण बने| लेकिन इसका आधारभूत कारण रहा हमारा स्वार्थ, निजी (कु)विचारधारा, अहंकार, जिद्द, जुनून रहा है|


हमारा सामाजिक अतीत हमें बताता है कि हमारे गाँवों में जातियां वहाँ की अर्थव्यवस्था की महत्वपूर्ण इकाई हुआ करती थी जो संबंधित जाति को रोटी की गारंटी देती थी|  जाति संगठन के रूप ब्यवस्थित नहीं हुआ करते थे| परन्तु १८५७ के दौरान देश में जातीय संगठन का उद्भव या जन्म अखिल भारतीय कायस्थ महासभा से हुआ| इसके बाद ब्राह्मण महासभा, भूमिहार महासभा और देखते ही देखते १९१२ तक आते-आते लगभग २० जातीय संगठनों का अस्तित्व भारत में बन चुका था| आज़ादी के लड़ाई के बाद आज़ाद  भारत का सबसे बड़ा सपना था आर्थिक संपन्नता, अमन, शांति और एक मजबूत लोकतंत्र की स्थापना| परन्तु आजतक भारत में सही अर्थ में लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सका| आज़ाद भारत में आज कोई भी आन्दोलन सामाजिक वर्गीकरण के तौर पर नहीं होकर जातीय एवं सांप्रदायिक तौर पर हो जाता है| इतिहास से हम सबक नहीं लेते, यही कारण है कि वो हमेशा अपने को दोहराता रहता है| यह सच है कि हिंसा के रास्ते किसी भी समस्या का सम्पूर्ण समाधान नहीं हो सकता| दो विश्व युद्ध हुए, संयुक्त राष्ट्र संघ बना, शांति के लिए हर दिशा में पहल की जाती रही| फिर भी हम कोलाहल में जीते रहे और उसमे खो जाते हैं|

शोषण, भेद-भाव, कर्मकांड, आडम्बर... जब तक गरीबी और अमानवीयता अस्तित्व में रहेगी, तब-तब भगवान बुद्ध को बार-बार धरती पर आकर परंपरागत व्यवस्था का विरोध करना होगा| ऐसे ही महापुरुष समरसता की नई राह बना सकते हैं| सम्राट अशोक ने धर्म के माध्यम से सामाजिक समरसता के  विकास का प्रयास किया था| यह सच है कि बिहार का अतीत, उसकी सामाजिक संरचना, भाईचारा और सौहार्द का रहा है| यहाँ का अतीत शानदार रहा है| बिहार ने हमेशा रचनात्मक पहल की है| आज का हिंदुस्तान जिस भाईचारे को लेकर गर्व करता है वो बिहार की ही देन है| गाँधी के द्वारा चम्पारण से चलाया गया आंदोलन सफल हुआ| भगवान बुद्ध, अशोक, वैशाली, नालंदा, विक्रमशिला, मंडन मिश्र, बाबू वीर कुंवर सिंह, राजेंद्र प्रसाद, ब्रज किशोर प्रसाद, शेर शाह सूरी, मौलाना अबुल कलाम आजाद, दिनकर-रेणु के साहित्य, भिखारी ठाकुर जी की देसी विरासत, मिथिला और भोजपुर की संस्कृति, अंगदेश का त्याग, लोरिक-सलहेस की कथा और गाथा, सामाजिक, आर्थिक, राजनितिक शोषण-दोहन के खिलाफ हमेशा से बिहार की अपनी पहचान बनी है| बिहार ने जहाँ एक तरफ देश भक्त पैदा किये हैं, वहीँ राजशाही, ज़मींदारी सामाजिक शोषण के खिलाफ बड़े-बड़े नायक को संघर्ष के प्रतीक के रूप में जन्म दिया है| बिहार में जो जाति व्यवस्था या सामाजिक व्यवस्था है उसका सबसे बड़ा, एक और, कारण भूमि व्यवस्था है|

भूमि-सुधार-कानून प्रभावी ढंग से लागू नहीं हुआ और महानायक कर्पूरी ठाकुर को छोड़ अब तक बिहार की सभी सरकारें अमीरों के लिए नीतियाँ बनाती रहीं हैं; समाज के अंतिम व्यक्ति के लिए नहीं| गरीबों के विकास के लिए आधारभूत संरचना को मजबूत नहीं किया गया| आज़ादी के बाद भारी मसक्कत के बाद भी गरीबों को दो वक्त की रोटी सही ढंग से नहीं मिल पाई| रोजगार की व्यवस्था नहीं हो सकी| यह एक सच है कि शांति स्थापना केवल समस्या के समाधान से ही हो सकता है| देश में जब तक, संवैधानिक प्रक्रिया के अंतर्गत, कोई भी सरकार अपने मजबूत इरादों से वंचितों, गरीबों, शोषितों को उनका हक, इन तबकों को सम्मान सुनिश्चित नहीं करेगा तब तक केरल, कर्नाटक, पंजाब, राजस्थान हो या बिहार या भारत का कोई अन्य राज्य, वहाँ जातीय और वर्ण व्यवस्था को खत्म नहीं किया जा सकता| मैं बहुत विनम्रता से उन अख़बारों और मीडिया के मालिकों से कहना चाहता हूँ कि आपके नज़रों में जाति व्यवस्था ८० या ९० के दशक में से दिख रही हों या अख़बारों या मीडिया में लिखने वाले तथाकथित संपन्न ऊँचे घरानों से ताल्लुकात रखने वाले लेखक को बिहार और उत्तर प्रदेश में जातिवाद का इतिहास दिख रहा हो| यह सच्चाई से बिल्कुल अलग है|

