Monday 25 July 2011

हमाम में सब नंगे - क्लर्क से मुख्यमंत्री और करोड़पति बने


हमाम में सब नंगे - क्लर्क से मुख्यमंत्री और करोड़पति बने



भ्रष्टाचार से बुरी तरह घिर चुके कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा की संपत्ति महज तीन साल में ही १.८२ करोड़ से २० करोड़ से ऊपर हो गयी| ४६ साल पहले, येदियुरप्पा ने समाज कल्याण विभाग में साधारण से क्लर्क की नौकरी छोड़कर राजनीति में कदम रखा|

वे शुरू से ही आर.एस.एस. के कार्यकर्ता के रूप में कार्यरत थे| येदियुरप्पा का संघ के प्रति निष्ठा और समर्पण ने उन्हें २००८ में कर्नाटक के शीर्ष कुर्सी पर बैठा दिया और बहुत कम समय में ही इन्होंने बी.जे.पी. के मजबूत नेता के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर ली| आखिर ऐसा कौन सा चमत्कार दो साल में हो गया कि येदियुरप्पा करोड़ों के मालिक हो गए? उनकी करोड़ों के जायदाद में ५० लाख रुपये का ढाई किलो सोना और हीरा, १७ लाख के ७६ किलो चांदी, उनके खाते में लगभग ५० लाख रुपये हैं, इसके अलावे अचल संपत्ति में २७ एकड़ कृषि भूमि के साथ, बैंगलोर के राजमहल विलास क्षेत्र धवलगिरी में लगभग एक करोड़ का मकान है, इस तरह इन्होंने ६०० फीसदी संपत्ति बहुत कम समय में बढ़ा लिया| येदियुरप्पा की संपत्ति जो आम लोगों के सामने है ये सिर्फ हाथी के दिखने वाले दांत के जैसे हैं, बेनामी संपत्ति का कोई थाह ही नही है|

येदियुरप्पा ने प्रदेश में अवैध खनन और भूमि घोटालों से २ - ४ सौ करोड़ से भी अधिक संपत्ति अर्जित किया है| लोकायुत संतोष हेगड़े ने तो स्पष्ट रूप से कहा है, “येदियुरप्पा के कार्यकाल में कर्नाटका में अब तक सैकड़ों – करोड़ों भूमि घोटाले सामने आये| मुख्यमंत्री पर आरोप है कि इन्होंने राज्य सरकार की भूमि को अपने बेटों और सहयोगियों में आवंटित किया| उन पर प्रदेश में लोह अयस्क के खनन  को बढ़ावा देने का सीधा आरोप लगा| मात्र दक्षिण – पश्चिम के क्षेत्र को लीज़ पर देने के लिए येदिय्राप्पा ने २० करोड़ घूस लिए और दान के रूप में १० करोड़ रुपये लिए, इसके बाद तमाम विरोध के वाबजूद, बेल्लारी जिले में अवैध खनन को मज़रंदाज़ किया| लगातार आरोप के वाबजूद भी कैबिनेट में सामिल रेड्डी बंधुओं पर कोई करवाई नहीं की|”

वैसे मैं यह समझता हूँ कि हमाम में सब नंगे हैं| आज राजनीति की स्तिथि समाज में यह है कि जनता - नेता दोनों मस्त| हर डाल पर उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तां क्या होगा? वैसे राजनीति की इस मकड़जाल में से ईमानदार और संत को ढूंड पाना बहुत मुश्किल है|

एक कहावत है, एक संत प्रति दिन एक बूढी बीमार वैश्या की सेवा करने जाता था क्योंकि उसे देखने वाला कोई नही था| उसके दर्द में हिस्सेदार बनने वाला कोई नहीं था| आम आदमी नहीं समझ पाया कि वो संत वहाँ क्यों जाते हैं| समाज को लगा कि ये संत भी उसी रंग में रंग चुके हैं| कुछ देर के लिए उन्हें भी आलोचना के दौर से गुजरना पड़ा, परन्तु बाद में सच्चाई सामने आई कि वो किसी बीमार, नि:सहाय, अबला की सेवा करने जाते थे| समाज में उस संत का स्थान और ऊँचा हो गया| वर्त्तमान भारत की राजनीति में यही स्तिथि कुछ बचे-खुचे ईमानदारों और संतों का है|

Friday 15 July 2011

अतुल्य भारत…..!!!





