Monday 27 February 2012

प्रेम ही धर्म का सार है


नीत्शे ने करीब १५० वर्ष पहले कहा था कि दुनिया के हर कोने में यह खबर फैला दी जाए कि ईश्वर का अस्तित्व खत्म हो गया है तो, तो भले ही ऐसा ना हुआ हो, लेकिन मानवता अवश्य ही मृत्यु की ओर अग्रसर हो जाएगा| कहते भी हैं कि जो समाज ईश्वर से अपना संबंध तोड़ लेता है, वह ज्यादा दिन जिन्दा नहीं रह सकता| जिस समाज की जड़ ही यदि खत्म हो जाए, वह ज्यादा दिन ज़िंदा रह भी कैसे सकता है| ओशो कहते हैं, “जो लोग धर्म से संबंध तोड़ लेते हैं, उनके भीतर सिवाय दुःख के कुछ नहीं रहता और जो स्वयं दुखी हो, वह दूसरे को सुख क्या देगा|”

धर्म का संबंध परलोक से उतना नहीं है, स्वर्ग और नर्क की अवधारणा से उतना नहीं है, ईश्वर में विश्वास-अविश्वास से भी उतना नहीं है, जितना कि मनुष्य के भीतर शांतिपूर्ण संगीत को उत्पन्न करने से है| धर्म एक वैज्ञानिक पद्धति है जिसके द्वारा मनुष्य आतंरिक स्वास्थ्य पाता है| धर्म का संबंध हिंदुत्व, इस्लाम या ईसाइयत से नहीं है|

धर्म एक व्यक्तिगत उपलब्धी है, जिसे माता-पिता से नहीं पाया जा सकता बल्कि इसे स्वयं ही साधना होता है| नामों के कारण जो बंटवारा होता है, उसके वजह से वास्तविक धर्म की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता| यह धर्म कोई विशेषण वाला धर्म नहीं है, धर्म की स्वीकृति इस बात से शुरू होती है कि हम इस तथ्य पर विचार कर लें कि मनुष्य पैदाइश से ही पूर्ण नहीं है, अधूरा है| मनुष्य को स्वयं ही अपने सभी संभावनाओं को विकसित करना होता है, और तब यह हो सकता है कि मनुष्य के भीतर ठीक अर्थों में मनुष्य का जन्म हो| एक जन्म माता-पिता से मिलता है और दूसरा जन्म धर्म से मिलता है|



ओशो के अनुसार, धर्म के विचार की शुरुआत इस भावना, इस दृष्टि से होती है कि हम समझें कि हम जैसे हैं, वही पर्याप्त नहीं है| जो लोग अपनी प्राकृतिक स्थिति से तृप्त हो जाते हैं, वे कभी विकास नहीं कर सकते| धर्म एक गहरी अतृप्ति है, एक दिव्य प्यास और असंतोष है| कुछ लोग कहते हैं कि धर्म संतोष सिखाता है, लेकिन संतोष नहीं सिखाता| इसलिए धर्म की शुरुआत हमेशा एक आतंरिक असंतोष से होती है और यह असंतोष इस विचार से पैदा होता है कि हम जैसे भी हैं, वही हमारी नियति नहीं है| मनुष्य अपनी इस नियति का अतिक्रमण कर सकता है, अशांत है तो शांत हो सकता है, दुखी है तो आनन्द को पा सकता है, अंधकार में है तो प्रकाश में आ सकता है| कैसे दुःख आनंद में परिणत होगा, कैसे अशांति शांति में बदलेगी, कैसे अंधकार प्रकाश बनेगा, कैसे अराजकता में संगीत पैदा होगी, इसी वैज्ञानिक पद्धति का नाम धर्म है| ऐसे धर्म का संबंध किसी अंधविश्वास से नहीं होगा|

