Tuesday 13 September 2011

ओ भारत के कर्मधार लोग! ज़रा बहुसंख्यक लोगों के जान की कीमत को समझने की कोशिश करो!

मेरा अनुभव मुझे बताता है, किसी भी समस्या के मूल कारण को ढूंढे बगैर, उसपर गहन विचार कर उसे दूर किये बगैर उसके समाधान की बात करना महज़ एक कोड़ी कल्पना होती है| मैं दृढ़ता पूर्वक यह कहना चाहता हूँ, हिंसा का रास्ता किसी धर्म में निहित नहीं है| जहाँ, कुछ धर्मों में अहिंसा का व्यवहार मनुष्य का आवश्यक कर्तव्य माना गया है, वहीँ कुछ धर्मों में अहंकार और परिस्थितियों के कारण से इसकी इजाजत भी दी गई है| जिस भी धर्म के नंबरदार यह सोचते हैं कि हिंसा से भलाई हो रही है तो यह भलाई केवल अस्थायी होती है, और इससे जो बुराई फैलती गई, आज वही स्थायी बनता चला गया| मेरा मानना है कि किसी भी लक्ष्य के पूर्ति में जिस सीमा तक हिंसा का सहारा लिया जायेगा उसी सीमा तक विफलता हाथ लगेगा| हालाँकि आज तक ज़ाहिर तौर पर उसका उल्टा भी देखने को मिलता रहा है| कोई भी संगठन या समूह, अगर यह समझती है कि हमारे धर्म में बाधक बनने वाले समूह, समाज या व्यक्ति को समाप्त कर देते हैं, तो मेरी मंजिल सामने होगी; यह विल्कुल असंभव है| इससे एक झूठी सुरक्षा का आभास हो सकता है पर यह सुरक्षा सिर्फ अल्प काल के लिए और अस्थायी ही होगी| इसलिए किसी भी समाज, समूह या व्यक्ति को समाप्त कर देने से समस्या का समाधान नहीं निकाला जा सकता| हमें पता लगाने की कोशिश करनी चाहिए कि किन बातों के कारण वे ऐसा व्यवहार कर रहे हैं ताकि इलाज किया जा सके|



हिंसा या सशक्त विद्रोह पर विश्वास नहीं किया जा सकता| वे जिस बुराई को दूर करने के लिए उठते हैं, वे स्वयं उससे भी ज्यादा बुरे होते हैं| वे प्रतिशोध, अधैर्य और क्रोध के प्रतीक होते हैं| हिंसक उपचार से कोई स्थायी लाभ नहीं होता| आज हिंसा के सामने सिर्फ देखने और सुनने से लगता है कि हमारी सभ्य समाज बेबस है| लेकिन कानून कभी बेबस नहीं होता है|  यह बात सही है कि दुनियाँ में आज सबसे सक्रीय ताकत के रूप में हिंसा को देखा जा रहा है| लेकिन विश्व, राष्ट्र, परिवार, समाज का कल्याण अहिंसा के रास्ते पर ही चलकर हो सकता है| मेरी नज़र में दिल्ली जैसी हिंसा की घटना को कायरता का प्रदर्शन ही कहेंगे| सिर्फ मन में यह भ्रम पालकर की लोगों को मारकर हिंसा फैलाना असल में बदला है, यह उसका सबसे बड़ा अहंकार है|

एक बात और गौर से समझने की जरूत है| हिंसा, आतंकवाद या उग्रवाद दुनियाँ की सबसे जटिल समस्या बनी हुई है| दुनिया में कई ऐसे देश हैं जो हमसे ज्यादा आतंकवाद से पीड़ित हैं| दुनिया में बहुत थोड़े देश ऐसे भी हैं जिन्होंने अपनी एकता, संकल्प, सुरक्षा, निगरानी के कारण आतंकी हमलों को लगभग बहुत ही कम करने की सफल कोशिश की है| लेकिन इसके सबसे बड़े कारण हैं- सामाजिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भाषा, क्षेत्रवाद, जातिवाद, गरीबी, असमानता, भूख, जैसी व्यवस्था/समस्या आर्थिक संपन्न लोकतान्त्रिक देशों में नहीं के बराबर देखने को मिलती है|

भारत इन समस्याओं के साथ-साथ भ्रष्टाचार, ड्रग्स, तस्करी, नक्सल, काला धन, आंतरिक संक्रमण- जैसे धार्मिक, जातिवाद, क्षेत्रवाद सरीखे हिंसा से बहुत अत्यधिक रूप से ग्रसित है| दुनियाँ की उभरती हुई महाशक्ति होने के वाबजूद आतंरिक, सामाजिक, आर्थिक और हिंसा जैसी व्यवस्था के कारण अपनी सुरक्षा निगरानी को बहुत अधिक मजबूत और व्यापक नहीं कर पाती है| कोई कहता है कि हमारी हुकूमत बहरी, अंधी, और गूंगी है| कोई कहता है कि हमारी ख़ुफ़िया एजेंसी, सुरक्षा तंत्र का इंतजाम काफी कमजोर और अव्यवस्थित है| मेरा मानना है कि यदि धर्म, कौम, जात या देश के लिए मौत के जज्बे को लेकर कोई व्यक्ति जन्नत की अवधारणा को लेकर यदि मरने या मारने को तैयार हो जाता है, तो कोई भी ख़ुफ़िया तंत्र या कठोर कानून ऐसे हिंसात्मक घटना को घटने से नहीं रोक सकता| अमेरिका या अन्य कुछ देशों की तुलना हमारे देश से नहीं की जा सकती| हमारी धर्मनिर्पेक्ष सिद्धांत, भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक स्थिति हमें अपने मूल और सकरात्मक विचारधार से अलग नहीं होनी देती|

भारत हमेशा सकारात्मक नजरिया रखते हुए, एक प्रगतिशील विचारधारा के साथ ‘सर्व धर्म संभाव’ की बात करती रही| यह कहना कि पढ़े लिखे लोग और संपन्न लोगों को आतंकवाद के द्वारा निशाना बनाया जाता है, यह बिलकुल ही गलत है| आतंकवादी हमला होते ही जिस तरीके से लोग हाय-तौबा मचाने लगते हैं, कोई सरकार को गाली, तो कोई लोकतंत्र को गाली, कोई हिंदू को तो कोई मुस्लमान को गाली देना शुरू कर देते हैं| कोई कहता है आतंकवादियों को दामाद के तरह पाला जाता है| पक्ष और विपक्ष वोट के लिए हिंदू और मुस्लमान की बात शुरू कर देते हैं| आतंकवाद को जायज कभी नहीं ठहराया जा सकता| लेकिन आतंकवाद को रोकने के लिए सम्पूर्ण देश को विश्वास में लेना होगा| हमारे लेखकों को २७ मई को किये गए आतंकवादी घटने की तारीख तो याद रहती है, लेकिन कभी आतंरिक बुराइयों जिनके कारण हमारी समाज खोखली और कमजोर होती जा रही है, इसकी यादें और तारीख हमारे लेखकों और कॉलमिस्ट को याद नहीं आती|

चीन अपने सामाजिक और राजनितिक परिस्थिति के कारण एक स्वर में किसी आतंकवादी या राष्ट्रद्रोही को फांसी देनें के लिए खड़ी हो जाती है, लेकिन हमारा सर्व धर्म संभाव का दर्शन मानने वाला देश, हमारा संघीय ढांचा और विभिन्न राजनितिक पार्टियां अपनी सामाजिक और राजनितिक व्यवस्था के कारण शायद बहुत कम ही एक साथ एक स्वर में खड़े हो पाए हैं| तमिलनाडु के विधानसभ में राजीव गाँधी के हत्यारों के फांसी की सजा माफ करने का प्रस्ताव सर्वसमत्ति से लिया गया| पक्ष और विपक्ष दोनों एक सुर में बोलने लगे| क्षेत्रीय भावनाओं की होड़ में सारे भेद मिटा दिए, देश का सवाल फिर पीछे चला गया|