भारत में शोषण का सबसे बड़ा इतिहास दक्षिण के राज्यों और महाराष्ट्र, बंगाल सहित पूर्वोत्तर में देखने को मिला| मेरा मानना है कि किसी भी तरह का शोषण जातीय या वर्ण व्यवस्था को जन्म देता है| और एक बड़ा सच: जिन लोगों ने आज़ादी के बाद अपना एकक्षत्र अधिपत्य कायम किया, उन दलों के नेताओं के विचारधाराओं ने भी धीरे-धीरे जातीय व्यवस्था को मजबूत करने में काफी सहयोग दिया| राजस्थान का शोषण आज भी जीता-जागता उदाहरण है| राजस्थान के शोषण को याद कर आज भी मन-तन काँप जाता है| महाराष्ट्र के दलितों का अगर शोषण याद करते हैं तो आँसू रुकते भी नहीं रुकता| दैनिक जागरण के निशकांत ठाकुर जी जैसे सम्पादकीय लिखने वाले अनेकों पत्रकार पुराने इतिहास को भूलकर नए इतिहास को ताज़ा करने में लगे हुए हैं| क्या यह जातिवाद सामाजिक कु-व्यवस्था को जन्म नहीं देगा? कर्पूरी ठाकुर जी, स्व. जगदेव को गाली देने वाले लोगों को क्या भुलाया जा सकता है? क्या गुनाह किया था इन दोनों नायकों ने? आज़ादी के बाद जो सरकार बनी, उस सरकार को शोषण के खिलाफ और वंचितों  के अधिकार, उनके सम्मान के लिए अनवरत संघर्ष करने का काम किया|










यह बात सच है कि लालू यादव ने कभी “भूराबाल(भु-मिहार रा-जपूत बा-भन ला-ला) साफ करो” का नारा दिया था| जिसे सामाजिक और मानवीय दृष्टिकोण से स्वीकारा नहीं जा सकता| इसे कोई भी सभ्य समाज गलत ही कहेगा| लेकिन उस सच्चाई को भी नहीं नाकारा जा सकता, जब नारा दिया गया था कि “आरक्षण कहां से आई, कर्पूरी की माँ बीआई”| सच्चाई के दोनों पहलुओं को देखना चाहिए| बिहार के जातीय सच को जानने के लिए मैं आपको थोड़ा पीछे ले जाना चाहता हूँ| श्री बाबू की सरकार बनी, १५ सालों के सरकार में एक ही समाज के लोगों को आर्थिक, राजनितिक, सामाजिक पहचान मिली| डॉ. जगन्नाथ मिश्र की सरकार बनी| एक छोटे से लम्हे का जिक्र करना चाहता हूँ| मिथिला यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई| क्या कारण है कि एक ही समाज के लोग चपरासी से लेकर शीर्ष कुर्सी तक विराजमान हुए? भगवत झा आजाद की सरकार बनी| उनके काल में इंटरममीडिएट की स्थापना हुई| इसमें ९०% एक समाज के लोग चपरासी से लेकर शीर्ष कुर्सी तक स्थापित हुए| सत्येन्द्र बाबू मुख्यमंत्री बने| मगध यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई| अधिकांश पदों पर एक ही समाज के लोग स्थापित हुए| इन सरकारों का इतिहास उठा कर देख लें! जितने भी आयोग बने, सबके सब कमजोर, वंचितों, भूमिहीनों के विरोध में बने| इनका जीता-जगता उदाहरण आज भी इन सभी जगहों पर मिलता है| इतिहास के पन्नों में आज़ादी के बाद के सभी सरकारों के निर्णय आज भी लिखित में सर्वसुलभ हैं| सभ्य समाज के लोगों से मैं कहना चाहता हूँ कि बिहार के जातीय व्यवस्था को जानने के लिए नक्सलबारी आंदोलन के साथ-साथ जमींदारी व्यवस्था को भी जानना होगा| मैं ज्यादा अतीत में नहीं जाना चाहता हूँ लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि बिहार में नक्सली आंदोलन मूल रूप से भूमिसुधार और सामाजिक शोषण के खिलाफ था| यह कहना कि जाति व्यवस्था को जन्म माले, माओवादी या लालू यादव के आने के बाद हुआ, बिल्कुल ही गलत है|
बिहार में नरसंहार का इतिहास बहुत पुराना है| देश का सबसे चर्चित और सबसे पहला नरसंहार चंदवा रूपसपुर के बाद इतिहास ने पुन: १९७७ में बेलछी में १४ दलितों के हत्या एक पिछड़ी जाति के दबंगों के द्वारा जिस प्रकार किया गया, जिसके कारण जनता पार्टी सरकार की नींव हिल गई| इंदिरा गाँधी का हाथी पर चढ़कर और घुटने भर पानी में पैदल चलकर जान, इस नरसंहार को और भी चर्चित बना दिया| और तब से लेकर नरसंहारों का सिलसिला चलता रहा|१९८६ में अरवल नरसंहार से पूरा देश हैरान रह गया, जब पुलिस ने दिन-दहारे गरीब किसानो का नरसंहार किया| उसके बाद १९८७ में दलेलचक बघोरा में नरसंहार हुआ जिसमें ५२ राजपूतों की हत्या हुई| दबंग जाति के लोगों की हत्या एक पहली घटना थी| इसी तरह बाड़ा में १९९२ में ३४ भूमिहारों की हत्या दूसरी बड़ी नरसंहार थी| इसी १९७० के दशक के अंत में कई जाति आधारित निजी सेनाओं का गठन शुरू हुआ| इसमें ब्रह्मर्षि सेना, लोरिक सेना, सुनलाईट सेना, कुंवर सेना, किसान संघ प्रमुख थे| उस समय बिहार में तीन मुख्य संगठन भाकपा माले (लिबेरशन), पार्टी यूनिटी तथा एम.सी.सी. के पास खुद की हथियारबंद टुकडियां थीं| इनमे एम.सी.सी. सबसे ससक्त करवाई करता था| एम.सी.सी. और पार्टी यूनिटी हथियारबंद संघर्ष तथा हत्या की नक्सली विचारधारा को मानते हुए वर्ग शत्रुओं के सफाया को उचित और महत्वपूर्ण मानते थे| किन्तु लिबरेशन ने इस विचारधारा को त्याग दिया| १९८६ में लिबरेशन ने इन्डियन पीपुल्स फ्रंट नमक संस्था बना ली और खुली राजनीति में आ गए| इस बीच रामाधार सिंह ने स्वर्ण स्वर्ण लिबरेशन फ्रंट बनाया, जिसने १९९१ में सावनबीघा नरसंहार को अंजाम दिया| उसके बाद रणवीर सेना का गठन १९९४ में भोजपुर जिले के बेलाउर गाँव में हुआ| इसके प्रमुख बनाये गए ब्रह्मेश्वर उर्फ मुखिया|