यह प्रेम का धर्म होगा, विवेक का धर्म होगा और ऐसा तब होगा जब भीतर के चक्षु खुल जाएंगे और जिस व्यक्ति के अंतस चक्षु खुल जाएंगे, उसे प्रेम का विस्तार करना होगा, फैलाना होगा उसे| प्रेम के विस्तार का नाम ही अहिंसा और करुणा है| तो इस धर्म का पहला सूत्र है, प्रेम का प्रकृति में विस्तार| दूसरा सूत्र है, प्रेम का समाज में विस्तार| प्रेम हम सब करते हैं, लेकिन एक दायरे में करते हैं और संस्थाबद्ध धर्म के तथाकथित धार्मिक लोग हमेशा प्रेम का विरोध करते हैं| लेकिन कोई धार्मिक व्यक्ति प्रेम का विरोध कैसे कर सकता है? उसे तो प्रेम के विस्तार की बात करनी चाहिए! उसे प्रेम के उस दायरे तो तोड़ने की बात करनी चाहिए जिसमें हम बंधे हैं| यही तो धर्म का सार है|

Tuesday 21 February 2012

प्रेम और एकता


प्रकृति का प्रत्येक कृत्य – प्रेम और एकता पर आधारित है| यह स्वयं में अगाध प्रेम की नीधि है| इसलिए इसका प्रकोप अस्वभाविक है| प्रकृति स्वयं ‘प्रेम’ का पाठ सिखाती है| इसका क्रोध नकारात्मक भाव का परिणाम है| जीवन का स्वास्थ्य विज्ञान – प्रेम रसायन के अनुपात पर आधारित है| प्रेम के अतिरिक्त कोई अन्य विषय समर्थ नहीं हो सकता| इसे भलीभाँति समझने की आवश्यकता है और समझाने की भी| जीवन का हर प्रकोष्ठ – प्रेम का अद्भुत स्वरुप मात्र है| घृणा तो प्रेम का ऋणात्मक प्रभाव प्रदर्शित करता है| प्रेम के बीजारोपण में त्रुटि हो सकती है, प्रेम में नहीं| प्रेम का अनुशीलन, भौतिकता की सबसे बड़ी उपलब्धी है, जिसे प्राय: रेखांकित किया जाता है कि ‘प्रेम किया नहीं जाता, हो जाता है’| निश्चय ही यह गहरा भाव है| इसका अर्थ सुस्पष्ट है| कभी-कभी प्रेम बुद्धि को निरस्त करता प्रतीत होता है, लेकिन प्रेम अंधा नहीं होता| यह सहज प्रहरी है, पारस्परिक एकता का| एकता का श्रोत प्रेम है, इसलिए सभी प्राणी प्रेम की चेतनता से हर क्षण बिंधे होते हैं| अपना-पराया भेद ठहरता नहीं| समाज की एकता इसी अपनत्व भाव का संबल है|



दया, परोपकार, भाईचारा, उदारता, सहयोग, सेवा इत्यादि सभी प्रेम के विभिन्न आयाम हैं| सरलता और सज्जनता, इसके चरण हैं| प्रेम को अनेक बार जानने-बुझने की अनिवार्यता होती है| कितने आश्चर्य की बात है कि इस युग में प्राय: पुत्र अपनी माता के प्रेम की अनुभूति करने में भूल करते हैं, लेकिन इसका सही परिणाम आगे मिलता है| प्रेम की भाषा जीवन के लिए अत्यंत सहज है, भले ही पग-पग पर भूल होती रहे| मनुष्य भुलावे में रहना चाहता है, सच्चाई का सामना करने से बचता है| इसलिए आधुनिक काल में यह प्रसंग भर रह गया है, प्रेम नितोहित हो चला है| सबसे अधिक कोई बात कही या सुनी जाती है, तो वह प्रेम है| मानव इसकी नई-नई अवधारणा खोजता रहता है| प्रेम की गहराई सागर से कहीं अधिक और ऊंचाई आकाश से कहीं ज्यादा है|



इस प्रकार से प्रेम का संदेश प्रत्येक मनुष्य के हृदय तक पहुंचना चाहिए| इस सद्कर्म को प्रेरित किया जाये, सद्भाव प्रवाहित हो! एकता की बाधाएं स्वत: दूर हो जाएँगी|