व्यक्तिगत तौर पर मेरी संवेदना भी इस बात का आग्रही है कि उसे माफ किया जाना चाहिए, लेकिन इस तरह की परिपाटी क्या देश के हित में सही है? अब जरा पंजाब की ओर नज़र डालिए| जहाँ सरकार चला रही है अकाली दल| देवेन्द्र सिंह भुल्लर को माफ करने के लिए अभियान चला रहा है और सरकार में शामिल भाजपा की बोलती बंद है| यह वही भाजपा है जो अफज़ल गुरु को फांसी ना देने पर रात-दिन शोर मचाता रहता है| जम्मू के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह ने ट्विटर के जरिये कहा है कि यदि तमिलनाडु की तरह ही जम्मू कश्मीर अफज़ल गुरु की फांसी माफ करने का प्रस्ताव पास करे तो क्या लोग ऐसे ही खामोश रहेंगे? चाहे उमर जितना भी खामोश हो जाएँ, लेकिन मामला वहां भी कम गरम नहीं है|

पी.डी.पी. पहले से ही अफज़ल गुरु की फांसी की सजा माफ करने की मांग कर रही है| अलगाववादी नेता भी अफज़ल की फांसी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं| निर्दलीय विधायक राशिक ने माफ़ी की मांग करते हुए विधानसभा में निजी प्रस्ताव पेश कर दिया है| कहीं ऐसा तो नहीं कि यह विधानसभ भी एक स्वर में माफ़ी की प्रस्ताव पास कर दे? क्या आतंकवाद से निपटने की सबसे बड़ी जिम्मेवारी सिर्फ कांग्रेस की है, क्योंकि वह केन्द्र में सरकार चला रही है| ऐसा क्यों कि देश में होने वाला हर धमाका, जिसकी सरकार होती है, उसी पर सवाल खड़ा करता है? कोई भुल्लर के इस मुद्दे पर खामोश हो जाता है तो कोई राजीव के हत्यारे के सवाल पर| किसी धमाके के पीछे जब हिंदू संगठनों का नाम आता है तो उसके पक्ष में बड़ी पार्टी खड़ी हो जाती है तो कोई पार्टी विपक्ष में खड़ी हो जाती है|

स्वामी या शिवानंद का नाम समझौता एक्सप्रेस में हुए धमाके में आया तो भाजपा ने तुरंत इसे हिंदुत्व को बदनाम करने की साजिश करार दे दी| वहीँ मक्का मस्जिद में हुए धमाकों को लेकर गिरफ्तार हुई साध्वी प्रज्ञा से मिलने भाजपा के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह और कई वरिष्ठ नेता जेल जा पहुंचे| आखिर ऐसा क्यों होता है भाजपा के लिए आतंकी मामला तभी गंभीर होता है जब आरोप इस्लामी संगठनों पर होता है, किसी को हिंदूओं को बचाने की फ़िक्र है तो किसी को मुस्लमान और सिक्खों को बचाने की फ़िक्र है| वह दिन कब आयेगा जब इंसानियत, मानवता, हमारी लोकतान्त्रिक मर्यादा और देश को बचाने की फ़िक्र होगी| किसी भी तरह के आतंरिक और बाह्य हिंसा की कार्रवाई को मानवीय संवेदना पर हमला माना जायेगा| उस दिन से ही धीरे-धीरे तस्वीर बदलने लगेगी| लेकिन आगे मैं व्यक्तिगत तौर पर यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि  देश की क्षेत्रीय पार्टी हो या बड़ी राष्ट्रीय पार्टी, बड़ी जात हो या छोटी जात, हिन्दी भाषी हो या मराठी भाषी, बंगला भाषी हो या उड़िया भाषी, कन्नड़ भाषी हो या गुजरती भाषी, नेता हो या जनता, अपने-अपने नफा और नुकसान को भूलकर किसी भी परिस्थिति में मानवता और देश के बारे में शायद ही सोच पाएंगे|

राष्ट्र को अपनी जागीर मानने वाले मध्य वर्गीय लोगों के लिए नैतिकता बहुत दिलचस्प होती है| पढ़े-लिखे सभ्य समाज, मध्य वर्ग हमेशा से मानती आई है कि हम लोग ही राष्ट्र हैं और राष्ट्र ही मध्य वर्ग है, इसलिए तो जब कभी बाहरी आतंकवादी के हमले में १०, १५, २० या २५ लोग मारे जाते हैं तो यह कह कर के दुनिया में प्रचारित किया जाता है कि सिर्फ बाह्य आतंकवाद ही सबसे बड़ा खतरा है| मानो आंतरिक आतंकवाद, हिंसा, बुराई हमारी बपौती संपत्ति बन चुकी हो| ऐसे पढ़े-लिखे लोग अपने अहंकार के कारण दो तरह के विचारधार को कैसे पाल सकते हैं और सिर्फ उन्ही की विचारधारा सर्वमान्य और सर्वोत्तम कैसे हो सकता है? सोचने की जरूरत है कि आतंकवाद, भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्से से उबल रहा सभ्य समाज या मध्य वर्ग तो फिर इसी देश में हजारों किसानों की आत्महत्या पर उनका गुस्सा क्यों नहीं उबलता?

महाराष्ट्र के मेला घाट नामक इलाके में हर दिन कई बच्चे भूख से मरते हैं| क्यों आपका खून नहीं खौलता है? याद रखिए क्रिकेट विश्व कप जीत कर अपना राष्ट्र गौरव पुनर्स्थापित करने में सफल रहे मध्यवर्ग का भारत वही भारत है जिसके कुल बच्चों में से ४० % कुपोषित हैं| आज भी जहाँ प्रसव के समय माँओं की होने वाली मृत्यु का दर ३० साल से गृह युद्ध झेल रहे श्रीलंका से भी ज्यादा है| बाह्य आतंकवाद के नाम पर भी हाय-तौबा मचाने वाला मध्य वर्ग आतंरिक और जरुरी मुद्दों पर मौन क्यों हो जाता है? २० रुपये रोज से कम पर जिंदगी जी रहे इस देश की ६९ % आबादी के लिए जिन्दा रहने के जद्दोजहद सबसे बड़ी समस्या है ना कि आतंकवाद और भ्रष्टाचार| मैं जानता हूँ कि कुछ मानवीय तर्क मध्य वर्गीय लोगों को परेशान कर रही है लेकिन सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता| आतंकवाद के हमले से मरने पर पूरी सभ्य समाज एक मुस्त से मुद्दा उठाकर हाय-तौबा शुरू कर देती है – सरकार निकम्मी, नेता चोर, इसे फाँसी दो इत्यादि...इत्यादि| लेकिन मध्य वर्ग के सबसे बड़े तीर्थ स्थल विश्व बैंक (World Bank) के दिए आंकड़ों पर हाय-तौबा क्यों नहीं मचती है? विश्व बैंक के मशहूर अर्थशास्त्री नैन्सी बेनिसल ने मध्य वर्ग की परिभाषा देते हुए कहा है कि विकाशशील देशों में मध्य वर्ग आबादी का वह हिस्सा जो १० अमेरिकी डौलर प्रतिदिन (करीब ४५० भारतीय रुपये) या १३५०० रुपये प्रतिमाह से ज्यादा  कमाती है पर देश के सबसे धनी ५% लोग हैं जिनके पास इतनी आर्थिक सुरक्षा होती है वही समाज कानून के शासन, अस्थायित्व के बारे में सोच सकें और आतंकवाद जैसे बातों के लिए हाय-तौबा मचाये|