रणवीर सेना एक मामले में ब्रह्मर्षि सेना और स्वर्ण लिबरेशन फ्रंट का नया अवतार था| इसकी नामकरण १९वीं सदी के भूमिहार योद्धा रणवीर चौधरी के नाम पर हुआ, जिन्होंने राजपूतों के खिलाफ मोर्चा खोला था| और उसके बाद शुरू होता है खूनी खेल| २२७ हत्या और २६ नरसंहार करने वाले मुखिया को उनके  विरोधी खूनी मानते हैं और उनके जात वाले उनको अवतार मानते हैं| नितीश सरकार के एक भूमिहार मंत्री ने तो उन्हें गाँधी की उपाधि दे दी| दूसरी तरफ लालू जी ने उन्हें किसान नेता कह दिया| मुखिया समर्थकों का तर्क है कि नक्सलवादी संगठन हिंसा कर रहे थे और लोग मारे जा रहे थे तो इन्होंने इसके परिपेक्ष्य में एक दस्ता तैयार किया जो आतंक को संतुलित बनाये रखे| जिनके कारण ही नक्सलियों की ओर से करवाई बंद हुई और सवर्ण लोग खेती करने लगे| जेल से निकलने के बाद इन्होंने खुलेआम बयान दिया कि सरकार जब जमींदार, किसान की रक्षा करने में नाकाम रहेगी तो लोगों के पास हथियार उठाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है| यही तर्क नक्सली भी देते हैं| सरकार जुल्म, अन्याय और शोषण को रोकने में अक्षम रही है तो हिंसा के अलावा कोई चारा नहीं है| नक्सलियों के पास अपनी सामानांतर व्यवस्था है जिसमे वे अपने हिसाब से न्याय या दोषियों को दंड देते हैं|
जो भी सरकार आई पूंजीवादी व्यवस्था को जन्म दिया| पंचायती व्यवस्था के लागू होने का बाद, जाति व्यवस्था को और बल मिला| सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक रूप से मजबूत किये बगैर इस समस्या का हल नही निकलने वाला है| समाज के निचले, कमजोर, वंचितों के बीच भी राजनीतिक भूख काफी प्रबल रूप से सशक्त हुई| जिनके कारण सेनाओं और वंचितों के बीच अपने अधिकार, सम्मान की लड़ाई, वर्चस्व की लड़ाई में परिवर्तित होता चला गया| राजनितिक दलों ने भी इसके खूब फायदे उठाए| देखा जाए तो बड़े राजनेताओं का जन्म जातिवाद के गर्भ से ही हुआ| यह एक सच्चाई है| और इस सच्चाई को राहुल गाँधी ने और बल दिया यह कह कर की “मैं पहले ब्राह्मण हूँ, और तब एक नेता”| राजनितिक दलों के नेताओं ने लोकतंत्र और जमात के विश्वास को छोड़ जाति की राजनीती करने लगे| जिसका नतीजा हुआ कि प्रत्येक जाति के लोगों ने अपने को संरक्षण देने वाले को हीरो मानने लगे, चाहे वह २२७ हत्याओं का आरोपी ही क्यों न हो| उनका मानना है कि ये तमाम अपराध उन्होंने उनकी रक्षा के लिए किया है|