भारत को आज़ादी देने के खिलाफ, १९४० के दशक में विंस्टन चर्चिल का भाषण : - “सत्ता चली जाएगी ठग, लूटेरों और मुफ्तखोरों के हाथों में! भारतीय नेता कम क्षमता वाले होंगे और उनमें निर्णय लेने की शक्ति नही होगी| वे चाटुकारिता पसंद करेंगे और बेवकूफ होंगे|

“जात, धर्म, सत्ता और यहाँ तक कि बेवजह भी वे लोग आपस में लड़ेंगे| भारत राजनीतिक उथल-पुथल में गुम हो जायेगा|  एक ऐसा दिन भी आयेगा जब भारत में पानी और हवा पर भी टैक्स लगेगा| वास्तव में भारतीय अभी तक ना ही तैयार हुये हैं और ना ही उनमे क्षमता है की अपनी आज़ादी के जिम्मेवारी को संभल सकें|

अतुल्य भारत…..!!!
क्यों हम इस कदर गिर गए कि उसकी सारी भविष्यवाणियों  को सच साबित करने को तुले हैं…???

Monday 11 July 2011

कोशिश करने वालों की हार नही होती

लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती|

नन्ही चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है,
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढकर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है,
आखिर उसकी मेहनत बेकार नही होती,
कोशिश करने वालों की हार नही होती|

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा-जा कर खाली हाथ लौट आता है,
मिलता नही मोती सहज ही गहरे पानी में,
बढ़ता दूना एहसास इसी हैरानी में,
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नही होती,
कोशिश करने वालों की हार नही होती|

असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो!
क्या कमी रह गयी, देखो और सुधार करो!
जब तक ना सफल हो, नींद चैन की त्यागो तुम!
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम!
कुछ किए बिना ही जय-जयकार नही होती,
कोशिश करने वालों की हार नही होती|

                                                    राजेश रंजन
                                                    (पूर्व सांसद)

Monday 4 July 2011

भीड़, ईमानदारी, पद, प्रतिष्ठा, ताकत और धन लोकतंत्र में किसी भी बात का मापदंड नहीं हो सकता |



का पर करूँ सिंगार पिया मोड़ आन्हर - यह हाल आज-कल अन्ना जी के सिविल सोसाइटी का है| शेर पर सवाशेर की कहावत भी भ्रष्टाचार वाली इस लड़ाई में चरितार्थ होते दीखा| रामदेव जी का चाल, चरित्र, ढोंग, मानवीय संवेदना, बहुरूपिया रूप और रामलीला मैदान के नाटक-कथा दुनियाँ के बेहतरीन नाटकों में से एक रही|

रामदेव जी के मामले में यह लोकोक्ति पूरा फिट बैठता है-चौबे गए छबे बनने, दूबे बनकर लौटे| परन्तु अन्ना जी, आप तो रामदेव जी के तरीकों और विचारों को ही हमेशा गलत कहते रहे हैं! वर्चस्व और अहंकार की लड़ाई में नैतिकता और विचरधारा का क्या औचित्य? ‘हम तो हम’ वाली बात! कोई ईर घाट तो कोई वीर घाट! सवाल उठता है अन्ना जी कि आप तो अपने मरने तक की कसम खाकर आये थे कि जरूरत पड़ेगी तो गाँधी की राह को छोड़कर सुभाष-भगत-चंद्रशेखर की राह भी पकड़ लेंगे| लंबी-लंबी नैतिकता की पाठ आपकी सिविल सोसाइटी नसीहत के तौर पर देने लगी|