Monday 20 February 2012

युधिष्ठिर का यज्ञ


कुरुक्षेत्र युद्ध में विजय पाने की खुशी में पांडवों ने राजसूय यज्ञ किया| दूर-दूर से हजारों लोग आये| बड़े पैमाने पर दान दिया गया| यज्ञ समाप्त होने पर चारों तरफ पांडवों की जय-जयकार हो रही थी| तभी एक नेवला आया| उसका आधा शरीर भूरा था और आधा सुनहरा था| वह यज्ञ भूमि पर इधर-उधर लोटने लगा| सभी लोग उसे देखने लगे|

थोड़ी देर बाद नेवला रुका आर बोला, “तुम लोग झूठ कहते हो| यह यज्ञ वैभवशाली नहीं हो सकता| यह अधूरा ही है|”
लोगों ने कहा, “क्या कहते हो? ऐसा महान यज्ञ तो संसार में कभी नहीं हुआ|”
नेवला, “यज्ञ तो वह था, जहाँ लोटने से मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया था|”



लोगों के द्वारा पूछने पर नेवले ने उस घटना का इस प्रकार वर्णन किया:

“दूर एक गाँव में एक दरिद्र ब्राह्मण अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था| कथा कहने से जो थोड़ा-बहुत मिल जाता था, उसी से सभी मिल-जुलकर खाते थे| एक बार उस गाँव में अकाल पड़ गया| लोग दाने-दाने को मोहताज हो गए| कई दिनों तक उस ब्राह्मण परिवार को अन्न नसीब नहीं हुआ| एक दिन कहीं से थोड़ा आटा आया| ब्राह्मण के पुत्रवधू ने रोटी बनाई और चार टुकड़ों में बांटकर थाली लगाया|”

“जैसे ही सभी खाने बैठे कि दरवाज़े पर एक अतिथि आ गए| ब्राह्मण ने अपनी हिस्से की रोटी उस अतिथि को दी, लेकिन उतने ही रोटी खाने से अतिथि का पेट नहीं भरा| तब ब्राह्मण की पत्नी ने भी अपने हिस्से की रोटी अतिथि को दे दी| उसे भी खा चुकने के बाद अतिथि भूखा ही था| तब एक-एक कर बेटे और पुत्रवधू ने भी अपने हिस्से की रोटियां अतिथि को दे दिए| तब कहीं जाकर उस अतिथि का पेट भर पाया| अतिथि आशीष देकर चले गए| उस रात पूरा परिवार भूखा ही रह गया|”

“अतिथि जब भोजन कर रहे थे तो अन्न के कुछ दाने जमीन पर गिर गए थे| मैं उन कणों पर लोटने लगा| उन कणों का जहाँ-जहाँ मेरे शरीरी से स्पर्श हुआ, वहाँ मेरा शरीर सुनहरा हो गया| तब से मैं सारी दुनिया घूमता रहता हूँ कि फिर कहीं वैसा ही यज्ञ हो ताकि मैं अपने शरीर के बचे हिस्से को भी सुनहरा कर सकूँ| लेकिन वैसा वैभवशाली यज्ञ आज तक मुझे देखने को नहीं मिला और मेरा आधा शरीर अभी तक भूरा ही है|”

नेवले का आशय समझकर युधिष्ठिर लज्जित हो गए|

Monday 13 February 2012

चरित्र का आकलन


{१}

पुराने ज़माने की बात है| एक ही मोहल्ले में एक वैश्या और एक सन्यासी आमने-सामने रहते थे| संयोग से दोनों की मृत्यु एक ही दिन हुई| यमराज ने अपने दूतों से कहा कि सन्यासी को नर्क में और वैश्या को स्वर्ग में भेज दिया जाए| यमदूतों को लगा कि अवश्य ही कोई गलती हुई है| अपनी शंका के समाधान के लिए वे चित्रगुप्त जी के पास पहुंचे|