इसी तरह से ब्रह्मेश्वर जातिगत लड़ाई में जाना-माना नाम के रूप में उभर कर आया| इनकी पहचान निजी सेनाओं के संरक्षक के रूप में बनी| १९९० के दशक के बाद पुन: जब नक्सली संगठन और बड़े जमींदारों के बीच संघर्ष बढ़ा या लड़ाई तेज हुई तो दक्षिण भारत में जमींदारों ने खासकर भूमिहार समाज के मुखिया के नेतृत्व में खूनी-भिरंत के लिए तैयार हुए| इधर भाकपा-माले, एम.सी.सी जैसे प्रतिबंधित संगठनों ने गरीबों की लड़ाई लड़ने का निर्णय लिया| ब्रह्मेश्वर मुखिया, कांग्रेस नेता जनार्दनराय राय, भोला सिंह, प्रो. देवेन्द्र सिंह, योगेश्वर सिंह, चौधरी छंछू, कमलकांत शर्मा, अवधेश सिंह आदि ने प्रमुख रूप से मुखिया के नेतृत्व में भूमिका निभाई| गाँव-गाँव जाकर भूमिहार वर्गों को जगाया|       लाइसेंसी हथियार से लेकर गैर-लाइसेंसी हथियार का इकठ्ठा किये जाने लगे| और शुरू हो गया दोनों तरफ से खूनी खेल| बेगुनाहों का कत्लेआम, किसानों और मजदूरों के नाम पर| दोनों संगठन सरकार के लिए चुनौती बन गए| भाकपा माले और एम.सी.सी. का विस्तार मध्य बिहार में तो था ही रणवीर सेना भी हिंसा-प्रतिहिंसा की बदौलत अपना विस्तार मध्य बिहार में कर दिया| १९९० के दशकों में रणवीर सेना ने बड़े-बड़े दो नरसंहार कर दिए| लक्ष्मणपुर बाथे में ५८ दलितों को मारकर ब्रह्मेश्वर मुखिया ने नायक के रूप में अपनी पहचान बनाई| इस घटना ने राष्ट्रीय स्तर पर पुन: जातिगत हिंसा को पहचान दिलाई| यह नरसंहार उन ३७ ऊँची जातियों के व्यक्तियों से जुड़ा था, जिसे बाड़ा नरसंहार कहा जाता है| बाड़ा नरसंहार में नक्सलियों  ने ३७ उच्च जाति के लोगों को मारा था| जिसके जवाब में यह अंजाम दिया गया| और यह सिलसिला दोनों तरफ से चलता रहा| दोनों संगठनों पर सरकार के द्वारा प्रतिबन्ध लगने के बावजूद भी यह नहीं रुका| सरकार की लुंजपुंज व्यवस्था और शासन पदाधिकारियों की भूमिका निष्क्रिय होती गई| इन सब कारणों से सेनाओं की सीधी टक्कर होती रही| अक्सर देखा गया है कि कोई भी सरकार हमेशा उच्च वर्गीय या सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक रूप से मजबूत वर्ग का साथ देती रही| लेकिन तब की लालू प्रसाद की सरकार निश्चित रूप से समाज के वंचित, गरीब, कमजोर के सरकार के रूप में जानी जाती रही| १५ सालों तक लगातार गरीबों, वंचितों, कमजोरों के वोट के बदौलत राज करने वाली सरकार कोई भी निर्णायक कदम नहीं उठाया| लालू यादव जी सरकार सिर्फ राजनितिक और सामाजिक रूप से ही गरीबों को ताकत दे पाई| मूल ताकत इन सरकारों में भी संपन्न और खुशहाल समाज के लोगों को ही मिली|

१५ साल किसी भी सरकार के काम करने के लिए काफी है| यह भी सच है कि लालू यादव की सरकार को कमजोर करने में पूंजीपतियों की प्रमुख भूमिका रही| लेकिन यह सच है कि लालू यादव ने आर्थिक, शैक्षणिक और रोजगार के मामलों में समाज के कमजोर तबकों के लिए कोई योजना नहीं बनायी| खासतौर पर यदि भूमिसुधार पर काम किया जाता तो मध्य बिहार में नरसंहार का दौर कभी नहीं होता| सिर्फ अपनी कुर्सी को बचाने के लिए उन्होंने सामाजिक समरसता को तार-तार होने दिया| उन्होंने राजधर्म को नहीं निभाया, सिर्फ वोट धर्म निभाया| धर्म, वोट धर्म के सामने कमजोर पड़ गया| नितीश की सरकार और नितीश जी ने भी यह साबित कर दिया कि वोट धर्म ही सर्वोपरि है, राजधर्म नहीं| वैसे नितीश जी अपने पहले काल में वोट धर्म का नंगा खेल खेल चुके हैं| अमीरदास आयोग कमिटी को भंग करके, सामाजिक न्याय के महानायक कर्पूरी ठाकुर के दत्तक पुत्र के रूप में लालू यादव के साथ नितीश जी का भी नाम आता रहा| कर्पूरी ठाकुर का चोला पहनकर उनकी विरासत का दंभ भरने वाले दो खलनायक सामाजिक न्याय तो तार-तार होने दिए| एक तरफ जहाँ कर्पूरी जी को गाली देने वाले मुट्ठी भर ताकत से नितीश ने हाथ मिलाया| वहीँ स्व. जगदेव को लाठियों से मार देने वाले ताकतों ने नितीश को महानायक बना दिया| रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था| ठीक उसी तरह २२७ लोगों का नरसंहार करने वाले व्यक्ति के शव को महानायक बनाने वाले राजनीति के तहत मध्य बिहार से पटना लाया गया, और नितीश जी भागलपुर और किसनगंज में बंसी बजाते रहे| आज तक इस सन्दर्भ में एक भी बयान नहीं दिया| ७ साल की इनकी सरकार में इन्होंने कमजोरों, वंचितों पर लाठी चलवाया|

यह सच है कि लालू जी को ९० के दशक में जो उभार मंडल कमीशन, वी.पी सिंह, मुलायम सिंह, शरद यादव, राम विलास के नेतृत्व में मिला, वह उभार नितीश जी के आने के बाद नहीं मिला| लालू यादव यदि सामाजिक व्यवस्था के उभार के रूप में जाने गए तो नितीश जी जातीय व्यवस्था के उभार के रूप में| लालू की बोली ने लालू को उच्च जातियों का विरोधी बना दिया| तो नितीश की करनी ने बिहार के वंचितों और गरीबों को कमजोर किया| दलित, महादलित, पिछड़ा पसमांदा मुसलमानों का नारा, पिछड़ा, अति पिछड़ा का नारा, जातीय व्यवस्था को काफी मजबूत करने का काम किया| जाति व्यवस्था को खत्म करने का दावा करने वाले नितीश जी जातीय जनाधार वाले नेता, भले ही उसके खिलाफ कितना ही संगीन-संगीन अपराधिक मुकदमा चल रहा हो, को ही टिकट क्यों देते हैं? रणविजय सिंह, मुन्ना शुक्ला, सुनील पांडे, अनंत सिंह जैसे गंभीर अपराधिक छवि और पृष्ठभूमि वाले, जाति विशेष के नेताओं को क्यों टिकट दिया? अगर उन्हें अपने विकास की राजनीति पर इतना ही भरोसा था तो किसी अन्य बुद्धिजीवी नेता अथवा पार्टी कार्यकर्ता को वहाँ का टिकट दे देते! सिवान और मधुबनी का उपचुनाव नितीश जी की जातीय व्यवस्था को समझने के लिए काफी है|