अब जरा सोचिये कि जिस देश में कल के बारे में सोचने की फुर्सत सिर्फ ५% आबादी के पास हो और जहाँ ९५% लोग किसी तरह जिन्दा रहने के लिए जद्दोजहद करता हो, वहां यह बड़ा सवाल उठ खड़ा होता है कि कितने प्रतिशत की समस्या आतंकवाद और भ्रष्टाचार होगी और कितनों की भूख? जिस देश में ५०% ज्यादा लोगों के पास रहने का कोई स्थायी और सुरक्षित घर ना हो, आजीविका के साधन के बतौर कोई जमीन न हो, जिस देश के ६०% से ज्यादा आबादी के पास किसी किस्म की स्वास्थ्य सुविधा नही पहुंची हो, वहां आतंकवाद और आर्थिक भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा कैसे बन जाता है? आतंकवाद और भ्रष्टाचार निश्चित तौर पर बहुत गंभीर मुद्दा है परन्तु इससे भी गंभीर घटना वर्षों से अपने हालात पर रोना रोती रही है| अनिश्चितता के भावना से घिरे हुए, कुशासन से प्रभावित रहते हुए और जनता में असुरक्षा की भावना होने के बावजूद आतंकी गतिविधियों और अंदरूनी विद्रोही घटनाओं में गिरावट आई है| लगातार ९ वें साल में भी आतंकी और अंदरूनी विद्रोही घटनाओं में मरने वालो की संख्या में गिरावट आई है| जबकि २०१० में १९०२ मौतों का पंजीकरण किया गया, इससे साफ़ जाहिर होता है कि आतंकवाद की स्थिति में कमी आई है|

सबसे ज्यादा और तेजी से भारत में जो स्थिति बिगरी है वह है माओवादी उग्रवाद, मुख्य रूप से कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व द्वारा माओवादी, कई तरह के विद्रोही आन्दोलन ने काफी कमजोर किया| भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में जिस तरीके से आतंरिक विद्रोही समूह, क्षेत्रीय, पार्टी, नेता, कार्यकर्ता, विद्रोही गुट एक महत्वपूर्ण क्षमता के रूप में उभरी है| उसे भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता| यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असाम (उल्फा), नेशनल सोशलिस्ट कौंसिल, नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड, पूर्वोत्तर उग्रवादी समूह आई.एम.के. इशाक मुइवा और एन.एच.सी.एन. के खापयंक गुटों में शामिल एन.डी.एफ.बी., नुनिशिया गुट दिशालिन, यूनाइटेड पीपल्स डेमोक्रेटिक एकात्मकता (यु.पी.डी.एस.), कारबी लोंगरी उत्तरी कछाड हिल्स लिबरेशन फ्रंट (के.एल.एन.एफ.), राष्ट्रिय स्वयं सेवक अचिक (परिषद ए.एन.वी.सी.), कुकी नेशनल संगठन (के.एन.ओ.) और यूनाइटेड पीपल्स फ्रंट (यु.पी.एफ.) जैसे संगठन ने भी भारत को काफी कमजोर किया| ६७ से अधिक विद्रोही संगठन लगातार हिंसक गतिविधि करते रहे, जिसके कारण भारतीय सामाजिक, राजनैतिक, अर्थव्यवस्था प्रभावित रही| भारत की बहुसंख्यक राज्य पूर्ण रूप से आतंरिक आतंकवाद से प्रभावित है| आखिर क्या कारण है?

मध्य वर्गीय सभ्य समाज और लेखकों को इन मुद्दों को लेकर के गंभीर दिलचस्पी दिखाई नहीं पड़ी? क्यों देश के सभ्य समाज और लेखक को नहीं सूझती जिनके कारण आज आतंरिक आतंकवाद और बुराइयां हमारे देश को खोखला कर रही हैं| कौन सी ऐसी परिस्थिति उतपन्न हुयी है कई वर्षों से, जिससे हमारे देश के ही हमारे समाज के हमारे भाई आज हमसे अलगाव की बात करते हैं? अपना देश, अपना राज्य, अपनी स्वतंत्रा की बात करते हैं? निश्चित रूप से हमारी व्यवस्था में दोष हैं| अन्यथा हमारा ही भाई अपने देश को कमजोर क्यों करेगा? आज ये सबसे महत्वपूर्ण गंभीर विषय है जिस पर बहस होनी चाहिए कि कैसे हम आतंरिक मुद्दों को सुलझा सकें|



मैंने जो अनुभव किया है उसमे असफल अर्थ व्यवस्था, राजनैतिक लोकाचार विशेष रूप से सुरक्षा और न्याय प्रशासन, संस्कृति और भ्रष्टाचार और भारत के भीतर ही असमान्य समानता, विषमता का फर्क होना, यह सबसे बड़ा कारण है| आतंकवाद जैसी घटनाओं के साथ-साथ भारत के कुछ गंभीर घटनाओं पर भी लेखकों और मीडिया को हाय-तौबा मचाना चाहिए| आज देश के लिए सबसे गंभीर चिंता का विषय है देश में भूख से लाखों लोगों का मारना| एक नज़र आप पढ़े-लिखे लोग इन सरकारी आकड़ों पर भी ध्यान दें! यह एक सरकारी आंकड़ा है, हकीकत इससे और भी ज्यादा खतरनाक है, जो सरकार या किसी वर्ल्ड बैंक के आंकड़े में नहीं है लेकिन सरकारी आंकड़े ही काफी है दिल दहला देने के लिए|

