Tuesday 19 June 2012

राजधर्म पर जातिवादी-आदमखोर-नायक भारी


राजधर्म पर जातिवादी-आदमखोर-नायक भारी



 जाति का इतिहास ३००० सालों का है| परन्तु जातिवाद का जन्म मेरी समझ से सौ-डेढ़ सौ साल पहले का है| मेरा मानना है कि १८५७ के बाद ब्रितानिया उपनिवेशवादी नीतियाँ, इसके प्रमुख कारण बने| लेकिन इसका आधारभूत कारण रहा हमारा स्वार्थ, निजी (कु)विचारधारा, अहंकार, जिद्द, जुनून रहा है|


हमारा सामाजिक अतीत हमें बताता है कि हमारे गाँवों में जातियां वहाँ की अर्थव्यवस्था की महत्वपूर्ण इकाई हुआ करती थी जो संबंधित जाति को रोटी की गारंटी देती थी|  जाति संगठन के रूप ब्यवस्थित नहीं हुआ करते थे| परन्तु १८५७ के दौरान देश में जातीय संगठन का उद्भव या जन्म अखिल भारतीय कायस्थ महासभा से हुआ| इसके बाद ब्राह्मण महासभा, भूमिहार महासभा और देखते ही देखते १९१२ तक आते-आते लगभग २० जातीय संगठनों का अस्तित्व भारत में बन चुका था| आज़ादी के लड़ाई के बाद आज़ाद  भारत का सबसे बड़ा सपना था आर्थिक संपन्नता, अमन, शांति और एक मजबूत लोकतंत्र की स्थापना| परन्तु आजतक भारत में सही अर्थ में लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सका| आज़ाद भारत में आज कोई भी आन्दोलन सामाजिक वर्गीकरण के तौर पर नहीं होकर जातीय एवं सांप्रदायिक तौर पर हो जाता है| इतिहास से हम सबक नहीं लेते, यही कारण है कि वो हमेशा अपने को दोहराता रहता है| यह सच है कि हिंसा के रास्ते किसी भी समस्या का सम्पूर्ण समाधान नहीं हो सकता| दो विश्व युद्ध हुए, संयुक्त राष्ट्र संघ बना, शांति के लिए हर दिशा में पहल की जाती रही| फिर भी हम कोलाहल में जीते रहे और उसमे खो जाते हैं|

शोषण, भेद-भाव, कर्मकांड, आडम्बर... जब तक गरीबी और अमानवीयता अस्तित्व में रहेगी, तब-तब भगवान बुद्ध को बार-बार धरती पर आकर परंपरागत व्यवस्था का विरोध करना होगा| ऐसे ही महापुरुष समरसता की नई राह बना सकते हैं| सम्राट अशोक ने धर्म के माध्यम से सामाजिक समरसता के  विकास का प्रयास किया था| यह सच है कि बिहार का अतीत, उसकी सामाजिक संरचना, भाईचारा और सौहार्द का रहा है| यहाँ का अतीत शानदार रहा है| बिहार ने हमेशा रचनात्मक पहल की है| आज का हिंदुस्तान जिस भाईचारे को लेकर गर्व करता है वो बिहार की ही देन है| गाँधी के द्वारा चम्पारण से चलाया गया आंदोलन सफल हुआ| भगवान बुद्ध, अशोक, वैशाली, नालंदा, विक्रमशिला, मंडन मिश्र, बाबू वीर कुंवर सिंह, राजेंद्र प्रसाद, ब्रज किशोर प्रसाद, शेर शाह सूरी, मौलाना अबुल कलाम आजाद, दिनकर-रेणु के साहित्य, भिखारी ठाकुर जी की देसी विरासत, मिथिला और भोजपुर की संस्कृति, अंगदेश का त्याग, लोरिक-सलहेस की कथा और गाथा, सामाजिक, आर्थिक, राजनितिक शोषण-दोहन के खिलाफ हमेशा से बिहार की अपनी पहचान बनी है| बिहार ने जहाँ एक तरफ देश भक्त पैदा किये हैं, वहीँ राजशाही, ज़मींदारी सामाजिक शोषण के खिलाफ बड़े-बड़े नायक को संघर्ष के प्रतीक के रूप में जन्म दिया है| बिहार में जो जाति व्यवस्था या सामाजिक व्यवस्था है उसका सबसे बड़ा, एक और, कारण भूमि व्यवस्था है|