याद कीजिये अन्ना जी जब आप जंतर-मंतर पर बैठे थे! आपके लोगों ने सभी राजनीतिक पार्टी, सभी नेता को चोर कहा था| इतना ही नहीं चौटाला साहेब और उमा भारती को बेइज्जत करके भगा दिया था| कहानी यही खत्म नहीं होती, यहाँ तक कहा गया कि जिन्हें बात करनी है, उसे बिना चुनी(जनता के द्वारा) हुई सिविल सोसाइटी से ही बात करनी होगी| हम ही हैं सुपर पॉवर, जिन पर करोड़ों-करोड़ जनता ने अपना विश्वास जताया है; जिन्हें लोगों ने अपना जनप्रतिनिधि चुना है...बनाया है...माना है, उसे तो आप लोगों ने रद्दी के टोकरी में फैंक दिया| आप लोगों ने तो मान लिया कि मेट्रो सिटी या शहर में रहने वाले लोग और इंग्लिश पढ़ कर बोलने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी लोग जिनके पास उधार की विचार होती है, दलाली और धोखाधरी का धन होता है, कई तरह के बहुरूपी चेहरा होता है, ऐसे लोग नैतिकता वाली गलत पुस्तक बचपन से ताउम्र पढते रहते हैं और उसे ही सभ्य समाज कहा जाता है| इनलोगों को जानना हो तो उसके दोस्त बन जाएँ तब पता चल जायेगा ये लोग घर में कुछ और बहार में कुछ और, दिन में कुछ और रात में कुछ और ही होते है|

ऐसे भीड़ को देखकर ही आपलोग अपने को संविधान से ऊपर समझ लिये| आन्ना जी आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि यह जो सिविल सोसाइटी है उसे जनता ने नहीं बल्कि वे स्वयं ही अपने मियाँ मिट्ठू बन गए हैं और खुद ही अपने को सुपर पॉवर मान लिया|
अन्ना जी, निश्चित तौर पर आप एक नेक, नैतिकवान और देश, समाज के लिए समर्पित इंसान हैं, परन्तु यह देश, समाज ऐसे भले लोग से नहीं चलता है जो कहने और देखने के लिए भले होते हैं परन्तु उनका शरीर, मन, तन किसी मनुष्य के लिए हिलता-डुलता तक नहीं, जुबान और आँखें हमेशा बंद ही रहता है| परन्तु ये ‘भले लोग’ राष्ट्र और समाज को नुकसान नहीं पहुंचाते| परन्तु मेरा मानना है कि आज समाज को अच्छे लोगों की जरुरत है जो ईमानदार, नैतिकवान, चरित्रवान हों जरूर, परन्तु उनका पूरा जीवन समर्पित हो सिर्फ आम आदमी के लिए| अच्छे लोगों के भीतर गलत को गलत कहने की ताकात होती है| ये लोग चुप नहीं बैठते हैं, सकारात्मक या रचनात्मक प्रतिक्रिया देने में देर नहीं करते, जो जीने के लिए नहीं हमेशा मौत के तरफ अपना कदम बढ़ाते रहते हैं| हमेशा जीते ही हैं दूसरों के लिए| ऐसे लोग चाहिए जिनके नेतृत्व में राष्ट्र और समाज को बढ़ाया जाये|

जब आप लोग सभी नेता और पार्टी को गाली दे चुके हैं, उन्हें मंच से भगा चुके हैं, फिर क्या जरुरत पड़ गयी सबके दरवाज़े की खाक छानने की? आज चोर और बेईमान लोगों का गली द्वार कैसे याद आ गया? कभी आर.एस.एस., भाजपा को गाली तो कभी वे सबसे अच्छे, ये दो चेहरा क्यों? आप क्यों असीम ताकात चाहते हैं? आपकी सिविल सोसाइटी भ्रष्टाचार को सिर्फ नेता और नौकरशाह तक क्यों सीमित रखना चाहती है|

भ्रष्टाचार के मूल मन्त्र को जानना होगा| जो भ्रष्टाचार गरीब को प्रभावित करता हो, जो भ्रष्टाचार आम जीवन को प्रभावित करता हो और जो राष्ट्र के साथ-साथ सम्पूर्ण मानव सभ्यता के संस्कृति को प्रभावित करता हो, उसे समझना होगा|