१.      विश्व के एक तिहाई भूखे लोग भारत में रहते हैं|
२.      ८३ करोड़ ६० लाख भारतीय २० रुपये रोजाना से भी कम पर जीते हैं, जो कि आधे डौलर से भी कम है|
३.      प्रत्येक रात २० करोड़ भारतीय भूखे सोते हैं|
४.      भारत में २१ करोड़ २० लाख लोग कुपोषण के शिकार हैं|
५.      प्रत्येक दिन ७ हज़ार भारतीय भूख से मरते हैं|
६.      आज़ादी के बाद स्वास्थ्य के क्षेत्र में नाम मात्र के सुधार और हाल ही के सालों में ८% के ग्रोथ रेट के वाबजूद लगभग ५०% भारतीय बच्चों का कम वजन का होना और ७०% से ज्यादा महिलाओं एवं बच्चों में कुपोषण संबंधित गंभीर बिमारियों जैसे अनीमिया का होना, के कारण भारत में कुपोषण के कारण खामोश-आपातकाल की स्थिति बनी हुई है|
७.      २००६-०७ के बीच ७० लाख भारतीय बच्चे कुपोषण के कारण मरे थे (एक साल से कम उम्र के लगभग २० लाख बच्चे)|
८.      ३०% जन्मे बच्चों का वजन जन्म के समय उचित वजन से काफी कम होता है|
९.      ५६% शादी-शुदा महिलाएं अनीमिया से ग्रसित हैं और ७९% छ: से पैंतीस महीने के बच्चे अनीमिया से ग्रसित हैं|
१०.  भारत में भूखे लोगों की संख्या सरकारी आंकड़े के मुताबिक गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या से हमेशा ज्यादा रही है (१९९३-९४ में ३७ % ग्रामीण परिवार गरीबी रेखा के निचे थे जबकि ८० % परिवार कुपोषण का शिकार था)|
११.  बी.बी.सी के सर्वे के मुताबिक विश्व के एक चौथाई गरीब भारत में रहते हैं और १५ करोड़ लोग झुग्गी-झोपड़ी में रहते हैं|
१२.  पगडंडियों, सड़कों के किनारे, रैन बसेरों और खुले असमान के निचे ५०% मुंबईवासी सोते हैं|
१३.  एक तिहाई भारतीय आबादी गरीबी रेखा के नीचे रहती है|
१४.  भारत में २०८३ लोगों के लिए मात्र एक ही डॉक्टर की सुविधा है|
१५.  ५ साल से कम उम्र के एक हज़ार बच्चों में से २१८ की मौत हो जाती है|
१६.  भारत में २ लाख बच्चे हर महीने मरते हैं|
१७.  भारत में साढ़े चार लाख लोग सिर्फ टी.बी. जैसी बीमारी के कारण मरते हैं|
१८.  पिछले २० साल में गर्भपात एवं लिंगभेद करके एक करोड़ लड़कियों को मार दिया गया|
१९.  प्रत्येक साल गर्भपात से ५ लाख लड़कियों मार दिया जाता है|
२०.  १९०० से २००७ तक आये प्राकृतिक आपदाओं जैसे ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़, भूकंप, सुनामी, बवंडर आदि से भारत में ९१ लाख ८ हज़ार ६ सौ ९ जाने गईं|
२१.  भारत में प्रत्येक साल सड़क दुर्घटना में २ लाख ३० हज़ार (दुनिया में सबसे ज्यादा) लोग जान गंवाते हैं, इस मामले में भारत ने चीन को भी पीछे छोड़ दिया|
२२.  भारत में दुनिया की मात्र १% ही कारें हैं लेकिन दुनिया की १०% कार दुर्घटना भारत में ही घटती हैं|
२३.  भारत में कानून और नियम की कमजोरी के कारण तेज रफ़्तार से गाड़ी चलाना, हेलमेट, सीट बेल्ट का इस्तेमाल नहीं करना और नशे में गाड़ी चलाना सबसे बड़ा दुर्घटना का कारण है|
२४.  ट्रेन दुर्घटना में मरने वालों की संख्या २००० से ५००० के बीच है|
२५.  प्रत्येक तीन में से एक भारतीय को प्राथमिक शिक्षा नहीं मिलती|

ये सभी आंकड़े निम्न श्रोतों ले लिए गए हैं:

UN World Food Programme UN World Health Organization: Global Database on Child
National Commission for Enterprises in the Unorganized Sector
National Family Health Survey 2005 A- 06 (NFHS-3) (India)
Centre for Environment and Food Security (India)
Rural 21 (India)


अब सवाल उठता है कि देश में कब इन बहुसंख्यक लोगों के समस्याओं के लिए सभ्य समाज के लोग जागृत होंगे? कब सक्रियता आएगी? एक साल में आतंकवाद से मरने वालों की संख्या ज्यादा से ज्यादा ६०० से ७०० है लेकिन भूख से मरने वालों की संख्या २५ लाख से ज्यादा है| बीमारी से मरने वालों की संख्या लाखों-लाख| कई तरह से प्रकोप, परिस्थिति, प्रकृति, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था के के कारण लाखों लोग मरते हैं, इनपर हाय-तौबा क्यों नहीं मचती? क्योंकि इन मौतों की जिम्मेवार हाय-तौबा मचाने वाली पढ़े-लिखे सभ्य समाज ही हैं| इस देश के कई हिंदू, मुस्लमान, सिक्ख, ईसाई आतंरिक रूप से आतंकवाद जैसे कायरनामा हरकत से सख्त खिलाफ हैं| सभी चाहते हैं कि भारत, समृद्ध, खुशहाल और ताकतवर हो| यह भी सच है कि हजारों-हज़ार आतंकवादी दुनिया की कोई बाह्य ताकत या कोई व्यक्ति चाह कर भी भारत की एकता, संप्रभुता और हमारी धर्मनिर्पेक्ष विचारधाराओं को खत्म नहीं कर सकता| जो लोग आज आतंकवाद के नाम पर सिर्फ अपनी निजी राजनीती और सामाजिक स्वार्थ के लिए हाय-तौबा मचा रहे हैं, जिन्हें लगता है कि ऐसी संवेदनशील मुद्दों को लोगों के बीच लाकर अपने स्वार्थ की पूर्ति कर सकें, ऐसे ही मुट्ठी भर लोग इस तरह के संवेदनशील मुद्दों को ही चुनकर देश के मौलिक समस्याओं को हमेशा से दरकिनार करती रही है|

आम लोगों का ध्यान उस ओर जाने ही नहीं दिया गया, जिससे मनुष्य और सम्पूर्ण राष्ट्र खुशहाल हो सके| हमारे पास उर्जा है ५५ करोड़ युवाओं की, देश को आत्मनिर्भर बनाने वाले किसान की, मजदूर की, लेकिन एक बड़ी चुनौती है हमारे सामने, कैसे इस विशाल क्षमता का उपयोग हो? इस ताकत को आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक रूप से मजबूत कर आतंकवाद और आंतरिक आतंकवाद जैसे चुनौती को हम बहुत कम कर सकते हैं, रोक सकते हैं| जरूरत है भारत के इस उर्जा को समृद्ध करने की| सरकार को ध्यान देना होगा इन उर्जा की ओर ताकि इस उर्जा के भीतर त्याग करने का और देने का बोध पैदा हो सके, सूरज के तरह|

कभी सूरज पृथ्वी से नहीं कहता कि मेरा शुक्रगुजार रहो, मुझे कुछ वापस दो| बिना किसी उम्मीद के जिंदगी देता रहता है| जिस तरह सूरज के रुकने से उसकी रौशनी खत्म हो जायेगी, आज इसी कारण से भारत के ५५ करोड़ नौजवानों के भीतर की उर्जा के अभाव के कारण भारत के रौशनी मंद पड़ी है| ना तो ५५ करोड़ युवा के आत्मा को शांति मिलती है और ना ही भारत खुशहाल हो पाता है| उर्जा के भाव से ही बदले की भावना खत्म होगी| नैतिक उर्जा से ही सामाजिक बदलाव, अखंडता के साथ काम करने और अखंडता से जीतने का बोध पैदा होगा|

आतंकवाद और आतंरिक आतंकवाद को यदि रोकना है तो सामाजिक असंतुलन, हिंसा, भ्रष्टाचार जैसे समस्याओं का निदान आत्मा और जिंदगी के आतंरिक नैतिक बदलाव के कारण ही संभव है| उर्जा के भाव से ही उत्सर्जित, प्रेरित युवाओं का जन्म होगा| तभी सही दिशा से राष्ट्र के युवाओं के द्वारा किसी भी तरह के आन्दोलन को संचालित किया जा सकता है|

मेरा व्यक्तिगत विचार है कि सरकार किसान, युवा, मजदूरों को उर्जावान बनाने के लिए एक कानून बनाये जो सम्पूर्ण रूप से एक समूह की तरक्की के लिए काम करे| सरकार इस बात पर भी ध्यान दे कि जो कठोर और सक्षम कानून हमारे संविधान में हैं उस पर मजबूती से अमल करते हुए बिना किसी भय, लोभ के ठोस निर्णय ले|