मेरा मानना है कि कोई भी हत्या किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता| मैं ब्रह्मेश्वर जी की अच्छाई या बुराई गिनने नहीं आया हूँ| परन्तु एक सच्चाई, चाहे वह सच्चाई अपने अधिकार, सम्मान या संपत्ति की रक्षा करने का क्यों ना हो| ब्रह्मेश्वर जी पर २२७ हत्या के मुक़दमे हैं| निशिकांत ठाकुर ने लिखा है कि माले, एम.सी.सी. आदि पार्टियों ने जिस तरह से मध्य बिहार के जमींदारों के परिवारों के साथ घिनौना खेल खेला, इसके प्रतिक्रिया स्वरुप ही ब्रह्मेश्वर मुखिया जैसे व्यक्ति का जन्म हुआ|| आज़ादी के बाद ही नहीं आज़ादी के पहले से ही वंचितों, गरीबों, कमजोरों, की बेटियों के अस्मत के साथ खेला गया| इतिहास में अंकित वह घिनौना अत्याचार, शोषण इन्हें याद नहीं आया| और जो इन्हें याद आया, उसे लिखा नहीं जा सकता| उसकी जितनी भी निंदा की जाये कम है| मैं ऐसी घटनाओं का पूर्णत: ही नहीं सम्पूर्ण रूप से निंदा करता हूँ| एक गरीब का पक्का मकान बनाने के लिए अमीरों का दुमहला मकान तोड़ना जरुरी नहीं है| उसके लिए सरकार की नीतियाँ जरुरी हैं| लेकिन ब्रह्मेश्वर मुखिया के बाद लगातार १५ दिन जिस तरह से सरकार और मीडिया के लोगों ने सोची-समझी राजनीति के तहत एक व्यक्ति को महानायक बनाने की  कार्य योजना बनाई| वह किसी भी सभ्य समाज या सामाजिक समरसता या लोकतंत्र के लिए सही नहीं ठहराया जा सकता| एक मौत और मीडिया और सरकार का नंगा खेल – १५ दिनों तक| लगा कि जैसे भगत सिंह, गाँधी, सुभाष, राजनायक कर्पूरी दुबारा पैदा ले लिए| मीडिया या सरकार के लिए यह चिंता का विषय नहीं है कि ६० अधिक गरीब बच्चों की मौत एक बीमारी से मुजफ्फरपुर में हो जाती है, और यह बीमारी हर रोज सूबे के अन्य जिलों में फैलती जा रही है; पर न तो सरकार को या उनके स्वास्थ्य महकमे को इसकी चिंता होती प्रतीत हो रही है और न ही मीडिया हाय-तौबा मचाती है जैसे कि बरमेश्वर मुखिया के मौत पर मीडिया पेज दर पेज रंगती रही| राजधानी पटना में प्रत्येक दिन आधे दर्जन लोगों की हत्या कर दी जाती है, प्रमोद जैसे बड़े व्यवसायी की दिन दहाड़े हत्या कर दी गई और सरकार और मीडिया दोनों ही मौन रही| कई शहरों में दर्ज़नों छात्राओं को बेच दिया जाता है और सुशासन के प्रशासन उसे प्रेम-प्रसंग बता कर रफा-दफा कर देते हैं| दर्ज़नों-दर्ज़न बच्चियों को बलात्कार करके मार दिया जाता है और परन्तु सरकार मूक दर्शक बन बनी रहती है| सूबे में आये दिन कहीं न कहीं, किसी निर्दोष व्यक्ति की पुलिस हिरासत में मौत हो जाती है; चिकित्सकों की लापरवाही से सैकड़ों लोग प्रतिदिन मर रहे हैं, जिसका उदाहरण राजधानी पटना का पी.एम.सी.एच. है| मीडिया को भी इनकी चिंता नहीं है| चिंता है तो सिर्फ और सिर्फ वोट की| सभी नेताओं ने एक स्वर से कहा सामाजिक न्याय के पुरौघा है बरमेश्वर  मुखिया| किसी ने गाँधी, तो किसी ने महानायक, तो किसी ने सहजानंद सरस्वती से तुलना कर दी|

मेरा यह नहीं कहना है कि आप अपने विचारों के प्रति स्वतंत्र नहीं रहें, यह आदि युग से चला आ रहा है| जिससे खुशी प्राप्त हुई उसी को भगवान माना, जिससे भय हुआ उसी को भगवान माना| सर्प की पूजा भय के कारण शुरू हुई, सूर्य की पूजा रौशनी देने के कारण हुई| जिसकी भी पूजा लोग करते हैं उसके पीछे स्वार्थ भी एक बड़ा कारण है या कहिये प्राप्ति का कारण| आप देखते होंगे जब किसी गरीब की कोई अमीर पैसे आदि से विपत्ति में मदद कर देता है, तो वह तुरंत भगवान उसे भगवान बना देता है| मनुष्य तो आवश्यकता या अभाव के अनुसार किसी भी मनुष्य को भगवान या मसीहा बना देता है| आप देखते होंगे जितने भी कोर्पोरेट घरानों के पूंजीपति हैं, गरीबों को लूटकर अमीर बनते हैं, फिर अपने ब्लैक मनी को व्हाईट करने के लिए कुछ अंश मंदिर या अनाथालय को क्या दे देते हैं कि वे तुरंत लुटेरे से महापुरुष हो जाते हैं, और उनकी जयजयकार होने लगती है| उसे आप भी करें, आप भी तो मनुष्य ही हैं, लेकिन उसे सामाजिक रूप से महिमामंडित नहीं करें तो समाज के लिए बहुत अच्छा होगा|