भूमि-सुधार-कानून प्रभावी ढंग से लागू नहीं हुआ और महानायक कर्पूरी ठाकुर को छोड़ अब तक बिहार की सभी सरकारें अमीरों के लिए नीतियाँ बनाती रहीं हैं; समाज के अंतिम व्यक्ति के लिए नहीं| गरीबों के विकास के लिए आधारभूत संरचना को मजबूत नहीं किया गया| आज़ादी के बाद भारी मसक्कत के बाद भी गरीबों को दो वक्त की रोटी सही ढंग से नहीं मिल पाई| रोजगार की व्यवस्था नहीं हो सकी| यह एक सच है कि शांति स्थापना केवल समस्या के समाधान से ही हो सकता है| देश में जब तक, संवैधानिक प्रक्रिया के अंतर्गत, कोई भी सरकार अपने मजबूत इरादों से वंचितों, गरीबों, शोषितों को उनका हक, इन तबकों को सम्मान सुनिश्चित नहीं करेगा तब तक केरल, कर्नाटक, पंजाब, राजस्थान हो या बिहार या भारत का कोई अन्य राज्य, वहाँ जातीय और वर्ण व्यवस्था को खत्म नहीं किया जा सकता| मैं बहुत विनम्रता से उन अख़बारों और मीडिया के मालिकों से कहना चाहता हूँ कि आपके नज़रों में जाति व्यवस्था ८० या ९० के दशक में से दिख रही हों या अख़बारों या मीडिया में लिखने वाले तथाकथित संपन्न ऊँचे घरानों से ताल्लुकात रखने वाले लेखक को बिहार और उत्तर प्रदेश में जातिवाद का इतिहास दिख रहा हो| यह सच्चाई से बिल्कुल अलग है|

भारत में शोषण का सबसे बड़ा इतिहास दक्षिण के राज्यों और महाराष्ट्र, बंगाल सहित पूर्वोत्तर में देखने को मिला| मेरा मानना है कि किसी भी तरह का शोषण जातीय या वर्ण व्यवस्था को जन्म देता है| और एक बड़ा सच: जिन लोगों ने आज़ादी के बाद अपना एकक्षत्र अधिपत्य कायम किया, उन दलों के नेताओं के विचारधाराओं ने भी धीरे-धीरे जातीय व्यवस्था को मजबूत करने में काफी सहयोग दिया| राजस्थान का शोषण आज भी जीता-जागता उदाहरण है| राजस्थान के शोषण को याद कर आज भी मन-तन काँप जाता है| महाराष्ट्र के दलितों का अगर शोषण याद करते हैं तो आँसू रुकते भी नहीं रुकता| दैनिक जागरण के निशकांत ठाकुर जी जैसे सम्पादकीय लिखने वाले अनेकों पत्रकार पुराने इतिहास को भूलकर नए इतिहास को ताज़ा करने में लगे हुए हैं| क्या यह जातिवाद सामाजिक कु-व्यवस्था को जन्म नहीं देगा? कर्पूरी ठाकुर जी, स्व. जगदेव को गाली देने वाले लोगों को क्या भुलाया जा सकता है? क्या गुनाह किया था इन दोनों नायकों ने? आज़ादी के बाद जो सरकार बनी, उस सरकार को शोषण के खिलाफ और वंचितों  के अधिकार, उनके सम्मान के लिए अनवरत संघर्ष करने का काम किया|