समाज में आज दो तरह का माहौल है| मध्य वर्गीय और पढ़े-लिखे लोग सोचते हैं कि जब हम सरकार बनाने तक से लेकर समाज की सभ्यता, संस्कृति, किसी भी तरह की विचारधारा को माहौल बनाने की ठिकेदारी जब हम समूह के पास है, तो मैं सुरक्षित हूँ| बहुसंख्यक लोग सोचते हैं कि सरकार किसी की भी हो, तब भी हम विदेशी अंग्रेजों के गुलाम थे और आज भी हम अपने ही भाइयों, समाज के ठीकेदार, मुट्ठी भर लोगों के गुलाम हैं- हमारी जिंदगी का हाल तो वैसा का वैसा ही रहेगा| बहुसंख्यक लोग रोटी, कपड़ा, मकान, सड़क, बिजली, पानी, से आज भी आज़ादी के ६३ साल बाद, वंचित हैं| वे सरकार के भरोसे नहीं बल्कि अपने भाग्य, किस्मत और भगवान के भरोसे जी रहे हैं, और पढ़ी-लिखी समाज अपनी काबिलियत, चालाकी, दौलत, ज्ञान और सरकार के भरोसे जीते हैं, लेकिन अविश्वास का भाव दोनों समूह के बीच है| सरकार को इस अविश्वास के भाव को खत्म करना होगा और सभ्य समाज को भारत के ५५ करोड़ युवा तथा किसान, मजदूर के उर्जा के लिए भी आन्दोलन करना होगा|

Saturday 10 September 2011

निजी जीवन में अच्छे हुये बगैर न परिवार को, न समाज को और ना ही राष्ट्र को अच्छा बनाया जा सकता है


चारों तरफ एक ही बात, कौन जीता, कौन हारा; कोई कहता है जनतंत्र जीता, कोई कहता है जनगण जीते, तो कोई कहता है सरकार जीती| जिस किसी भी अखबार, टीवी में आप देखें, एक ही बहस, कोई दलित और मुसलमान के परोपकारी बन के लेख लिख रहे हैं, तो कोई नयी इतिहास, नई क्रांति, दूसरी आज़ादी की बात कर रहे हैं| युवाओं की भूमिका से लेकर अलग-अलग विचारधारा को लेकर अपनी बातों को ही जनता के नज़र में सही साबित करने में लगे हैं|

सवाल जीत या हार का नहीं है और ना ही इस बात का है कि अन्ना बड़ा या संसद; सवाल इसका भी नहीं है कि संविधान बड़ा या भीड़| तमाम बातों का निहितार्थ यही है कि देश की गरीबी खत्म होगी या नही? कई तरह की सामाजिक आर्थिक शोषण और बीमारी के कारण आज सामाज के बीच एक लंबा सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक असमानता है, शोषण है, नफरत है|

सवाल उठता है कि आपस में भय का वातावरण खत्म होगा या नही? किसानों की आत्महत्या रुकेगी या नही? भूख, कुपोषण, संक्रमण बीमारी से लोगों का मरना खत्म होगा या नहीं? सिर्फ एक ही सवाल है आज आम लोगों के सामने: खुशहाली का, राष्ट्र के तरक्की और संमृद्धि का, आत्मसम्मान का, सम्पूर्णता का| निश्चित तौर पर भ्रष्टाचार एक गंभीर समस्या है लेकिन यह कई तरह की समस्याओं से घिरा हुआ है| प्रकृति और परिस्थिति के कारण तरह तरह की समस्याओं को लेकर सवाल उठते रहे हैं, आंदोलन होते रहे हैं पर परिणाम वही ढाक के तीन पात! सवाल आज किसी को गाली देने या किसी को संत बनाने का नहीं है| सवाल है सदियों से चली आ रही खराब व्यवस्था कभी अच्छा होगा या नहीं? पूरे मामले में मेरा मानना है कि अन्ना हजारे और उनके टीम ने पूरे आंदोलन में जो रास्ता अपनाया है वह लोकतान्त्रिक नहीं रहा| रामलीला मैदान में फासीवादी और दकियानुसी भीड़ जमाकर सरकार पर दवाब देना और सरकार भी जन समर्थन की दुहाई देते हुये झुक जाना| यह भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है|

यदि कल के दिन कोई संस्था, कोई पार्टी २० लाख ५० लाख भीड़ जुटा ले, सरकार पर दवाब डाले कि आपको यह कानून माननी होगी तो क्या उसे भी मानेगी? सरकार ने जिस तरीके से देश में गलत संदेश दिया है वह भविष्य के लिए उचित नहीं है| रामलीला मैदान पर बच्चे और नाबालिक की भीड़, आम लोगों की भीड़ नहीं हो सकती| भीड़ को लोकपाल या जन लोकपाल के बारे में कुछ भी पता नही| उसके बावजूद भी क्या हमलोगों को ऐसा समझना चाहिए कि यह भीड़ सोच-समझ या कानून के समर्थन में उतरी थी| सवाल यह भी उठता है कि क्या भीड़तन्त्र हमारे जनतंत्र पर भारी पर रहा है| कुछ लोग इस भीड़ को दिखाकर जिस तरह जनतंत्र, लोकतंत्र, संविधान और संसदीय संप्रभुता के बीच जो तकरार की बात पैदा कर रहे हैं, वे लोग निश्चित रूप से फासीवादी ताक़तों से मिले हुये हैं| जिस तरीके से यह लिखा जा रहा है कि जोश, जज्बे और जन समर्थन के नाम पर इस आंदोलन ने संसद को झुका दिया|

कोई लिखता है कि राजनीतिक दल यह मान कर चल रही है युवाओं को संविधान, संसदीय व्यवस्था, भ्रष्टाचार, महंगाई और चुनावी व्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं लेकिन रामलीला के मैदान में देश भर के युवाओं ने मंथन किया| नौकरी पेशा हो या अध्ययन, आई.आई.टी. से ट्रेनिंग प्राप्त करने वाला या डॉक्टरी का प्रशिक्षण प्राप्त करने वाला हर क्षेत्र का युवा खड़ा नज़र आया| किसी ने अपनी लेखनी से फासीवाद की याद दिला दी, तो किसी ने लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को दरकिनार कर तानाशाही और विखंडनवादी प्रवृति को उकसाया|

जितनी दलीलें पक्ष में उतनी ही खिलाफ में भी| और लोकतंत्र का यह बुनियादी बात है कि जितनी मुँह, उतने विचार, उतने ही तर्क| यह कहना कि सिर्फ यही आंदोलन देश का कल्याण कर सकती है और जो भी आंदोलन हुआ वह देश और समाज के हित में नहीं था! अन्ना और अन्ना की टीम ही ठीक या फिर अरुंधती, अरुणा राय, अग्निवेश ही ठीक बाकी सब गलत! जो अन्ना के साथ दिया वो नैतिकवान और देशभक्त तथा जो उनके साथ नही खड़ा हुआ वह चोर, यह कैसे कहा जा सकता है|

एक परिपक्व लोकतंत्र में यह सामान्य बात है कि विचारों की विविधता का सम्मान हो, अपनी असहमति को अभिव्यक्त करने की सबको जगह मिले| सरकार और अन्ना हजारे से अलग भी लोगों के विचार हो सकते हैं| उन्हें प्रस्तुत करने का लोगों को उतना ही अधिकार है| सवाल है जनलोकपाल, लोकपाल या अन्य लोगों का लोकपाल पर सहमति, कहाँ तक किसी निरंकुश व्यवस्था को खत्म कर सकती है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा|

यह सही है कि जनता के बीच महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्या, भूख से मृत्यु, भ्रष्टाचार ने कई तरह के आक्रोश को और बढ़ा दिया| लोग कहते हैं कि सरकार जिद्दी और अभिमानी हो गई इसलिए आक्रोश पैदा हुआ तो अन्ना हजारे भी ऐसा ही रवैया नहीं दिखा रहे हैं क्या? अन्ना के समर्थक सरकार और संसद पर असंवेदनशील, चोर और भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहे हैं, क्योंकि वह अन्ना के बनाये लोकपाल बिल के प्रारूप को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हैं लेकिन क्या अन्ना के लोकपाल बिल पर शंका जताने वाला हर व्यक्ति को सरकार का पिट्ठू और देशद्रोही बताकर क्या वे अश्लीलता नहीं दिखा रहे हैं! आखिर अन्ना और उनकी टीम पूरे विश्वास के साथ यह दावा कैसे कर सकती है कि लोकपाल बिल का प्रारूप ही सही है और कोई उसकी आलोचना नहीं कर सकता? अगर सरकार खुद को सही साबित करने के लिए लोकप्रिय जनादेश और संसद के सर्वोच्च अधिकार का आड़ ले रही है तो क्या अन्ना की टीम दिखावटी नैतिकता के आड़ में छुपने की दोषी नहीं है?