मीडिया माध्यम से आप देखे होंगे कि जाति विशेष के छात्रों ने होस्टल छात्रावासों से निकल-निकलकर कैसा उत्पात मचाया| छात्रवासों के सैकड़ों आई.ए.एस., डॉक्टर आदि बनने वाले आदर्शवान छात्रों ने जाति के कारण ब्रह्मेश्वर जी की जयजयकार लगाते हुए उत्पात मचाया| मीडिया ने भी ‘आरा से पटना तक की शव यात्रा’ ऐसे विस्तार से कवर किया कि ऐसा लगा कि जैसे गाँधी या आज़ाद का शव निकल पड़ा है| राजनीति के बारे में तो सर्वविदित है कि यहाँ अवसरवादियों का बोलबाला है लेकिन मीडिया तो बुद्धिजीबियों का क्षेत्र समझा जाता है| आम जनता मीडिया के बातों पर बिना कुछ सोचे-विचारे भरोसा करती है और ऐसे में जब मीडियाकर्मी अपना जातिवादी रंग दिखाएगे, जैसा कि बरमेश्वर मुखिया के हत्या के बाद दिखा दिया तो हमारा समाज कहाँ जाएगा |





४०० से १००० उत्पाती नौजवानों वाली क्रांति, जैसे द्रौपदी का चीर-हरण हो रहा था और पांडव मूक दर्शक बने बैठे थे वही हाल पटना शहर का था उस दिन| पटनावासी लुट रहे थे और सरकार और प्रशासन मूक दर्शक बनी बैठी थी| क्यों आप मुखिया को महानायक बनाना चाहते हो? सिर्फ वोट के लिए? मुखिया के मौत से उनके परिवार में काफी शोक का माहौल है, इसकी चिंता शायद ही किसी को सताई होगी| बस, सभी दल के नेताओं को भूमिहार समाज का वोट चाहिए था| सभी की छटपटाहट सिर्फ वोट की थी| कौन कितना मुखियाजी की चमचागिरी कर सकते हैं, बस इसकी होड़ लगी हुई थी| इस बयानवाजी से नौजवानों पर क्या असर पड़ेगा, इसकी चिंता किसी को नहीं| चिंता बस इस बात की सता रही है थी कि कैसे वे रातोंरात भूमिहार समाज के इकलौते नेता हो जाएं| जो लोग जिन्दा रहते मुखिया जी से मिले नहीं होंगे या कहिये कि वे भूमिहार समाज के विरोधी रहे होंगे वे ही लोग सबसे बड़े सिपेसलाहर बनने की कवायद करने लगे| याद रखियेगा मुखिया जी के पुत्र और परिजन! देश के लिए लड़ने वाले भगत सिंह के परिवार का जब कोई नहीं हो सका, बॉर्डर पर शहीद होने वाले सिपाही के परिवार को जब मेडल बेचकर गुजारा करना पड़ रहा हो, संसद बचाने वाले सिपाही के परिवार की स्थिति जब दयनीय हो सकती है, कर्पूरी ठाकुर के परिवार को जब भुलाया जा सकता है, तो आपको भूलने में इन्हें कितना वक्त लगेगा? यह सब दिखावा सिर्फ वोट के लिए है| किसी ने उन्हें गाँधी की संज्ञा दी, तर्क है कि न्यायालय से १६ नरसंहार में बरी हो गए थे और मात्र ४ ही बाकी रह गए थे| मेरा मानना है कि जब तक वोट की राजनीति रहेगी या कहिये कि सी.पी.ठाकुर जी जैसे लोग भाजपा के अध्यक्ष रहेंगे, भूमिहार समाज के बदौलत जब तक नितीश जी की सरकार बनी रहेगी, तो क्यों नहीं एक के बाद एक सब साक्ष्य के अभाव में बरी होते जाएंगे| नितीश जी का त्वरित न्यायालय सिर्फ गरीबों और पीड़ितों के लिए ही बना है? आप सात साल का इतिहास उठा कर देखें कितने लोगों को कोर्ट से सजा मिली या कहिये कि सजा पाने वाले बहुसंख्यक लोग किस जाति के हैं| उसमे दलित, अल्पसंख्यक, अतिपिछड़ा जाति के कितने लोग हैं| डी.पी. यादव के बेटे को जब बरी किया गया तो, सुओ-मोटो नोटिस ले लिया गया| इस तरह कितने मामलें हैं जिसमे कोर्ट स्वयं ही मीडिया के कारण हस्तक्षेप करती है| फिर माननीय न्यायालय ने ब्रह्मेश्वर जी के केस में चिंता क्यों नहीं दिखाई? सरकार को पुन: साक्ष्य जुटाने को क्यों नहीं कहा गया? अमीरदास आयोग के रिपोर्ट पर जब रोक लगा, तो न्यायालय ने सरकार के गलत निर्णय में क्यों नहीं हस्तक्षेप किया? अगर सरकार सही तरीके से साक्ष्य देती तो ना ही गलत करने वाले बचते और ना ही घटना घटती| नरसंहार किसी का भी जाती या समुदाय का हो, किसी भी संगठन के द्वारा हो, क्या इसे जायज ठहराया जा सकता है? कभी नही| मासूम छोटे बच्चे, जिन्हें ना तो जात का पता, ना ही पिता का, ना ही दुनिया का, फिर उसका क्या दोष? बेबस महिलाओं का क्या दोष? जिनका बलात्कार करके गुप्तांग में गोली मार दी गई| मृत्यु सैया पर पड़े बुजुर्ग को गोली मार दी जाती है| क्या कुसूर है इनका, क्या भूमिसुधार के लिए ये ही जिम्मेवार हैं? इन महिलाओं और बच्चों ने क्या गुनाह कर दिया? व्यवस्था का दोष होता है, सरकार नीतियाँ नहीं बनाती है, सरकार सामाजिक समरसता को ताड़-ताड़ करती है| राजनेता इसके लिए सबसे बड़े जिम्मेवार हैं जो अपने मौलिक कर्तव्य को भूल जाते हैं| जो वोट के लिए न जाने कितने गंदे खेल खेलते हैं| जात को खुश करना सिर्फ प्रवृति भर रह गया है| आप लड़िए व्यवस्था से, इतना ही क्रन्तिकारी थे मुखिया जी या एम.सी.सी., या माले के क्रन्तिकारी तो फिर क्यों नहीं आप सभी दोषियों के खिलाफ लड़े? मंत्री जो जनप्रतिनिधि भी होते हैं, जनता के प्रति प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेवार होते हैं तथा प्रशासनिक अधिकारी जो मुख्य रूप से लोकसेवक होते हैं ये सब ‘लोक’ और ‘जन’ को भूले बैठे है, और मुख्यमंत्री जो सदा गरीबों-किसानो को न्याय दिलाने की बात करते हैं...व्यवहारिक जिंदगी में गरीब को भूल जाते हैं और किसानों की रक्षा नहीं कर पाते हैं| कानून के मुताबिक आज भी भूमिसुधार का मतलब नहीं रह गया, फिर अलग से लड़ाई क्यों?

