गुरू के मौत का जश्न!
मौत चाहे किसी का भी हो-नक्सलवादी या अलगाववादी-जश्न नही मनाया जा सकता, क्योंकि ये हमारे ही सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था की विफलता का परिणाम है|
सुबह सवा पांच बजे
का वक्त था| हर रोज की भाँति साधना पर बैठे तो घंटों बैठे रह गए| सवा छ: बजे साधना
समाप्त हुई, फिर दिनचर्या के साथ किताबों और अख़बारों में खो गए| इस बीच ८.१५ पर
मैंने अपने साथ रहने वाले सहयोगियों से सत्तू पीने की इच्छा ज़ाहिर की तो उधर से
जवाब आया कि सर अभी-अभी न्यूज़ फ़्लैश हो रहा है कि अफज़ल गुरु को फांसी दे दी गई है|
मेरे हृदय ने मन को जवाब दिया चलो बैमनस्य-मन से ही सही कानून ने अपना काम करके
राजनीतिज्ञों और बहुसंख्यक-अशिक्षित-भ्रष्टाचारी भाग्य-किस्मत-कर्मकांड-बुराइयों के
सहारे जीने वालों को खुश तो कर दिया| पुन: संतुष्ट कर दिया| इस पूरे वाकये में
सबसे अधिक परेशान मुझे सर्वोच्च न्यायालय का वाक्य-“the collective conscience of the society will
only be satisfied if the capital punishment is awarded to the offender” किया| ...समाज की सामूहिक चेतना तभी संतुष्ट हो
सकती है जब अपराधी को फांसी दे दी जाए...! मैंने कई बार कानूनविदों को कहते सुना
है कि न्यायालय कभी भी भावनाओं में आकर निर्णय नहीं ले सकती| जनाक्रोश या अख़बारों
के न्यूज को देखकर हमारा न्याय प्रभावित नहीं होना चाहिए| एक ही न्यायप्रणाली के
दो विचार कैसे हो सकते हैं? एक तरफ राष्ट्र और जनसमूह को संतुष्ट करने की बात और
दूसरी तरफ कानून को जज्बात से ऊपर उठकर अमल में लाने की बात! समझना कठिन हो गया है
कि हमारी न्याय व्यवस्था किसे संतुष्ट
करना चाहती है? ऐसी जनता को जो या तो निरक्षर है या अशिक्षित या भ्रष्ट? ऐसी
राष्ट्र की जनता जिनका लोकतांत्रिक विचार और समझ अभी अधकचरा है| अपनी कोई समझ नहीं
है| राष्ट्र या समाज मनुष्य से बनता है| मानव अस्तित्व को अगर समाप्त कर दिया जाये
तो राष्ट्र या समाज के अस्तित्व का कोई मतलब नहीं है| कोई भी कानून मनुष्य को
ध्यान में रखकर ही बनाया गया| जिससे सुंदर समाज और राष्ट्र का निर्माण हो सके|
मनुष्य का अस्तित्व बचेगा तो कानून का अस्तित्व बचेगा|
कानून यह भी कहता है
कि सौ दोषी भले ही छूट जाये लेकिन एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए| लेकिन जो
न्यायादेश अफज़ल गुरु के बारे में दिया गया है वह भावनाओं पर दिया गया है| सब जानते
हैं कि लोकतंत्र चार खंभे पर आधारित है| इनमे विधायिका और कार्यपालिका को समाज और
जनाक्रोश का प्रत्यक्ष रूप से सामना करना पड़ता है अतः मेरे समझ से इन दोनों
संस्थाओं को भावना के आधार पर बहुत सारे निर्णय लेने पड़ सकते हैं| उसे जनता
के भावनाओं को देखकर चलना होता है| और सबसे बड़ी बात, जनता इन्हें शक के निगाहों से
देखती है| परन्तु न्यायपालिका और जनसंचार-माध्यम(पत्रकारिता) को जनाक्रोश का
प्रत्यक्ष सामना नही के बराबर करना पड़ता है| किन्तु इन दोनों का प्रभाव जनता की
सोच पर बहुत गहराई से पड़ता है| और जनता इन पर लगभग आँख मूंद कर भरोसा करती हैं|
इनकी सोच से जनसमूह का सोच और प्रतिक्रिया दिशानिर्देशित होती है| ऐसे में जब इनती
महत्व पूर्ण संस्थाएं भावना के आवेग में बह कर निर्णय लेंगे तो हमारा और हमारे
लोकतंत्र का क्या होगा?