मैं अन्ना की टीम या सरकार द्वारा तैयार लोकपाल बिल के प्रारूप की आलोचना करने के भारत के किसी नागरिक के अधिकार का समर्थन करता हूँ| निश्चित रूप से अन्ना के कही हर बात का आँख मूंदकर समर्थन नहीं करने का मतलब यह हरगिज नहीं कि किसी को देशद्रोही मान लिया जाए| जिस तरीके से अन्ना के टीम ने अप्रैल से ही प्रधानमंत्री, भारत की संसद, भारतीय चुनाव और यहाँ तक कि भारतीत लोकतंत्र को सार्वजनिक रूप से असंसदीय शब्दों के आधार पर कोसने का काम किया है| मैं मानता हूँ कि सरकार या दलों में ऐसे लोग भी होते हैं जो आलोचना के पात्र होते हैं परन्तु हर बात का एक लोकतान्त्रिक तरीका तो होना ही चाहिए| लोगों के उन्माद को हवा देने में कामयाब टीम की तानाशाही को स्वीकार नहीं किया जा सकता|

आखिर एक संविधान है, अदालत है, निर्वाचित संसद है, जिसके मूल्य हैं, आदर्श हैं, जिसे नियमावली के मुताबिक सबकुछ होना है| अन्ना की टीम हो या कोई भी अपनी अभिव्यक्ति को रखने का और विरोध करने का पूरा अधिकार है| लेकिन कोई भी उसको थोपने के जिद्द पर अड़ा नहीं रह सकता| विरोध प्रदर्शन का अपना प्रभाव भी होता है और इससे बदलाव भी होते हैं लेकिन यह हमारे संविधान और लोकतान्त्रिक मशीनरी के समर्थन के बिना नहीं हो सकते|

अन्ना जी को यह नहीं भूलना चहिये कि सरकार के कुछ गलत नीतियों और विचारों के कारण चंद सिविल सोसाइटी वाले तमाम मध्यवर्गीय लोगों के नायक हो गए| सरकार के गलतियों के कारण आपको जिस तरह से लोगों का सर्थन मिला उस तरीके से ना तो आपने बड़प्पन दिखाई ना उदार हुए|

भीड़ के कारण अब आप और आपकी टीम अड़े हैं कि उन्हें सब कुछ करने दिया जाए जो आप चाहते हैं| सरकार पूरी तरह नतमस्तक होकर आपके सभी मांगें मानती रहे| भूख हड़ताल टूटने के पहले और बाद में आप भावनाओं में हमेशा बहते रहे और आपके समर्थक और आपकी टीम भावनाओं में भीड़ देखकर, अतिउत्साहित होकर जो मन में आया, संसद, सांसद और लोकतंत्र के बारे में अनर्गल बयान देते रहे| क्या इसे जिद्दी, घमंडी और असंवेदनशील होना नहीं माना जायेगा?

भावनात्मक उन्माद से भरी भीड़ अगर उत्पात मचाने पर आतुर हो तो हिंसा और त्रासदी की स्थिति के बीच एक बारीक फर्क रह जाता है| हमें यह नहीं भूलना चाहिए जब क्रोध से भरी लोगों की उग्र भीड़ आवेश और उत्तेजना में थी तो १६ दिसम्बर के दिन भारत के धर्मनिरपेक्षता के टुकड़े-टुकड़े बाबड़ी मस्जिद को तोड़कर किया| १९८४ में दिल्ली और २००२ में गुजरात में क्या हुआ था? भीड़ यदि हर बातों का मापदंड है और वही जनपक्ष है तो फिर कश्मीर की आम राय को क्यों नहीं मान ली जनि चाहिए? लगातार तीन महीने तक धार्मिक भावनाओं को लेकर जम्मू के लोग सड़कों पर उतरकर अपनी मांगों को मनवाने के लिए केन्द्र सरकार पर दवाब रखा| जम्मू में आम आदमी को फल-फूल, रोजमर्रा की सब्जी तक नसीब नहीं थी| क्या सरकार को उनकी हर बात मान लेनी चाहिए थी?

इसी तरह के हालात पंजाब और हरियाणा में विभिन्न मुदों और विचारों को लेकर देखने को मिलता है, कभी लाखों की भीड़ को लेकर स्वयम्भू भगवान राम-रहीम का उत्पात, मौत का नंगा नाच, सरकार और न्यायालय दोनों इस भीड़ के सामने मौन| क्या इस भीड़ को भी जायज ठहराना चाहिए? हरियाणा के खाप की घटना को यदि याद किया जाए जहाँ भीड़ ही नहीं सभ्यता और संस्कृति के नाम पर लगातार मौत पर मौत दिया जा रहा हो, इसे क्या माना जाए? या फिर राजस्थान और उत्तर पश्चिमी प्रदेश में कभी मीना समुदाय के लोग तो कभी गुज्जर, जाट समुदाय के लोग लाखों जनपक्ष को लेकर जिस तरीके से अपनी बातों को मनवाने के लिए महीनों-महीनों तक परंपरागत लाठी, भाला, फरसा, अस्त्र-शस्त्र से लेकर भूखे-प्यासे, आर-पार की लड़ाई को तैयार बैठे रहते हैं, तो क्या सरकार को उसकी बात मान लेनी चाहिए? या फिर देश के बहुसंख्यक कमजोर समुदाय के लोग जो अपनी संप्रभुता के आरक्षण जैसे सवालों से लेकर दर्ज़नों सवाल को लेकर वर्षों वर्ष से सरकार पर दवाब बना रहे हैं, तो क्या सरकार को झुक जाना चाहिए? जब करोड़ों-करोड़ लोगों के सम्मति से  आर्थिक सम्पन्नता, रोजगार के व्यवस्था के सवाल इस देश में उठते रहे हैं तो फिर देश की यही मुट्ठी भर लोग जो आज कैंडल जला रहे हैं इनका विरोध का स्वर क्यों उठने लगता थे और है, फिर आरक्षण को लेकर आत्महत्या का दौर क्यों शुरू हो जाता है|

देश के तीन हिस्से लोग बटाईदारी कानून के पक्ष में है| देश के तीन हिस्से के लोग जल, जमीन, जंगल पर अपना अधिकार चाहते हैं| देश के बहुसंख्यक किसान अपने उपजाये हुये फसल की कीमत खुद लगाना चाहते हैं, तो फिर क्यों इस देश की सरकार ने इस बात को मानना उचित नहीं समझा? मुट्ठी भर सभ्य समाज के दिए हुये व्यवस्था पर ही तो आज तक यह सरकार चलती आई है|