चित्रगुप्त जी ने उन्हें समझाया, “इसमें कोई भी गलती नहीं हुई है| बिल्कुल सही निर्णय लिया गया है| सच्चाई यह है कि जब प्रात:काल सन्यासी के घर से प्रार्थना और मंत्रौच्चारण की आवाज़ आती थी, तो सड़क के उस पार वैश्या रोने लगती थी| वह सोंचती थी कि काश वह भी प्रार्थना में शामिल हो पाती| कई बार वह सफ़ेद वस्त्र पहन कर घर से बाहर आ जाती और सन्यासी के दीवार से कान सटाकर खड़ी हो जाती| लेकिन अंदर जाने का वह साहस नहीं कर पाती थी| वह सोंचती थी कि पापी शरीर को वह कैसे अंदर ले जाए| जब कि सन्यासी का मामला बिल्कुल अलग था| जब भी वैश्या के घर से गाने-बजाने की आवाज़ आती थी, सन्यासी व्याकुल हो जाता था और स्वयं को कोसने लगता था कि उसने क्यों भगवा वस्त्र पहने| वह क्यों सन्यासी बना... इसलिए व्यक्ति के चरित्र का आकलन उसके आतंरिक विचारों से होता है ना कि उसके बहरी गतिविधियों से|”



{२}

बीहड़ जंगल में एक व्यक्ति भटक गया था| भूख-प्यास के मारे उसका बुरा हाल हो गया था| उसके पास हीरे-जवाहरात की पोटली थी| कुछ देर भटकने के बाद उसे एक वनवासी मिला| उसने वनवासी से कहा, “भाई तुम मेरे हीरे-जवाहरात की पोटली ले लो और मुझे कुछ खाने को दे दो!”
वनवासी ने कहा, “इस बोझ का क्या उपयोग? इसे यहीं कहीं फेंक दो! मुझे नहीं चाहिए| आप इसी जंगल में अपना खाना ढूंढ लो और पास में ही एक नदी है, उससे पानी पी लेना!”

वह व्यक्ति वनवासी से बोला, “मैं तुम्हे इतनी दौलत दे रहा हूँ, इससे तुम्हारी सात पीढियां आराम से खा सकती हैं|”
वनवासी हँसते हुए बोला, “जो धन आपकी भूख नहीं मिटा सका, वो मेरा और मेरे परिवार का क्या भला करेगा?”

Saturday 11 February 2012

क्रोध से दूर


बहुत पुरानी बात है| एक गाँव से दूर जंगल में एक महात्मा कुटिया बना कर रहते थे| उन्हें कभी क्रोध नहीं आता था| दया और क्षमाशीलता के कारण उनकी प्रशंसा दूर-दूर तक फैली हुई थी| एक दिन उस क्षेत्र के कुछ दुष्ट प्रवृति के लोगों ने आपस में सलाह की – कुछ ऐसा किया जाये जिससे महात्मा जी को क्रोध आ जाये| एक दिन वे लोग महात्मा जी के कुटिया पर गए|

उनमे से एक बोला, “महात्मा जी! ज़रा गांजा का चिलम तो लाइए!”
महात्मा जी बोले, “गांजा तो मैं पीता ही नहीं|”
“अच्छा! तो भांग की पुड़िया ही दे दो!”
“मैंने तो आज तक भांग की पुड़िया देखी ही नहीं|”
महात्मा जी के ऐसा कहने पर, उनमे से एक बोला, “अरे भाई! क्यों झूठ बोल रहे हो? मैं तुम्हे अच्छी तरह जानता हूँ| हम दोनों साथ में जेल में बंद थे| किसी बात पर हम दोनों में झगड़ा हो गया था और तुमने मुझे डंडे से पीटा था|”

इस तरह सब मिलकर न जाने कितनी फब्तियां कसते रहे| लेकिन महात्मा जी पर इसका कोई असर नहीं हुआ| उनकी बातें सुनकर वे मुस्कुरा रहे थे| अंत में एक बोला, “महात्मा जी ढोंगी हैं| चलो यहाँ से!”