इस घटना के बाद
अख़बारों की जो प्रतिक्रियाएं देखने को मिली बदले की भावना स्पष्ट परिलक्षित हो रहा
था| मेरे समझ से ऐसी परिस्थितियों में भावनाओं को नियंत्रण में रखना चाहिए था| अख़बार-टीवी
मन:स्थिति को बनाता और बिगाड़ता है| तब वह भावनाओं में बह जाएँ, तो जनता और
लोकतंत्र का क्या होगा? हम सब जानते हैं कि लोकतंत्र पारदर्शिता के बिना नहीं चल
सकता| लोकतंत्र की प्राणवायु है पारदर्शिता| इसलिए लोकतंत्र के चारों
स्तंभ-विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया को अपने कार्यप्रणाली में सदा
पारदर्शिता बनाये रखना चाहिए| और अफजल गुरु के मामले में पारदर्शिता का अभाव नज़र
आया| फांसी के बाद आज बार-बार जो सवाल बुद्धिजीवी, लेखक, समाजसेवी के द्वार खड़े
किया जा रहे हैं इसका कारण है- सरकार के द्वारा
पारदर्शिता नहीं बरतना| सरकार को यह समझना चाहिए कि अफज़ल हमारे समाज का प्रोडक्ट
है| डॉक्टर बनने की ख्वाहिश रखने वाला एक व्यक्ति किन कारणों से अलगाववादी संगठन
से जुड़ते हैं| यह सवाल खड़ा करता है समाज, सरकार और हमारी व्यवस्था पर| हममेसे किसी
ने यह पाड़ताल करने की कोशिश नही की कि आखिर हमारी किन ग़लत नीतियों के कारण ऐसी
घटना हुई|
हमारी सरकार मानसिक स्तर पर
सोच रखकर सजा की बात करती है, वहां सुधार का दृष्टिकोण सिर्फ नाम के लिए रहता है| हमेशा
से देखा और कहा गया है कि सजा का दृष्टिकोण सुधार ही हो| मनुष्य मानसिक स्तर पर जो
भी विचार लाता है उसमे शुद्धता नहीं रह जाती है| उसमे गति नहीं रहती| इसलिए देखा
गया है कि मानसिक स्तर से ऊपर है अध्यात्मिक स्तर| वह देश काल पात्र से ऊपर होता
है| मानसिक स्तर से सोचने वाले लोग, या उनका विचार देश काल पात्र से प्रभावित होता
है| इसलिए दुनिया में लोग ऐसा सोचते है कि मृत्यु की सजा देने से आचार, विचार में
परिवर्तन होगा, ऐसा नहीं है| मृत्युदंड समाज परिवर्तन का कोई निदान नहीं हो सकता|
इतिहास में ऐसे लोगों का भी नाम दर्ज है जिसमे सुधार भी हुए और लोगों ने प्रेरणा
भी ली| जैसे बुद्ध के काल में अंगुलिमाल का अध्यात्मिक परिवर्तन हुआ, नारद के
द्वारा बाल्मीकि को आध्यामिक ज्ञान प्राप्त हुआ, २१वीं सदी में, कालीचरण से
सन्यासी कालिकानंद का बनना, यह सब अध्यात्मिक परिवर्तन का देन है| इसलिए समाज में
जररूरत है शिक्षा के साथ अध्यात्मिक-विज्ञान की| जिसे प्राइमरी स्तर से ही देना
चाहिए| एक बात समाज और सरकार और मीडिया को जरुर सोचना चहिए- आदि काल में मनुष्य या
समाज का शारीरिक से मानसिक विकास हुआ और वैश्य युग में जिसे हम वर्त्तमान युग कह
सकते हैं, विकास का सारा आकलन धन से आँका जा रहा है| इसलिए आज नितांत जरुरत है,
प्रबुद्ध लोग इस पर मंथन करें और इस युग को अध्यात्मिक युग बनाने के लिए
अध्यात्मिक-विज्ञान का शिक्षा देकर वसुधैव कुटुम्बकम की स्थापना करें|
पूर्व में
देखा गया है कि जो भी महापुरुष या प्रबुद्ध लोग आये उन्होंने अध्यात्मिक साधना के
बदौलत किसी की गलतियां नहीं देखी, ना ही बुराइयां की| ऐसे महापुरुष हमेशा सुधारने
का काम किये| जैसे नानक, महावीर, नारद, गुरु गोविन्द और भारतीय संस्कृति की
आधारशीला यही रही है| हमारी संस्कृति में हमेशा सुधार का दृष्टिकोण रहा है| पहले ज़माने में ऐसी सजा दी