यह बात सच है कि लालू यादव ने कभी “भूराबाल(भु-मिहार रा-जपूत बा-भन ला-ला) साफ करो” का नारा दिया था| जिसे सामाजिक और मानवीय दृष्टिकोण से स्वीकारा नहीं जा सकता| इसे कोई भी सभ्य समाज गलत ही कहेगा| लेकिन उस सच्चाई को भी नहीं नाकारा जा सकता, जब नारा दिया गया था कि “आरक्षण कहां से आई, कर्पूरी की माँ बीआई”| सच्चाई के दोनों पहलुओं को देखना चाहिए| बिहार के जातीय सच को जानने के लिए मैं आपको थोड़ा पीछे ले जाना चाहता हूँ| श्री बाबू की सरकार बनी, १५ सालों के सरकार में एक ही समाज के लोगों को आर्थिक, राजनितिक, सामाजिक पहचान मिली| डॉ. जगन्नाथ मिश्र की सरकार बनी| एक छोटे से लम्हे का जिक्र करना चाहता हूँ| मिथिला यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई| क्या कारण है कि एक ही समाज के लोग चपरासी से लेकर शीर्ष कुर्सी तक विराजमान हुए? भगवत झा आजाद की सरकार बनी| उनके काल में इंटरममीडिएट की स्थापना हुई| इसमें ९०% एक समाज के लोग चपरासी से लेकर शीर्ष कुर्सी तक स्थापित हुए| सत्येन्द्र बाबू मुख्यमंत्री बने| मगध यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई| अधिकांश पदों पर एक ही समाज के लोग स्थापित हुए| इन सरकारों का इतिहास उठा कर देख लें! जितने भी आयोग बने, सबके सब कमजोर, वंचितों, भूमिहीनों के विरोध में बने| इनका जीता-जगता उदाहरण आज भी इन सभी जगहों पर मिलता है| इतिहास के पन्नों में आज़ादी के बाद के सभी सरकारों के निर्णय आज भी लिखित में सर्वसुलभ हैं| सभ्य समाज के लोगों से मैं कहना चाहता हूँ कि बिहार के जातीय व्यवस्था को जानने के लिए नक्सलबारी आंदोलन के साथ-साथ जमींदारी व्यवस्था को भी जानना होगा| मैं ज्यादा अतीत में नहीं जाना चाहता हूँ लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि बिहार में नक्सली आंदोलन मूल रूप से भूमिसुधार और सामाजिक शोषण के खिलाफ था| यह कहना कि जाति व्यवस्था को जन्म माले, माओवादी या लालू यादव के आने के बाद हुआ, बिल्कुल ही गलत है|
बिहार में नरसंहार का इतिहास बहुत पुराना है| देश का सबसे चर्चित और सबसे पहला नरसंहार चंदवा रूपसपुर के बाद इतिहास ने पुन: १९७७ में बेलछी में १४ दलितों के हत्या एक पिछड़ी जाति के दबंगों के द्वारा जिस प्रकार किया गया, जिसके कारण जनता पार्टी सरकार की नींव हिल गई| इंदिरा गाँधी का हाथी पर चढ़कर और घुटने भर पानी में पैदल चलकर जान, इस नरसंहार को और भी चर्चित बना दिया| और तब से लेकर नरसंहारों का सिलसिला चलता रहा|१९८६ में अरवल नरसंहार से पूरा देश हैरान रह गया, जब पुलिस ने दिन-दहारे गरीब किसानो का नरसंहार किया| उसके बाद १९८७ में दलेलचक बघोरा में नरसंहार हुआ जिसमें ५२ राजपूतों की हत्या हुई| दबंग जाति के लोगों की हत्या एक पहली घटना थी| इसी तरह बाड़ा में १९९२ में ३४ भूमिहारों की हत्या दूसरी बड़ी नरसंहार थी| इसी १९७० के दशक के अंत में कई जाति आधारित निजी सेनाओं का गठन शुरू हुआ| इसमें ब्रह्मर्षि सेना, लोरिक सेना, सुनलाईट सेना, कुंवर सेना, किसान संघ प्रमुख थे| उस समय बिहार में तीन मुख्य संगठन भाकपा माले (लिबेरशन), पार्टी यूनिटी तथा एम.सी.सी. के पास खुद की हथियारबंद टुकडियां थीं| इनमे एम.सी.सी. सबसे ससक्त करवाई करता था| एम.सी.सी. और पार्टी यूनिटी हथियारबंद संघर्ष तथा हत्या की नक्सली विचारधारा को मानते हुए वर्ग शत्रुओं के सफाया को उचित और महत्वपूर्ण मानते थे| किन्तु लिबरेशन ने इस विचारधारा को त्याग दिया| १९८६ में लिबरेशन ने इन्डियन पीपुल्स फ्रंट नमक संस्था बना ली और खुली राजनीति में आ गए| इस बीच रामाधार सिंह ने स्वर्ण स्वर्ण लिबरेशन फ्रंट बनाया, जिसने १९९१ में सावनबीघा नरसंहार को अंजाम दिया| उसके बाद रणवीर सेना का गठन १९९४ में भोजपुर जिले के बेलाउर गाँव में हुआ| इसके प्रमुख बनाये गए ब्रह्मेश्वर उर्फ मुखिया|