अन्ना जी, हमसब को अपने अंदर की गलत सोच को खत्म करना होगा| यह जो एक-दूसरे को अमर्यादित बातें से अलंकृत करने की परिपाटी शुरू हुयी है उसे रोकना होगा| कम से कम किसी ना किसी को तो इन तौर-तरीकों से अलग होना होगा| एक आग्रह है आपसे, ‘लोकतंत्र’ की रक्षा ‘भीड़तंत्र’ से नही किया जा सकता है - इस बात को समझें| भीड़ किसी बात का मापदंड नही हो सकता है| यदि ऐसा है तो राजनीतिज्ञों को गाली क्यों? फिर कतिपय लोगों को बाहुबली क्यों कहा जाता है? एक बात और याद रखने की जरूरत है, ईमानदार होने से और भला होने से ही सब कुछ को सही नही ठहरया जा सकता| आपसे आग्रह है, ‘खूंटा यहीं गड़े’ इन बातों को छोड़ आगे बढिए| जिद और अहंकार हमे कभी भी सही मंजिल पर पहुँचने नही देगा| अन्ना जी व्यावहारिक पहलू का समाज में महत्व है, इसे नही भूलना चाहिए| कहावत है, चोर मचाये शोर| यह जो भीड़ है; वह किसी की नही होती| ये लोग अपने जीवन के लिए सब कुकर्म करते हैं| बहुसंख्यक लोग समाज में गलत आदत से जीना चाहते हैं| देखा गया है कि गलत व्यक्ति भी अपनी मान्यता को समाज में अपने धन, पद, ताकात और रसूख के द्वारा मनवा लेते हैं| क्या ऐसे ही लोगों को हम सभ्य नागरिक मान लेंगे? सभ्य समाज को पूरी आज़ादी मिली हुई है कि जो उनके मन में आये वह बोलें और करें! उस सभ्य समाज के तौर-तरीके या कहिये उनकी अभिव्यक्ति और प्रतिक्रिया से न्यायालय, सरकार, प्रेस प्रभावित होकर अपना विचार बनाती है|

भीड़ ही सही है तो भुल्लर को फांसी क्यों? अफजल को फांसी क्यों? भीड़ ही सही है तो अयोध्या में मंदिर क्यों नही बना लेते, फिर न्यायालय की क्या जरूरत? भीड़ ही सही है तो ढोंगी संत महात्मा के हाथों में सत्ता क्यों नही दे देते? भीड़ ही सही है तो मंदिर के पुजारी और मस्जिद के इमाम की बात क्यों नही मान ली जाती? भीड़ ही सही है तो जादू दिखाने वाले पी.सी. सरकार को प्रधानमंत्री क्यों नही बना देते? भीड़ ही सही है तो नरेन्द्र मोदी को गलत नही कहना चाहिए, फिर बाल ठाकरे और राज ठाकरे को मनमानी करने की पूरी आज़ादी मिलनी चाहिए! या अगर भीड़ ही सही है तो कश्मीर में पूरी स्वायत्तता दे देनी चाहिए! क्यों नही आपलोग कश्मीर को वहाँ के लोगों के विचार पर छोड़ देते? फिर क्यों वहाँ स्वाभिमान या संविधान की बात उठती? भीड़ ही सही है तो लालू जी, मायावती, करूणानिधि, जयललिता, कनिमोझी, राजा, कलमाड़ी जी को बंद क्यों किया? क्यों इनलोगों को संवैधानिक पाठ पढाया गया? क्यों ये लोग जेल गए? भीड़ ही सही है तो – खालिस्तान को क्यों नही मान लिया गया, उल्फा की बात क्यों नही मानी गयी, लिट्टे को क्यों नही मान्यता मिली, क्यों नही तमिल देश को मान लिया गया, लादेन को क्यों मारा गया, सद्दाम को क्यों फांसी दी गयी, आज़ादी से लेकर आज तक प्रधानमंत्री की कुर्सी पर किसी आदिवासी, पिछड़े मुसलमान या दलित का बच्चा क्यों नही बैठा, न्यायालय में अधिक पद दलित और पिछड़े मुसलमान को क्यों नही दिया जाता? जहाँ सम्मान, बराबरी, पिछड़े नेता की बात आये तो चोर है, यह देश नही चला सकता, न्याय नही कर सकता, तब भीड़ को आधार क्यों नही माना जाता?