तब महात्मा जी चुप्पी तोड़ते हुए बोले, “अरे भाई! तुम इतनी देर से कुछ गा रहे थे| थक गए होगे| एक भक्त गुड़ की डली दे गया है| लो इसे खाकर, पानी पी लो! तुम लोगों की थकान दूर हो जायेगी|”

महात्मा की बात सुनकर एक ने कहा, “महात्मा जी! हमने आपको इतना बुरा-भला कहा, तब भी आपको क्रोध क्यों नहीं आया?”

महात्मा बोले, “बेटा! जिसके पास जो माल होता है उसी को वह दिखाता है| यह तो ग्राहक की इच्छा है कि वह उसे ले या नहीं| तुम्हारे पास जो था, तुमने उसी को दिखाया| लेकिन मुझे तुम्हारा माल पसंद नहीं था, इसलिए मैंने नहीं लिया| अगर कोई गलती करे तो इसका मतलब यह नहीं कि सामने वाला भी गलती करे; ऐसा हुआ तो दोनों में फर्क ही क्या रह जाएगा?”

Friday 10 February 2012

बादशाहों का बादशाह


एक बार संगीत के जादूगर तानसेन से बादशाह अकबर ने पूछा – “क्या तुमसे भी अच्छा गाने वाला इस दुनिया में कोई है?” तानसेन ने कहा – “हाँ जहांपनाह! मैं अपने गुरू स्वामी हरिदास के चरणों की धुल भी नहीं हूँ|”

बादशाह ने कहा, “कभी मुझे भी उनका संगीत सुनाओ!”
इसपर तानसेन ने गंभीर होकर कहा, “हुजूर! वह किसी के सामने गाते नहीं हैं|”
“क्यों?” अकबर ने आश्चर्य से पूछा|
“हुजूर! वे अपनी मर्जी के मालिक हैं|”

अकबर के मन में एक टीस सी उठी| उनका संगीत सुनने की इच्छा तीव्र हो गई| उन्होंने तानसेन से कोई रास्ता निकालने को कहा, “उनका संगीत सुने बिना मुझे चैन नहीं मिलेगा|”

आखिर तानसेन ने एक तरकीब सोंची| वह अकबर को लेकर उनके आश्रम जा पहुंचा| उसने बादशाह को एक पेड़ के पीछे छुपा दिया| हरिदास उस समय समाधिस्थ थे| तानसेन उनके चरणों में जाकर गिर पड़ा|

“कौन? तानसेन?” गुरू जी ने आँखें खोलकर कहा, “कहो! कैसे हो? स्वास्थ्य ठीक है? कैसे आना हुआ?”
तानसेन, “गुरू जी कुछ भूल हो रही है|”
“अभी देखते हैं|”
गुरू जी के ऐसा कहने पर, तानसेन तानपुरा उठाया और स्वर निकाला| एक स्थान पर उसने जानबूझकर गलत स्वर विन्यास किया| गुरू जी ने वहीँ रोक दिया| तानसेन ने कहा, “गुरू जी! यहीं भूल हो रही है|” गुरू जी ने तानपुरा उसके हाथ से लिया और फिर उसपर उंगलियां चलाने लगे| उन्होंने ऐसा स्वर निकाला कि उड़ते पंछी ठहर गए| शावकों के झुण्ड चरना भूल गए| कुछ क्षण गाकर, गुरू जी पूछे, “समझे तानसेन?”

“हाँ गुरू जी! अब मैं गाता हूँ|” तानसेन ने तानपुरा लेकर वही राग सुना दिया| गुरू जी ने प्रसन्न होकर कहा, “ठीक है| अब भूलना नहीं! इतने बड़े गायक को शोभा नहीं देता कि वह इस प्रकार से भूल करे|”



तानसेन उठा और उन्हें दंडवत प्रणाम करके आश्रम से बाहर निकल गया| बाहर आकार उसने देखा कि बादशाह सलामत मूर्क्षित से बैठे हैं|
तानसेन, “आपने सुना जहांपनाह?”
“तुम ऐसा क्यों नहीं गा सकते?” अकबर ने पूछा|
तानसेन ने जवाब दिया, “हुजूर! मैं बादशाह सलामत के लिए गाता हूँ और गुरू जी गाते हैं उनके लिए जो बादशाहों के बादशाह हैं|”