नीत्शे ने करीब १५० वर्ष
पहले कहा था कि दुनिया के हर कोने में यह खबर फैला दी जाए कि ईश्वर का अस्तित्व
खत्म हो गया है तो, तो भले ही ऐसा ना हुआ हो, लेकिन मानवता अवश्य ही मृत्यु की ओर
अग्रसर हो जाएगा| कहते भी हैं कि जो समाज ईश्वर से अपना संबंध तोड़ लेता है, वह
ज्यादा दिन जिन्दा नहीं रह सकता| जिस समाज की जड़ ही यदि खत्म हो जाए, वह ज्यादा
दिन ज़िंदा रह भी कैसे सकता है| ओशो कहते हैं, “जो लोग धर्म से संबंध तोड़ लेते हैं,
उनके भीतर सिवाय दुःख के कुछ नहीं रहता और जो स्वयं दुखी हो, वह दूसरे को सुख क्या
देगा|”
धर्म का संबंध परलोक से
उतना नहीं है, स्वर्ग और नर्क की अवधारणा से उतना नहीं है, ईश्वर में
विश्वास-अविश्वास से भी उतना नहीं है, जितना कि मनुष्य के भीतर शांतिपूर्ण संगीत
को उत्पन्न करने से है| धर्म एक वैज्ञानिक पद्धति है जिसके द्वारा मनुष्य आतंरिक
स्वास्थ्य पाता है| धर्म का संबंध हिंदुत्व, इस्लाम या ईसाइयत से नहीं है|
धर्म एक व्यक्तिगत उपलब्धी
है, जिसे माता-पिता से नहीं पाया जा सकता बल्कि इसे स्वयं ही साधना होता है| नामों
के कारण जो बंटवारा होता है, उसके वजह से वास्तविक धर्म की ओर हमारा ध्यान नहीं
जाता| यह धर्म कोई विशेषण वाला धर्म नहीं है, धर्म की स्वीकृति इस बात से शुरू
होती है कि हम इस तथ्य पर विचार कर लें कि मनुष्य पैदाइश से ही पूर्ण नहीं है,
अधूरा है| मनुष्य को स्वयं ही अपने सभी संभावनाओं को विकसित करना होता है, और तब
यह हो सकता है कि मनुष्य के भीतर ठीक अर्थों में मनुष्य का जन्म हो| एक
जन्म माता-पिता से मिलता है और दूसरा जन्म धर्म से मिलता है|
ओशो के अनुसार, धर्म के
विचार की शुरुआत इस भावना, इस दृष्टि से होती है कि हम समझें कि हम जैसे हैं, वही
पर्याप्त नहीं है| जो लोग अपनी प्राकृतिक स्थिति से तृप्त हो जाते हैं, वे कभी
विकास नहीं कर सकते| धर्म एक गहरी अतृप्ति है, एक दिव्य प्यास और असंतोष है| कुछ
लोग कहते हैं कि धर्म संतोष सिखाता है, लेकिन संतोष नहीं सिखाता| इसलिए धर्म की
शुरुआत हमेशा एक आतंरिक असंतोष से होती है और यह असंतोष इस विचार से पैदा होता है
कि हम जैसे भी हैं, वही हमारी नियति नहीं है| मनुष्य अपनी इस नियति का अतिक्रमण कर
सकता है, अशांत है तो शांत हो सकता है, दुखी है तो आनन्द को पा सकता है, अंधकार
में है तो प्रकाश में आ सकता है| कैसे दुःख आनंद में परिणत होगा, कैसे अशांति
शांति में बदलेगी, कैसे अंधकार प्रकाश बनेगा, कैसे अराजकता में संगीत पैदा होगी,
इसी वैज्ञानिक पद्धति का नाम धर्म है| ऐसे धर्म का संबंध किसी अंधविश्वास से नहीं
होगा|
यह प्रेम का धर्म होगा,
विवेक का धर्म होगा और ऐसा तब होगा जब भीतर के चक्षु खुल जाएंगे और जिस व्यक्ति के
अंतस चक्षु खुल जाएंगे, उसे प्रेम का विस्तार करना होगा, फैलाना होगा उसे| प्रेम
के विस्तार का नाम ही अहिंसा और करुणा है| तो इस धर्म का पहला सूत्र है, प्रेम का प्रकृति
में विस्तार| दूसरा सूत्र है, प्रेम का समाज में विस्तार| प्रेम हम सब करते हैं,
लेकिन एक दायरे में करते हैं और संस्थाबद्ध धर्म के तथाकथित धार्मिक लोग हमेशा प्रेम
का विरोध करते हैं| लेकिन कोई धार्मिक व्यक्ति प्रेम का विरोध कैसे कर सकता है? उसे
तो प्रेम के विस्तार की बात करनी चाहिए! उसे प्रेम के उस दायरे तो तोड़ने की बात
करनी चाहिए जिसमें हम बंधे हैं| यही तो धर्म का सार है|