रणवीर सेना एक मामले में ब्रह्मर्षि सेना और स्वर्ण लिबरेशन फ्रंट का नया अवतार था| इसकी नामकरण १९वीं सदी के भूमिहार योद्धा रणवीर चौधरी के नाम पर हुआ, जिन्होंने राजपूतों के खिलाफ मोर्चा खोला था| और उसके बाद शुरू होता है खूनी खेल| २२७ हत्या और २६ नरसंहार करने वाले मुखिया को उनके  विरोधी खूनी मानते हैं और उनके जात वाले उनको अवतार मानते हैं| नितीश सरकार के एक भूमिहार मंत्री ने तो उन्हें गाँधी की उपाधि दे दी| दूसरी तरफ लालू जी ने उन्हें किसान नेता कह दिया| मुखिया समर्थकों का तर्क है कि नक्सलवादी संगठन हिंसा कर रहे थे और लोग मारे जा रहे थे तो इन्होंने इसके परिपेक्ष्य में एक दस्ता तैयार किया जो आतंक को संतुलित बनाये रखे| जिनके कारण ही नक्सलियों की ओर से करवाई बंद हुई और सवर्ण लोग खेती करने लगे| जेल से निकलने के बाद इन्होंने खुलेआम बयान दिया कि सरकार जब जमींदार, किसान की रक्षा करने में नाकाम रहेगी तो लोगों के पास हथियार उठाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है| यही तर्क नक्सली भी देते हैं| सरकार जुल्म, अन्याय और शोषण को रोकने में अक्षम रही है तो हिंसा के अलावा कोई चारा नहीं है| नक्सलियों के पास अपनी सामानांतर व्यवस्था है जिसमे वे अपने हिसाब से न्याय या दोषियों को दंड देते हैं|
जो भी सरकार आई पूंजीवादी व्यवस्था को जन्म दिया| पंचायती व्यवस्था के लागू होने का बाद, जाति व्यवस्था को और बल मिला| सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक रूप से मजबूत किये बगैर इस समस्या का हल नही निकलने वाला है| समाज के निचले, कमजोर, वंचितों के बीच भी राजनीतिक भूख काफी प्रबल रूप से सशक्त हुई| जिनके कारण सेनाओं और वंचितों के बीच अपने अधिकार, सम्मान की लड़ाई, वर्चस्व की लड़ाई में परिवर्तित होता चला गया| राजनितिक दलों ने भी इसके खूब फायदे उठाए| देखा जाए तो बड़े राजनेताओं का जन्म जातिवाद के गर्भ से ही हुआ| यह एक सच्चाई है| और इस सच्चाई को राहुल गाँधी ने और बल दिया यह कह कर की “मैं पहले ब्राह्मण हूँ, और तब एक नेता”| राजनितिक दलों के नेताओं ने लोकतंत्र और जमात के विश्वास को छोड़ जाति की राजनीती करने लगे| जिसका नतीजा हुआ कि प्रत्येक जाति के लोगों ने अपने को संरक्षण देने वाले को हीरो मानने लगे, चाहे वह २२७ हत्याओं का आरोपी ही क्यों न हो| उनका मानना है कि ये तमाम अपराध उन्होंने उनकी रक्षा के लिए किया है|