क्या कम कपड़े पहनकर, सिर्फ इंग्लिश बोलकर, इंडिया गेट पर कैंडल जला लेने मात्र को ही भीड़ मान लिया जाये और उसके बात को जबरदस्ती स्वीकार करवा दिया जाये!? अन्ना जी सोचिए, समझिए, चिंतन कीजिये, भीड़ और ईमानदारी किसी भी बात का मापदंड नही हो सकता| कहावत है, सैंया भईल कोतवाल तो अब डर काहे का| इस परंपरा को रोकना होगा|

Friday 1 July 2011

गरीब के जान की कोई कीमत नहीं




एक मच्छर के प्रकोप से साठ  (60) मासूम व्यक्तियों की जान चली गयी; यह कोई नियति नहीं थी या प्रकृति के प्रकोप के कारण नही हुआ| यह तो निकम्मी स्थानीय प्रशासन के लापरवाही तथा सरकार की उदासीनता के कारण घटित हुई| मुजफ्फरपुर की यह विकराल त्रासदी देखते-देखते ६० जाने ले ली| रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था| यहाँ बच्चे मर रहे थे और वहाँ हमारे सूबे के मुखिया चीन के विकास को देखकर इतरा रहे थे| भले ही सरकार के नज़र में गरीब इंसान की कोई कीमत नहीं परन्तु जो अपने मासूम बच्चों को बेसहारा बनाकर चले गए, जिनके सपने और उम्मीदें ही खत्म हो गयी...सपना या भविष्य का एक मात्र सहारा या जीवन का वह मासूम बच्चा जिसे काल ने निगल लिया...कहाँ ढूंढें उसे, कौन बनेगा गरीब का सहारा, कौन होगा बुढ़ापे का सहारा! क्या बीमारियाँ सिर्फ गरीबों के ही सपनों को तार-तार करने के लिए आती है| भगवान की नज़र में सिर्फ गरीब ही पापी होते हैं, अमीर लोग सिर्फ पुण्य ही करते हैं! और पिछले जन्म का भी पुण्य इन्ही लोगों के पास जमा होता है!?
सरकार चाहती तो शुरू में ही बीमारी को समझकर, पहचान कर उसे रोका जा सकता था| परन्तु सवाल उठता है कि मर कौन रहा है? उससे सरकार के सेहत पर क्या असर पड़ेगा? मीडिया तो हाय-तौबा मचायेगी नहीं क्योंकि मरने वाले बच्चे उनके पाठक वर्ग नही थे...उनके दर्शक वर्ग भी नही थे, इसीलिए इससे उनके सेहत पर क्या असर पड़ेगा!?

सरकार और विपक्ष ६०-६० निर्दोष मासूम जिंदगी खत्म होने के बावजूद भी संवेदनशील नहीं हुई, ना तो मुख्यमंत्री जी को फुर्सत मिली ना ही उप-मुख्यमंत्री जी को, और विपक्ष की तो कहावत है उसे मानवीय मूल्य से कुछ लेना-देना नहीं है, बस उसे पार्टी या अपना भला दिखना चाहिए| सत्ता और विपक्ष एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं| ये दोनों मौसेरे भाई लाभ-हानि को देखकर काम करते हैं| दो मौत अगर गोली से हो जाये तो देखिये नेता की नेतागिरी, परन्तु ६०-६० जानें चली गयीं लेकिन किसी के कान पर कोई जूँ तक नहीं रेंगा| सभ्य/नागरिक समाज ने पी.आई.एल. करने की जरूरत नहीं समझी, ना ही माननीय न्यायलय ने स्वयं ही कोई संज्ञान लिया! फिर कौन करेगा न्याय? कौन देगा मुआवजा? कौन देगा नौकरी? कौन बनेगा बेसहारों का सहारा? लापरवाही के कारण गंदगी और गन्दगी के कारण मौत ही मौत! क्या अब भी आपको लगता है कि सरकार संवेदनहीन नहीं है? सिर्फ नाम मात्र भर कहने और दिखाने के लिए यह शोषित, पीड़ित, गरीब, निरीह लोगों की सरकार है यह सरकार संवेदनशील कहलायेगी!? मै तो कई बार कह चुका हूँ कि यह सरकार सिर्फ पूंजीपतियों के लिए बनी है|
आइये जगायें सरकार को, जगायें विपक्ष को, ताकि उम्मीद की एक किरण फूटे| क्या इन मासूमों के मौत के लिए जिम्मेदार लोगों पर कभी करवाई होगी? कोई जांच कमिटी गठित होगी? किसी दोषी को सजा मिलेगी? क्या सोई हुई सभ्य नागरिक समाज के लोग इंडिया गेट पर कंदील जलाएंगे इनके लिए? क्या इस नैतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ, सिविल सोसाइटी का भूख हड़ताल होगा? क्या इन बच्चों में दुनिया का भविष्य नहीं था? क्या इनमे से कोई प्रधानमंत्री, वैज्ञानिक या अब्दुल कलाम नहीं बनता? आपको याद होगा (और समझना भी पड़ेगा) कि अब्दुल कलाम भी गरीब परिवार से ही थे| एक कलाम ने भारत का सपना साकार किया, क्या इन ६० बच्चों के, उनके परिवार के सपने, नहीं थे? स्वास्थ्यमंत्री को नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे देना चाहिए और सरकार को चाहिए कि  संबंधित सभी अधिकारीयों पर तत्कालीन त्वरित कारवाई करते हुए उन पर जांच चलाए|