जो भी सरकार आई, पूंजीपतियों की सरकार रही, जो भी कानून बना, हमेशा अमीरों और मध्य वर्ग को ध्यान में रखकर बनाया गया| आज़ादी के बाद से लेकर आज तक रोजगार, नौकरी, व्यापार या किसी भी तरह के धंधे और व्यवस्था पर अधिकार इसी सिविल सोसाइटी के नुमाइंदे, मुट्ठी भर लोगों की रही है| आज़ादी के बाद से आज तक कई प्रतिशत लोग, गरीब, दलित, कमजोर, पिछड़े-अतिपिछड़े, अल्पसंख्यक, आदिवासी समाज और परिवार के लोगों का कई प्रतिशत व्यापार या नौकरी पर अधिकार है|

जो लोग आज भ्रष्टाचार के खिलाफ हाय-तौबा मचा रहे हैं, सारी बुरी संस्कृति, परंपरा और सभी तरह की बुराइयां, जड़ता, इन्ही मुट्ठी भर लोगों की देन रही है| यही लोग भ्रष्टाचार के जनक रहे हैं| आज़ादी के बाद देश के लोकतान्त्रिक व्यवस्था में यदि संसदीय और विधानसभा के सीटों को छोड़ दिया जाए, दस साल, बीस साल पूर्व तक ९०% संसद, विधायक, मंत्री इसी सिविल सोसाइटी के नुमाइंदे के लोग हुआ करते थे|

देश के चारों स्तंभ विधानपालिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया को समझने और देखने की कोशिश करें तो प्रधानमंत्री से लेकर चपरासी तक, सर्वोच्च न्यायालय के चीफ से लेकर क्लर्क तक, सचिव से लेकर डी.एम. और सी.एम. तक कौन लोग थे और हैं? आज जन्म से लेकर मरण तक, कुंडली से लेकर कर्मकाण्ड तक पूजा, धर्म, समाज, आडंबर जैसे आवरण से लेकर के जीवन को जीने और समाज को चलाने वाले व्यवस्था पर किन लोगों का अधिपत्य है?

फिर आज वही मुट्ठी भर लोग खुद अपने हि किये पाप और कुकर्म पर हाय-तौबा क्यों मचा रहे हैं? तमिलनाडु की बहुसंख्यक जनता चाहती है कि राजीव के हत्यारे को माफ कर दिया जाए, कश्मीर के भीड़तंत्र की आवाज़ है अफजल को फांसी नहीं दिया जाए, पंजाब के पक्ष और विपक्ष एवं सम्पूर्ण समाज की आवाज़ है कि एक भुल्लर को माफ कर दिया जाए|

मीडिया और सभ्य समाज के लोग इस जनपक्ष को क्या कहेंगे? गलत या सही? सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार जरुर मिटना चाहिए लेकिन कैसे? बिना तर्क, विचारों, सिद्धांत के?

अन्ना के आंदोलन के मूल्य, विचार और उन्माद प्रमुख मीडिया का रिश्ता इसी आवेग, उन्माद से है जिसने अन्ना के पक्ष में माहौल बनाने में बरी भूमिका अदा की| क्या अन्ना आंदोलन लोकतांत्रिक सुधारों से जुड़ा है? पूंजीवादी व्यवस्था, भ्रष्टाचार की पोषक, रक्षक है? अन्ना ने कई बार कहा कि वे सामाजिक, आर्थिक विचार के पक्ष में हैं, लेकिन अन्ना का आंदोलन धन की सत्ता और महत्ता के साथ है|

यह आंदोलन व्यवस्था विरोधी आंदोलन नहीं थी, अन्ना ना तो सत्ता परिवर्तन और ना ही व्यवस्था परिवर्तन के पक्ष में हैं| एक जनलोकपाल बिल से भ्रष्टाचार की समस्या नहीं सुधर सकती है| सवाल उठता है अन्ना साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के पक्ष में हैं या विपक्ष में? अन्ना आंदोलन उपरी और सतही तौर पर व्यवस्था परिवर्तन का भ्रम पैदा कर रही है| यह बात भी सही है कि जनता और उनके प्रतिनिधि के बीच तीन दशक पहले विश्वास और सद्भाव का जो महीन धागा था वह टूट गया|

यह लोकतंत्र के लिए संकट है| किसी भी आंदोलन के पास अपनी राजनैतिक दृष्टि और विचारधारा थी, लेकिन अन्ना आंदोलन किसी भी राजनैतिक विचारधार के विरुद्ध है|

गाँधी ने अंग्रजों को भारत से भगाया था| गाँधी के सत्याग्रह और अन्नाग्रही में भिन्नता है| अन्ना क्या भ्रष्टाचारी को भारत से भगा रहे हैं? क्या यह संभव है? गाँधी के पास राजनैतिक दर्शन था, गांधीवाद एक विचारदर्शन है, जे.पी. समाजवादी थे, उनका समजवादी बिखर गया, बाद में उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया| जिसकी स्पष्ट अवधारणा उस आंदोलन के पास बहुत अधिक नहीं थी| अन्ना के पास कोई विचार है, ना सिद्धांत है, ना दर्शन|

उनका आदोलन किसी एक विषय के लिए सुधारवादी दिखाई जरूर देता है| अन्ना टीम की कई सदस्य गैर सरकारी संगठनों से जुड़ें हैं| एक ओर क्रांतिकारी का उल्लेख और क्रांति की बात और दूसरी ओर गाँधी की अहिंसा, इन दोनों में सच क्या है? क्या अन्ना आंदोलन इन दोनों के उल्लेख का भ्रम उत्पन्न नहीं करता? ऐसी परिस्थिति में दूसरी क्रांति से अन्ना का क्या मतलब? आज जिस तरीके से अन्ना की टीम कभी राईट टू रिकाल, कभी न्यायपालिका के सवालों को लेकर भीड़ के अहंकार पर, यह कानून तो ऐसा ही होना चाहिए, लगातार बोला जा रहा है| यह किसी भी लोकतंत्र के लिए मान्य नहीं होना चाहिए| मेरे ख्याल से मौजूदा दौर में संसदीय लोकतंत्र से बेहतर विकल्प कोई दूसरा नहीं हो सकता|

अध्यक्षात्मक प्रणाली के अपने खतरे हैं, इस लिहाज़ से देश का कानून बनाने की जिम्मेवारी संसद की ही होनी चाहिए और इससे समझौता नहीं होना चाहिए| यह भी सवाल उठता है कि इस पूरे प्रकरण की नौबत क्यों आई? अगर सरकारी लोकपाल बिल कमजोर थी तो विपक्ष को इसमें सुधार की माँग जोरदार करनी चाहिए|

एक और मसला है कि हमें संसद में अच्छे लोगों को चुनकर भेजने की ओर ध्यान देना होगा| अगर हमारे प्रतिनिधि नैतिकवान, चरित्रवान और ईमानदार होंगे, तभी वे अच्छे और जनकल्याण वाले कानून बना पाएँगे| प्रतिनिधि अच्छा हो, इसके लिए जरुरी है कि राजनीति में अच्छे लोग शामिल हों, लेकिन यह जो आप एक-दूसरे के आरोप-प्रत्यारोप, देश में हिंसा फ़ैलाने की बातें अन्ना के टीम के द्वारा उठाया जा रहा है, यह कहाँ तक सही है?