इसी तरह से ब्रह्मेश्वर जातिगत लड़ाई में जाना-माना नाम के रूप में उभर कर आया| इनकी पहचान निजी सेनाओं के संरक्षक के रूप में बनी| १९९० के दशक के बाद पुन: जब नक्सली संगठन और बड़े जमींदारों के बीच संघर्ष बढ़ा या लड़ाई तेज हुई तो दक्षिण भारत में जमींदारों ने खासकर भूमिहार समाज के मुखिया के नेतृत्व में खूनी-भिरंत के लिए तैयार हुए| इधर भाकपा-माले, एम.सी.सी जैसे प्रतिबंधित संगठनों ने गरीबों की लड़ाई लड़ने का निर्णय लिया| ब्रह्मेश्वर मुखिया, कांग्रेस नेता जनार्दनराय राय, भोला सिंह, प्रो. देवेन्द्र सिंह, योगेश्वर सिंह, चौधरी छंछू, कमलकांत शर्मा, अवधेश सिंह आदि ने प्रमुख रूप से मुखिया के नेतृत्व में भूमिका निभाई| गाँव-गाँव जाकर भूमिहार वर्गों को जगाया|       लाइसेंसी हथियार से लेकर गैर-लाइसेंसी हथियार का इकठ्ठा किये जाने लगे| और शुरू हो गया दोनों तरफ से खूनी खेल| बेगुनाहों का कत्लेआम, किसानों और मजदूरों के नाम पर| दोनों संगठन सरकार के लिए चुनौती बन गए| भाकपा माले और एम.सी.सी. का विस्तार मध्य बिहार में तो था ही रणवीर सेना भी हिंसा-प्रतिहिंसा की बदौलत अपना विस्तार मध्य बिहार में कर दिया| १९९० के दशकों में रणवीर सेना ने बड़े-बड़े दो नरसंहार कर दिए| लक्ष्मणपुर बाथे में ५८ दलितों को मारकर ब्रह्मेश्वर मुखिया ने नायक के रूप में अपनी पहचान बनाई| इस घटना ने राष्ट्रीय स्तर पर पुन: जातिगत हिंसा को पहचान दिलाई| यह नरसंहार उन ३७ ऊँची जातियों के व्यक्तियों से जुड़ा था, जिसे बाड़ा नरसंहार कहा जाता है| बाड़ा नरसंहार में नक्सलियों  ने ३७ उच्च जाति के लोगों को मारा था| जिसके जवाब में यह अंजाम दिया गया| और यह सिलसिला दोनों तरफ से चलता रहा| दोनों संगठनों पर सरकार के द्वारा प्रतिबन्ध लगने के बावजूद भी यह नहीं रुका| सरकार की लुंजपुंज व्यवस्था और शासन पदाधिकारियों की भूमिका निष्क्रिय होती गई| इन सब कारणों से सेनाओं की सीधी टक्कर होती रही| अक्सर देखा गया है कि कोई भी सरकार हमेशा उच्च वर्गीय या सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक रूप से मजबूत वर्ग का साथ देती रही| लेकिन तब की लालू प्रसाद की सरकार निश्चित रूप से समाज के वंचित, गरीब, कमजोर के सरकार के रूप में जानी जाती रही| १५ सालों तक लगातार गरीबों, वंचितों, कमजोरों के वोट के बदौलत राज करने वाली सरकार कोई भी निर्णायक कदम नहीं उठाया| लालू यादव जी सरकार सिर्फ राजनितिक और सामाजिक रूप से ही गरीबों को ताकत दे पाई| मूल ताकत इन सरकारों में भी संपन्न और खुशहाल समाज के लोगों को ही मिली|

१५ साल किसी भी सरकार के काम करने के लिए काफी है| यह भी सच है कि लालू यादव की सरकार को कमजोर करने में पूंजीपतियों की प्रमुख भूमिका रही| लेकिन यह सच है कि लालू यादव ने आर्थिक, शैक्षणिक और रोजगार के मामलों में समाज के कमजोर तबकों के लिए कोई योजना नहीं बनायी| खासतौर पर यदि भूमिसुधार पर काम किया जाता तो मध्य बिहार में नरसंहार का दौर कभी नहीं होता| सिर्फ अपनी कुर्सी को बचाने के लिए उन्होंने सामाजिक समरसता को तार-तार होने दिया| उन्होंने राजधर्म को नहीं निभाया, सिर्फ वोट धर्म निभाया| धर्म, वोट धर्म के सामने कमजोर पड़ गया| नितीश की सरकार और नितीश जी ने भी यह साबित कर दिया कि वोट धर्म ही सर्वोपरि है, राजधर्म नहीं| वैसे नितीश जी अपने पहले काल में वोट धर्म का नंगा खेल खेल चुके हैं| अमीरदास आयोग कमिटी को भंग करके, सामाजिक न्याय के महानायक कर्पूरी ठाकुर के दत्तक पुत्र के रूप में लालू यादव के साथ नितीश जी का भी नाम आता रहा| कर्पूरी ठाकुर का चोला पहनकर उनकी विरासत का दंभ भरने वाले दो खलनायक सामाजिक न्याय तो तार-तार होने दिए| एक तरफ जहाँ कर्पूरी जी को गाली देने वाले मुट्ठी भर ताकत से नितीश ने हाथ मिलाया| वहीँ स्व. जगदेव को लाठियों से मार देने वाले ताकतों ने नितीश को महानायक बना दिया| रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था| ठीक उसी तरह २२७ लोगों का नरसंहार करने वाले व्यक्ति के शव को महानायक बनाने वाले राजनीति के तहत मध्य बिहार से पटना लाया गया, और नितीश जी भागलपुर और किसनगंज में बंसी बजाते रहे| आज तक इस सन्दर्भ में एक भी बयान नहीं दिया| ७ साल की इनकी सरकार में इन्होंने कमजोरों, वंचितों पर लाठी चलवाया|