नितीश जी, याद रखियेगा चन्द्र बाबु नायडू को भी बहुत घमंड था कि अमेरिका के (पूर्व) राष्ट्रपति, बिल गेट्स आदि भारत आने पर सबसे पहले उन्ही से मिलते थे; क्या हश्र हुआ उनका! सरकार को सामाजिक, मानवीय और व्यावहारिक पहलू को गंभीरता से ध्यान देना होगा| पक्ष-विपक्ष तथा  नागरिक समाज से विनम्र अनुरोध है कि सब एकजुट होकर (वोट की राजनीति से ऊपर उठ कर) न्याय दिलाने हेतु कार्य करें|
धन्यवाद

दकियानुसी समाज की संवेदनहीनता के चपेट में अंशु माला



लोग कहते हैं कि शास्त्र में जो लिखा है वही सही है, मैं समझता हूँ कि शास्त्र लिखने वाले भी इंसान ही थे, भगवान तो थे नहीं, उस वक्त के महान इंसान ही अपने पूर्वजों और गुरुओं से सुनकर/सीखकर ही आने वाली पीढ़ी को बताया होगा| हम सब जानते हैं-लेखनी के पहले वाले युग में सिर्फ श्रुति थी| जो सुना और देखा उसे ही हम सुनते/समझते आये| शास्त्र में लिखा है कि भगवान या प्रकृति नियति के अनुसार सृष्टि की रचना और संचालन करती है| परन्तु शास्त्र में यह कहीं नहीं लिखा है कि सारी नियति सिर्फ गरीब, कमज़ोर और मजबूरों के लिए ही बनी है या फिर यह तर्क कि यह नियति पूर्व जन्म के पाप-पुण्य के कारण है| शास्त्रों के सारे नियम सिर्फ गरीबों के लिए ही बनी है तथा पाप-पुण्य का (कर्म)फल गरीबों पर ही लागू होता है| ऐसा ही देखने को मिला एक राष्ट्रीय स्तर के शास्त्रीय संगीतकार अंशु माला झा के साथ|
कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत अंशु, मात्र २७ साल के उम्र में ही अपने संगीतकला से देश के शास्त्रीय संगीत प्रेमियों को प्रभावित करते हुये अपना दीवाना बना चुकी है, आज वह खुद नियति के दोराहे पर खडी मौत और जिंदगी से जूझ रही है| पूर्वजों ने सही कहा है-इस किस्मत के खेल को कोई नहीं जनता|
अंशु के जीवन के साथ मजाक/खिलवार अपनों के ही द्वारा हुआ; जिन्हें नियति ने जीवनसाथी के रूप में चुन कर दिया और उसी नियति (जीवन साथी) ने अंशु के हँसते-खेलते घर को बर्वाद कर दिया| भारतीय परंपरा और रीति में पति को परमेश्वर का दर्ज़ा दिया गया है| भारतीय नारी अपनी सारी मोह-ममता-सुख को त्याग कर पति के आत्मीय भाव, आतंरिक प्रेम के कारण अपना सब कुछ समर्पित कर सिर्फ और सिर्फ उसकी पूजा करने में लग जाती है| अंशु भी ऐसी ही थी;इसके बावजूद इसके पति और ससुरालवालों ने जो अमानवीय आचरण/व्यवहार दिखाकर एक जघन्य अपराध किया उसे भुलाया नहीं जा सकता| मानो अंशु के पति ने अंशु या एक मासूम त्याग की प्रतिमूर्ति किसी नारी से नहीं बल्कि राष्ट्रीय ख्यातिनाम तथा इसके साथ आने वाले (संभावित)धन से शादी किया हो| क्या सिला दिया भगवान और समाज ने : एक तरफ माँ बनने की खुशी और दूसरी तरफ मौत का दावत! देखते-देखते ससुरालवालों की लापरवाही (माँ को पौष्टिक आहार नहीं देना और सही से देख भाल नहीं करना) से अंशु के दोनों किडनी नाकाम हो गया| और उसी वक्त नकारा, निकम्मा, अमानव पति बिन-कमाऊ पत्नी को बोझ समझकर मायके पहुँचा दिया| पति का अमानवीय कृत्य यहीं खत्म नहीं हो गया- मायके पहुँचने के तुरंत बाद, माँ की ममता जिन्हें अभी १५ दिन भी बच्चा को जन्म दिए नहीं हुये थे, उन्हें यह कहकर कि दादी-दादा काफी अच्छे से देखभाल करेंगे, बिलखती माँ के गोद से १५ दिन का नवजात बच्चा छीन कर चला गया| एक तरफ बीमारी और पीड़ा से व्यथित अंशु अपने बच्चा के दूर होने का दर्द सह नहीं पाई और धीरे-धीरे अंशु का मन, चित्, आत्मा, विवेक, धैर्य, विश्वास सब कुछ जवाब दे दिया|