मैं यह नहीं कहता कि आप सरकार या मंत्री या व्यवस्था के खिलाफ हथियार उठा लें, परन्तु यह जरूर कहूँगा कि अगर आपमें इतना ही क्रांति करने की कूबत है या ताकत है तो भगत सिंह की तरह मिलकर व्यवस्था पर चोट कीजिये! मुझे महान आश्चर्य और घोर निराशा तब हुई जब नितीश जी एक शब्द भी बोलने के तैयार नहीं हुए| उनकी समर्थित पार्टी भाजपा मानो पागल हो चुकी है कि भूमिहार समाज का वोट बैंक हम बटोर कर ही रहेंगे| आखिर मीडिया पन्द्रह दिनों तक क्या लिखा- इस चौक पर महिलाओं ने फूल माला चढ़ाया, यहाँ पानी का व्यवस्था था| विधायक को पीटा, सी.पी ठाकुर के गाड़ी का शीशा फोड़ दिया...ब्रह्मेश्वर जी क्या पढे, क्या खाए, जेल में कैसे रहते थे, निकले तो मंदिर गए, पूरा बदल चुके थे, किसानों की लड़ाई लड़ते थे, काफी असाधारण थे मान लिया, वे सब कुछ थे और भी ज्यादा अच्छे थे, उनके अंतिमसंस्कार में कौन-कौन लोग पहुंचे, कौन खाए, किसने गाँधी कहा, किसने पुरौघा कहा, दूध कौन लाया, गाँव के लोग क्या कहते हैं...यह सब क्या था!? पत्रकारिता का निम्नतम स्तर या किसी पार्टी विशेष का मुखपत्र बनने के लिए १५ दिनों के लिए बिक गयी थी सूबे की पत्रकारिता? हुआ क्या था हमारे सूबे के मसिजीवी पत्रकारों को?
२२७ हत्या और २० नरसंहार, साथ ही गुप्तांग में गोली मारने वाले को सभ्य समाज आदमखोर ही कह सकता है| आने वाला समय उसे अलग ही याद करेगा| बहुसंख्यक आबादी उसे आतंकवादी, आदमखोर ही कहेंगे| मुट्ठी भर जमींदार, सामंती मानसिकता के लोग मसीहा कहेंगे|