जाती थी जिससे लोग पश्चाताप करके सुधार ला सकें, क्योंकि महापुरुष जानते थे कि
उर्जा कभी नष्ट नहीं होती| इसलिए वे उसकी मानसिकता के परिवर्तन का प्रयास करते थे|
राजा अशोक भी एक क्रूर शासक था, परन्तु बुद्ध ज्ञान के बाद उनमे भी परिवर्तन हुआ,
पश्चाताप भी हुआ| गाँधी जी ने हिंसा का सहारा नहीं लिया| हमेशा सुधार का पक्ष
लिया| विवेकानंद ने हमेशा सोच बदलने का प्रयास किया| क्योंकि सोच बदलेगी तो
पश्चाताप होगा, तो सुधार होगा| चाणक्य ने नन्द रजा को हटा दिया, उसकी हत्या नहीं
की, सिर्फ चन्द्रगुप्त को राज पर बैठाया था| एक घटना का उल्लेख करना मैं उचित
समझता हूँ| एक बार बादशाह अकबर हाथी से सैर कर रहे थे| एक आदमी छत पर चढ़ कर उन्हें
गाली देने लगा| तो उसे सिपाहियों ने पकड़कर अकबर के सामने हाज़िर किया| अकबर ने उससे
पूछा कि तुमने हमें गाली क्यों दी? उस व्यक्ति ने कहा कि मैंने गाली नहीं दी, तो
अकबर ने कहा कि तुम्हे गाली देते हुए मेरे सिपाहियों ने पकड़ा है| तब उसने कहा कि
मैंने गाली नहीं दी, उस वक्त मैं शराब पिए हुआ था| उस वक्त मेरा विवेक मेरे साथ
नहीं था| अभी मैं बिलकुल होश में हूँ| आपका बड़ाई कर रह हूँ| तो अकबर ने उसे छोड़
दिया| यहाँ एक बात और बता दूं, एक बच्चा पांच दिनों से भूखा था, तो उसने खाने के
लिए चोरी की| दूसरी तरफ एक ऐसे लोग हैं जो चोरी के कारण किसी की हत्या करना चाहते
हैं| एक ही घटना में दो अलग-अलग कारणों से दो सोच है| इसलिए न्याय देते वक्त गलती
को देखना चाहिए|
यही स्थिति कसाब और अफज़ल के बीच है| कसाब गलत सेंटिमेंट में आकर
भारत को नुकसान पहुँचाना उसका मकसद था| दूसरी तरफ अफज़ल, जो हमारी ही व्यवस्था के
कारण, हमारी ही व्यवस्था के खिलाफ लड़ने को तैयार हो जाता है| इसी जगह यदि न्यायपालिका,
भारत-राष्ट्र और राष्ट्र की जनता को ध्यान में रखकर न्याय नहीं देते तो अफज़ल एक
सकारात्मक उर्जा लेकर भारत का कल्याण कर सकता था| इसलिए कहा गया है कि सोचने का
ढंग महत्वपूर्ण है| जैसे फांसी देना एक नेगेटिव सोच है और सुधार की भावना पोजिटिव
सोच| इसलिए देखा गया है जिस मनुष्य के भीतर सुधार की गुन्जाइस होती है उस मनुष्य
को सुधार के लिए मौका दिया जाता था| और आज भी ऐसे मनुष्य को सुधरने के लिए मौका
देना चाहिए| ५० वर्षीय अफज़ल को जो एक मध्य वर्गीय परिवार से थे, अफज़ल का स्कूल के
सभी कार्यक्रम में सक्रिय रहना और भारत के स्वतंत्रता दिवस के परेड में अगुवाई
करने का जज्बा और स्कूल में हमेशा अच्छे अंकों से उतीर्ण करना उसके जज्बे और आचरण
को दर्शाता है| मेडिकल का एक छात्र का आतंकवाद के काली दुनियां में प्रवेश कर
जाना, कहीं ना कहीं हमारी व्यवस्था और सरकार पर उंगली उठता है| भारतीय सेनाओं के
द्वार कई बार कथित रूप से बलात्कार उस वक्त आम बात हो गई थी| बलात्कार की घटना ही
अफज़ल को गहरा आघात पहुँचाया था, जिसके कारण भारत विरोधी जम्मू-कश्मीर लिबरेशन
फ्रंट में शामिल हुआ| जब वे हथियार प्रशिक्षण के बाद लौटे तो वे ३०० कश्मीरी
नौजवान के साथ अलगाववादी आन्दोलन में शामिल हो गए| लेकिन ये जगजाहिर था कि अफज़ल
खून-खराबे को कतई पसंद नहीं करता था| यह बात भी जगजाहिर है कि जब कश्मीर में
हिजबुल मुजाहिद्दीन और कश्मीर लिबरेशन फ्रंट का टकराव शुरू हुआ तो अफज़ल ने ३००