एक सिपाही की बेटी अंशु को परिवारवालों ने अपने हैसियत के मुताबिक बहुत प्रयास किया कि उनकी बेटी पुनः चहके, हंसे, गाये, उसका जीवन लौटाया जा सके पर सब कुछ बेकार| माता-पिता की स्थिति नहीं थी कि उसे बड़े अस्पताल में इलाज करबाया जा सके| सबने सामाजिक दकियानुसी बातों पर छोड़ दिया–जो भाग्य में लिखा है वही होगा| अंशु धीरे-धीरे मौत के नजदीक पहुंचती जा रही थी| संयोग से एक संवेदनशील इंसान सिकंदर को कहीं से इसकी खबर मिली जो कि हिंदुस्तान अखबार के रिपोर्टर हैं| उनकी नेक नियत से उनका कलम (रपट बनाने के लिए)चल पड़ा- एक मासूम को बचाने के राह पर...|

अगले दिन सुबह मेरी नज़र पड़ी उस अखबार पर, पढते ही आत्मा झकझोड़ दिया| चाहरदीवारी में बंद मेरे पास कोई रास्ता नहीं था कि तुरंत कुछ कर पाऊं, इन्तजार था कि कोई हमसे मुलाकात करने आए (या किसी परिचित का मुलाकाती आये) ताकि पत्र के माध्यम से मै अपने कार्यालय को तुरंत मदद करने के लिए कहूँ| समय आ गया जिससे पत्र बहार जा सके| दूसरे दिन अखबार में पढ़ा कि पूर्व सांसद रंजीत रंजन ने अखबार पढ़ कर युवाशक्ति के साथी को आग्रह किया कि उन्हें मदद भेजी जाय| जो मेरे मन में था वही हुआ| युवाशक्ति के साथियों ने प्रयास शुरू कर दिया अंशु जी के जीवन को बचाने के लिए| उसी बीच मौर्या चैनल, न्यूज़ २४, सहारा, महुआ आदि के स्वतंत्र पत्रकारों ने अपनी संवेदना दिखाई, परन्तु इस नैतिकताविहीन संवेदनहीन समाज के भीतर कोई हलचल नहीं हुई|

मेरे लिखने तक शायद किसी का हाथ मदद के लिए नहीं बढ़ा| किसी भी धनपशु की संवेदना नहीं जागी| इतना ही नहीं, तीन दिन बाद सरकार ने कहा कि इलाज चल रहा है, परन्तु कहीं कोई मानवीय संवेदना नहीं दिखी|

मेरा आप सभी सभ्य नागरिक समाज के लोगों से आग्रह है कि अंशु को बचाने हेतु सहयोग करें| खास तौर पर पुलिस मेंस एसोसिएशन से आग्रह है कि आपके पास एक बड़ी संख्या में (लगभग ६५ हज़ार) आरक्षी भाई हैं| क्यों नहीं एक महीना के तनख्वाह मेंसे मात्र ३० रुपया सहयोग/दान स्वरूप अंशु को मदद करें ताकि राष्ट्र के गौरव को बचाया जा सके|