अन्ना की टीम ने अरुणा राय, अरुंधती, अग्निवेश, ना जाने किन-किन लोगों को गालियों से सुशोभित की जा रही है और इधर की टीम अन्ना के टीम को गलत साबित करने में लगी हुई है| सवाल ना तो अन्ना के टीम का है, ना ही किसी और टीम का| सवाल है स्थिति बदलनी चाहिए| असली जन भागीदारी के रूप में किसान, मजदूर, गरीब, आदिवासी, बहुसंख्यक अशिक्षित छात्र नौजवान से शुरू होनी चाहिए| यह सही है कि भ्रष्टाचार घुन की तरह लोगों में समाया है| समाज में हर जगह भ्रष्टाचार हो रहा है| इससे देश के प्रगति पर असर हो रहा है| भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्सा भी व्याप्त है लेकिन यह भी सही है कानून से भ्रष्टाचार दूर नहीं किया जा सकता है| मेरा तो स्पष्ट मानना है, और यह मेरा व्यक्तिगत विचार भी है कि गिनती भर लोग होंगे इस देश में जो भ्रष्टाचार में शामिल नहीं होंगे, और यह एक कड़वा सच है कि निजी जीवन में भ्रष्टाचार को कोई खत्म नहीं कर सकता है|

Wednesday 31 August 2011

युवाशक्ति: उम्र 34 वर्ष-11 साल से जारी है अनशन, सुध लेने वाली...

युवाशक्ति: उम्र 34 वर्ष-11 साल से जारी है अनशन, सुध लेने वाली...: इंफाल ( मणिपुर ). शहर का जवाहरलाल नेहरू अस्पताल। एक कॉरिडोर के चैनल पर ताला लगा है। यह जेल में तब्दील है। भीतर छोटे ...

Monday 29 August 2011

उम्र 34 वर्ष-11 साल से जारी है अनशन, सुध लेने वाली कोई नहीं




इंफाल (मणिपुर). शहर का जवाहरलाल नेहरू अस्पताल। एक कॉरिडोर के चैनल पर ताला लगा है। यह जेल में तब्दील है। भीतर छोटे से वार्ड में हैं 34 वर्षीय इरोम चानू शर्मिला। 11 बरस बीत गए। पानी की एक बूंद तक गले से नहीं उतरी। नाक में लगी फीडिंग टच्यूब के जरिये तरल भोजन पर जिंदा यह औरत हड्डियों के ढांचे में ही बची है।



इरोम एकदम अकेली हैं। किसी से मिल तक नहीं सकतीं। घरवालों और साथी आंदोलनकारियों से भी नहीं। उनकी मांग एक ही है- आम्र्ड फोर्स (स्पेशल पॉवर्स) एक्ट 1958 खत्म हो। इसके उलट सरकार ने खुदकशी की कोशिश (आईपीसी की धारा 309) के आरोप में उन्हें कैद कर रखा है। अन्ना ने अपने आंदोलन में इरोम को भी बुलावा भेजा। इरोम ने जवाब भेजा- मैं इस वक्त कैद में हूं। निकल नहीं सकती। यहीं से समर्थन दूंगी।

इरोम कॉरिडोर में धीरे-धीरे टहल रही हैं। चैनल की तरफ देखा। मुस्कराईं। वापस मुड़ गईं। पुलिस हर 14 दिन में हिरासत बढ़ाने के लिए अदालत ले जाती है। एक साल से ज्यादा जेल में कैद नहीं रख सकते, इसलिए पुलिस बीच-बीच में दो-तीन दिन के लिए छोड़ने की रस्म भी बदस्तूर निभाती रही है। इस दौरान भी वे आधा किलोमीटर दूर स्थित घर नहीं जातीं। वहीं एक टेंट में रहती हैं। बांस की खपच्चियों और टीन का बना टेंट उनके समर्थकों का ठिकाना है।

दो-तीन दिन बाद पुलिस उन्हें फिर जेल में डाल देती है। वह भले ही मकसद में अन्ना जैसी कामयाब हो पाई हों लेकिन दो वर्ल्ड रिकॉर्ड जरूर बन गए हैं - सबसे लंबी भूख हड़ताल का और सबसे ज्यादा बार जेल जाकर रिहा होने का। वह पढ़ने की शौकीन हैं। कविताएं लिखती हैं। योग करती हैं।

पानी पीती नहीं इसलिए ब्रश की जगह सूखी रूई से दांत साफ करती हैं। कमरे में एक ही खिड़की है, घंटों वहां बैठ बाहर ताकती हैं। चार घंटे सोती हैं। बाकी समय किताबें। मां ने बताया-उसका प्रण है कि जब तक मांग पूरी नहीं होगी, घर में दाखिल नहीं होऊंगी। भाई सिंघाजीत को एग्रीकल्चर अधिकारी की नौकरी छोड़नी पड़ी। मां ने भी फैसला किया है भूख हड़ताल खत्म होने तक वह बेटी से नहीं मिलेंगी ताकि, उसका जज्बा कमजोर हो।

इसलिए अनशन पर सुरक्षा बलों द्वारा 10 लोगों की हत्या की प्रत्यक्षदर्शी शर्मिला की मांग है कि आम्र्ड फोर्स (स्पेशल पॉवर्स) एक्ट 1958 को हटाया जाए, क्योंकि यह कानून सुरक्षा बलों को बिना किसी कानूनी कार्रवाई के गोली मारने का अधिकार देता है।

अन्ना ----------------- शर्मिला

अनशन के दिन - 10 दिन - दस साल 9 महीने

समर्थन - लाखों की भीड़ - मुट्ठी भर लोग

खास समर्थक - देश के युवा - कुछ बूढ़ी महिलाएं

अनशन कैसा - पानी पीकर - बिना पानी पिए

प्रचार - टोपी, पोस्टर, बैनर - चुनिंदा पोस्टर

इरोम के नाम दो वर्ल्ड रिकॉर्ड हैं- 

एक सबसे लंबी भूख हड़ताल

दूसरा सबसे ज्यादा बार जेल से रिहा होने और मजिस्ट्रेट के सामने पेश होने।


इरोम को पढ़कर, देखकर और सुनकर, सरकार की संवेदना तो नही जगी, क्या इस देश से मानवता नाम की चीज खत्म हो गयी? सरकार भी अजीब है, इसे सिर्फ वोट और भेड़ का भय होता है| सरकार के संविधान में नैतिकता, मानवता और इंसानियत के लिए कोई जगह नही, सिर्फ उनका अजेंडा लागू होना चाहिए| लेकिन मीडिया के टीम से मैं जानना चाहता हूँ कि क्या वे महीने लगातार इरोम के मुद्दों को लेकर लाइव टेलेकास्ट दुनिया को दिखायेंगे?

३४ वर्ष की संवेदनशील क्रन्तिकारी नायिका जो १० साल से पानी तक नहीं पी है, क्या उसके लिए कभी टीम अन्ना जैसी संस्था या किसी अन्य की ऑंखें खुलेगी या नहीं? यह एक सच है कि जहाँ मीडिया और ग्लैमर नहीं, धन का समागम नहीं, वहाँ इस देश के नौजवान नज़र नहीं आते| आज ने नौजवानों को चाहिए ग्लैमर और पैसे| मीडिया को आप किसी हिस्से से हटा दीजिए और कोई बड़ी आंदोलन कर के दिखा दीजिए तो मैं राजनीति छोड़ दूँगा| मैं खास तौर पर मनमोहन सिंह,सोमनाथ चटर्जी, मेघा पाटेकर, अब्दुल कलाम, अरुंधती रॉय, स्वामी अग्निवेश और मानवाधिकार के टीम से आग्रह करूँगा की मानवता और मणिपुर के लिए इस मुद्दे का हल निकलने का प्रयास करें|