नौजवानों की बैठक बुलाई और ऐलान कर दिया की इस मार-काट में भाग नहीं लेंगे| और यही
कारण था कि सारे इलाके में सैंकड़ों मुजाहिद्दीन मारे गए, लेकिन उसका इलाका शांत
रहा| उसे बाद अफज़ल अपने गाँव को छोड़, दिल्ली और श्रीनगर में रहने लगा| दिल्ली में
अर्थशास्त्र के डिग्री के साथ-साथ अपने ही ट्यूशन के साथ-साथ अपना पढाई के साथ
जीवन चलाते रहे और थोड़े ही समय बाद अमेरिका में नौकरी करने चले गए| अमेरिका से
लौटने के बाद अफज़ल नौकरी करने लग| अचानक उसके माता-पिता ने उसकी शादी कर दी|
इसी
बेच क्षेत्रीय फौजी कैंप पर हाज़िर होने का आदेश और पुलिस के ज्यादती के कारण अफज़ल
की सोच को पुन: मोड़ दिया| फिर वही हुआ जिसका डर था| गहरी साजिश के तहत अफज़ल को
संसद हमले का मुख्य आरोपी बना दिया| भारत की पुलिस और सी.बी.आई. इतनी तेज़-तर्रार
है कि कुछ ही घंटों, दिनों, महीनों में सबूत इकठ्ठा कर किसी को नक्सलवादी,
आतंकवादी बना देते हैं| इसलिए तो आज चारों तरफ आवाज़ उठ रहा है कि खून के बदले खून
सभ्य समाज की पहचान हो सकती है क्या| समाजशास्त्री दीपंकर गुप्ता का कहना है कि
मृत्युदंड एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है जैसे बाइबिल में कहा गया है कि आँख के बदले
आंख, हाथ के बदले हाथ और शुरू से कहा गया है जैसे को तैसा|
लेकिन लोकतंत्र वह होता
है जिसमे हम नए-नए सोच अपनाते हैं| इसलिए मृत्युदंड की सोच से ना तो हम आगे बढ़
सकते हैं और ना ही लोकतंत्र को समर्थ कर सकते हैं| दुनिया में जब फांसी जैसी सजा
को ख़त्म करने की बात चल रही है, ऐसी ही समय में भारत के लिए उन देशों में शामिल
होने की बात हो रही थी कि अचानक पिछले दिनों ही सुबह में कसाब को फांसी, पुन:
शनिवार को अफज़ल को फांसी पर लटका दिया गया| भारत का ऐसे देशों की सूची में शुमार
होने का कोई इरादा नहीं है|
अतीत बताता है कि जिन देशों में फांसी की सजा को कम
किया गया, वहां सोचने वाले विचारवान लोगों ने, नेतृत्व करने वालों लोगों ने इसकी
मांग की है, और आज हमारे देश में कभी हिन्दू जैसा कोई अख़बार एडिटोरियल देकर काम
चला लेते हैं| और कोई समाजसेवी इसके बारे में लेख लिख लेते हैं| लेकिन आज भी हमारे
यहाँ ये सोच नहीं बनी है क्योंकि जिन लोगों को इसके खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए या जिन
लोगों का प्रभाव है, वे ना तो आवाज़ उठा रहे हैं ना कुछ कर पा रहे हैं| क्योंकि भारत
ही एक ऐसा देश है जहाँ प्रबुद्ध व्यक्ति ऐसा सोचते हैं कि हम आम जनता से अलग हैं|
गुस्सा आता है ऐसे प्रबुद्ध और भले लोगों पर जो गलत को गलत नहीं कहते| कौन सा ऐसा
कानून , धर्म, समाज इस बात की इजाजत देता है कि बिना परिवार को जानकारी दिए फांसी
दे दी जाए| ऐसा कौन सी जरुरत आन पड़ी कि बिना परिवार को जानकारी दिए हुए फांसी दे
दी गई? अफज़ल के ही मामले में ही इतनी गलतियां क्यों? एक तरफ तो उनके मामले को सही
तरीके से नहीं देखा गया, ना ही उनका मानवाधिकार संरक्षित हुआ, और दूसरी तरफ फांसी
के वक्त भी कानून को अमलीजामा नहीं पहनाया गया| क्या आतंकवादी या नक्सलवादियों के
पत्नियों का कोई डेमोक्रेटिक राईट नहीं होता? या वोट की राजनीती में कानून के
साथ-साथ हमारे मर्याद को भी कोठी के ताक पर रख दिया है?