बिहार में जातीय संघर्ष कोई नया नहीं है| इसका एक उदाहरण १९९० में डी. बंधोपाध्याय द्वारा दिया गया भूमिसुधार पर दिया गया रिपोर्ट है| इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष १९६५ से १९८५ के बीच जो भी नरसंहार हुए उनका मूल कारण भूमिसुधार की समस्या थी| अपने रिपोर्ट के प्रारम्भ में ही डी. बंधोपाध्याय ने स्पष्ट किया कि बिहार आज भी बमों के ढेर पर टिका है जो कभी भी फट सकता है| यह बंधोपाध्याय का साहस ही था कि उन्होंने सारे नरसंहारों के पृष्ठभूमि का वर्णन किया| मसलन यह कि किस नरसंहार में किस जाति के लोग आक्रमणकारी थे और किस जाति के लोगों का रक्त बहा| इनकी रिपोर्ट को देखें तो अधिकांश मामले आक्रमणकारी जातियों की सूची में एक पिछड़ी दबंग जाति का उल्लेख मिलता है| संभवत: यही वजह है कि नितीश सरकार ने इस रिपोर्ट को ठंढे बस्ते में डाल दिया| ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि इसी पिछड़ी दबंग जाति और सामंतवादियों के बीच गहरा याराना हुआ करता था| बाद में जब, पन्द्रह वर्ष पश्चात लालू के सरकार की विदाई हुई, इसके पीछे भी इसी पिछड़ी दबंग जाति और सामंतियों के बीच गटबंधन मुख्य वजह थी| सरकार में आते ही नितीश जी मुखिया को तक़रीबन हर आरोप से मुक्त करा दिया| जिसका नतीजा हुआ कि मुखिया नौ वर्ष बाद जेल से रिहा कर दिया गया| नितीश सरकार ने बथानी टोला नरसंहार के मामले में अदालत को यहाँ तक गुमराह किया कि मुखिया फरार है| इस आधार पर उसके केस को बाकी से अलग कर दें! यही वजह रही की आरा के अदालत ने जब अभियुक्तों को सजा सुनाया तब मुखिया जी का उसमे नाम नहीं था| संभवत: इसी आधार पर पटना हाई कोर्ट ने निचली अदालत का फैसला रद्द करते हुए सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया| हाई कोर्ट के फैसले ने बिहार सहित सभी राज्यों में खलबली मचा दी| सरकार की दोहरी नीति के कारण लोगों ने न्यायालय पर सवालिया नज़र लगाते हुए प्रतिक्रिया दी| खासतौर पर लोगों ने सवाल उठाया कि जब सभी अभियुक्त बरी हो गए तो बथानी टोला के लोगों की हत्या किसने की| इस फैसले के बाद बिहार की राजनीति में भूमिहार समाज का वर्चस्व एक बार फिर से जगजाहिर होने लगा| खासतौर पर नितीश सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल ब्रह्मर्षि समाज के एक मंत्री ने यहाँ तक कह दिया कि यदि बिहार सरकार ने न्यायालय के इस आदेश को चुनौती दी तो राज्य का माहौल खराब हो जाएगा| जबकि गिरिराज के कहने से पहले ही सरकार के एक मंत्री जीतन मांझी ने १७ अप्रैल को देश की राजधानी दिल्ली में केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम की अध्यक्षता में दलित अत्याचार निवारण अधिनियम में संशोधन विषयक बैठक में कह दिया था कि बिहार बथानी टोला मामले में हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी| परन्तु राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो नितीश जी के डोलते मिजाज ने ब्रह्मेश्वर मुखिया को अपना राजनितिक आधार तो दिया ही साथ-साथ बथानी टोला नरसंहार मामले को रद्दी की टोकरी में डालने की बेहतरीन साजिश रची| नतीजा हुआ कि ब्रह्मेश्वर मुखिया ने निकलते ही पुन: पुराने किसान संगठन को स्थापित किया| दो महीने में ही उन्होंने कई जगह बैठक की| नितीश सरकार के विरोध में सार्वजनिक भाषण तक दिया| विश्लेषकों का मानना है कि उनकी बढती लोकप्रियता के कारण ही उनके जाति के द्वारा ही उनकी हत्या की योजना बनाई गई| वैसे एक सवाल यह उठता है कि अपराधियों ने हत्या उसी दिन क्यों की जिस दिन नितीश जी पटना में नहीं थे? साथ-साथ सरकार के शीर्ष पर बैठे वे कौन लोग थे जो विगत २ जून २०१२ को मुखिया के लाश को लेकर बतौर राजनीति इस्तेमाल किया| इसके पीछे क्या मंसा थी? अन्त्योष्ठी के लिए मुखिया के लाश को आरा से पटना लाना, खासतौर पर जब यह पता था कि मुखिया समर्थक और जमींदार समाज के लोग शक्ति प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल करेंगे| पूरे रास्ते मुखिया समर्थकों ने कहर बरपाया| बिहार की राजधानी पटना में भी भयानक उत्पात मचाया| इस घटना ने समाज के बीच सबसे बड़ा सवाल खड़ा किया कि जिस सुशासन ने २ मई २०१२ को औरंगाबाद जिले मुख्यालय पर विपक्ष के द्वारा किये गए प्रदर्शन करने वालों पर गोली-बारी की थी, उसने २ जून २०१२ को पटना में उत्पती प्रदर्शनकारियों पर कम-से-कम आंसू गैस या लाठीचार्ज जैसे कानून सम्मत कार्रवाई से भी क्यों हिचकी? एक तरफ नितीश जी ब्रह्मेश्वर जी की हत्याकांड की जांच जो सी.बी.आई. को देने में तत्परता दिखाई, उतनी ही उत्सुकता फारबिसगंज गोली कांड, पटना में बिनोद व्यवसायी की हत्या और औरंगाबाद की घटना की सी.बी.आई. से जांच के लिए तत्परता दिखाए होते तो सुशासन की पोल खुल गई होती और समाज के सामने सुशासन नंगा हो गया होता| मुखिया के हत्यारे चाहे जो भी हों, इतना तो तय है कि बिहार में जातीय संघर्ष एक नए रूप में फिर सामने आयेगा| एक तारीख के बाद १३ तारीख तक भाजपा प्रायोजित न्यूज को जिस तरह मीडिया ने जिस तरह महिमामंडित किया बिहार और पूरे देश में जिस तरह भाजपा समर्थित और भूस्वामी सामंतवादी समर्थित नौजवानों ने सरकार के सह पर उत्पात मचाया| उससे ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाले समय में यह संघर्ष पहले जैसा भले ना हो परन्तु इसकी धार उससे कम भी नहीं होगी| विश्लेषकों एवं समाजवाद और लोकतंत्र में विश्वास रखने वालों का मानना है कि बिहार में नितीश और भाजपा समर्थित सरकार आने के बाद जिस तरह से सामंतवादी लोगों का आतंक और मनोबल बढ़ा, वह वंचित समाज के लिए एक बार पुन: चिंता का विषय है| मध्य बिहार में मुखिया समर्थक सरकार को जिस तरह खुली चुनौती दे रहे हैं वह भविष्य के लिए चिंता का विषय है|