इससे अच्छा तो लगता है कि
नेपाल का मुखेर कानून ही ठीक है| एक तरफ तोहम लोकतंत्र की बात करते हैं, दूसरी तरफ
कानून को धता बताते हुए हमारे देश में जो अभिव्यक्ति की आज़ादी है उसे भी छीन लेते
हैं| किस कानून के तहत आप अफज़ल की लाश को नहीं देना चाहते? क्यों हमारा सभ्य समाज
चुप हैं और कब तक चुप रहेगा? किसी ने सही ही पूछा है-‘क्या भारत का खून का कटोरा
अभी आधा भी नहीं भरा है?’ मौत चाहे किसी की भी हो भले ही वो आतंकवादी या नक्सलवादी
हो, उसके मौत का जश्न नहीं मनाया जा सकता| क्योंकि वो हमारे ही समाज का उपज है|
Bahut sundr lekh.....
ReplyDeleteया तो हम भारतीय खून के प्यासे हो गए हैं या अफज़ल को फांसी देकर कांग्रेस हिन्दुओं का वोट बटोरना चाहती थी, वरना ये गुप-चुप तरीका तो समझ से परे है |
ReplyDeleteभाई साहब, आपने सोलह आने सही बात कही है | शायद ही कोई इस मसले पर दिल की कहने की हिम्मत जुटा पाए| हत्या कभी भी तर्कसंगत नहीं हो सकता, मौत के बदले मौत सभ्य समाज की पहचान कैसे हो सकती है...?
ReplyDeleteकाफी सुंदर. एक छुपे पहलू से आपने रूबरू करवाया. कोई किसी के मौत का जश्न कैसे मना सकता है...??? वो भी सिर्फ एस लिए की जिसकी मौत हुई उसे हम गलत और हम स्वयं को नैतिकवान अच्छा मनुष्य समझते हैं..?
ReplyDeletewonderful article... I was almost waiting to hear such/similar account of the issue. the way it was handled was completly inhuman.. Killing someone could nvr be a solution. its nvr gonna help us out.
ReplyDeleteGood one. lagta hai ki hamara samaj khoon ka pyasa ho gaya hai... hum kisi ke mout ka jashna mana rahe hain...??
ReplyDeletekisi ki bhi maut par jashna manana hamari sanskriti ke khilaf hai...Lekin hum Ravan .. Kans jaise papiyon ki maut ka jashna har saal manate hain...koi rokta ..tokta kyon nahin??
ReplyDeleteek atankwadi ke mout ka jashn hum kyon nahi manaye, ye samajh ke bahar hai... Kya America walon ne Saddam Hussain aur Osama ke mout ka jashn nahi manaya tha. America par jab attack hua tha, to usne Afghanistan to dhool me mila diya tha... Humne to sirf ek atankwadi ko faansi di hai, ye to sabak hona chahiye unke liye. Jashn kyon na ho...???
ReplyDeleteउत्तम कृति...
ReplyDeleteGood one... how can someone's death be celebrated..??
ReplyDeleteinteresting article.... it shall attract critics...
ReplyDeletevery nice i aggry
ReplyDeleteअगर साशन का भय न हो तो अपराधीयों का मनोबल सबल होता जाएगा, एक अपराधी को उसके अपराध के लिए उचित आैर त्वरित दंड मिलना ही चाहिये,एक तरफ तो हम कहते हैं हमें संविधान में विश्वास आैर दूसरी तरफ उनके फैसलों पर असंतोष जताकर क्या संदेश देना चाहते हैं,
ReplyDeleteकानून व्यवस्था के काम करने के तरीके और उसके प्रोटोकॉल्स का तो पता नहीं, लेकिन आजकल गलत को गलत कहने के लिए भी लोग सही समय का इंतजार करते हैं अर्थात वोट बैंक की राजनीति। और हमारा संपूर्ण समाज इससे परिचित हो कर भी इसे अनदेखा कर देता है। संभवतः यही सबसे बड़ी विडंबना है, और इसी के खिलाफ हमें लड़ना चाहिए।
ReplyDeleteसर जश्न तो मनेगा ही ना रावण को हर साल मार कर जश्न मनाते हैं आप एक वर्ग को खुश करने के लिए ऐसा स्टेटमेंट नहीं दे सकते
ReplyDeleteVery nice
ReplyDelete6206962578
ReplyDeleteNice ....
ReplyDeleteThoda Background dikkat kar raha padhne me .... Template ki wajah se ...
बहुत खूब सर
ReplyDeleteGOOD
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