यह सच है कि लालू जी को ९० के दशक में जो उभार मंडल कमीशन, वी.पी सिंह, मुलायम सिंह, शरद यादव, राम विलास के नेतृत्व में मिला, वह उभार नितीश जी के आने के बाद नहीं मिला| लालू यादव यदि सामाजिक व्यवस्था के उभार के रूप में जाने गए तो नितीश जी जातीय व्यवस्था के उभार के रूप में| लालू की बोली ने लालू को उच्च जातियों का विरोधी बना दिया| तो नितीश की करनी ने बिहार के वंचितों और गरीबों को कमजोर किया| दलित, महादलित, पिछड़ा पसमांदा मुसलमानों का नारा, पिछड़ा, अति पिछड़ा का नारा, जातीय व्यवस्था को काफी मजबूत करने का काम किया| जाति व्यवस्था को खत्म करने का दावा करने वाले नितीश जी जातीय जनाधार वाले नेता, भले ही उसके खिलाफ कितना ही संगीन-संगीन अपराधिक मुकदमा चल रहा हो, को ही टिकट क्यों देते हैं? रणविजय सिंह, मुन्ना शुक्ला, सुनील पांडे, अनंत सिंह जैसे गंभीर अपराधिक छवि और पृष्ठभूमि वाले, जाति विशेष के नेताओं को क्यों टिकट दिया? अगर उन्हें अपने विकास की राजनीति पर इतना ही भरोसा था तो किसी अन्य बुद्धिजीवी नेता अथवा पार्टी कार्यकर्ता को वहाँ का टिकट दे देते! सिवान और मधुबनी का उपचुनाव नितीश जी की जातीय व्यवस्था को समझने के लिए काफी है|



मेरा मानना है कि कोई भी हत्या किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता| मैं ब्रह्मेश्वर जी की अच्छाई या बुराई गिनने नहीं आया हूँ| परन्तु एक सच्चाई, चाहे वह सच्चाई अपने अधिकार, सम्मान या संपत्ति की रक्षा करने का क्यों ना हो| ब्रह्मेश्वर जी पर २२७ हत्या के मुक़दमे हैं| निशिकांत ठाकुर ने लिखा है कि माले, एम.सी.सी. आदि पार्टियों ने जिस तरह से मध्य बिहार के जमींदारों के परिवारों के साथ घिनौना खेल खेला, इसके प्रतिक्रिया स्वरुप ही ब्रह्मेश्वर मुखिया जैसे व्यक्ति का जन्म हुआ|| आज़ादी के बाद ही नहीं आज़ादी के पहले से ही वंचितों, गरीबों, कमजोरों, की बेटियों के अस्मत के साथ खेला गया| इतिहास में अंकित वह घिनौना अत्याचार, शोषण इन्हें याद नहीं आया| और जो इन्हें याद आया, उसे लिखा नहीं जा सकता| उसकी जितनी भी निंदा की जाये कम है| मैं ऐसी घटनाओं का पूर्णत: ही नहीं सम्पूर्ण रूप से निंदा करता हूँ| एक गरीब का पक्का मकान बनाने के लिए अमीरों का दुमहला मकान तोड़ना जरुरी नहीं है| उसके लिए सरकार की नीतियाँ जरुरी हैं| लेकिन ब्रह्मेश्वर मुखिया के बाद लगातार १५ दिन जिस तरह से सरकार और मीडिया के लोगों ने सोची-समझी राजनीति के तहत एक व्यक्ति को महानायक बनाने की  कार्य योजना बनाई| वह किसी भी सभ्य समाज या सामाजिक समरसता या लोकतंत्र के लिए सही नहीं ठहराया जा सकता| एक मौत और मीडिया और सरकार का नंगा खेल – १५ दिनों तक| लगा कि जैसे भगत सिंह, गाँधी, सुभाष, राजनायक कर्पूरी दुबारा पैदा ले लिए| मीडिया या सरकार के लिए यह चिंता का विषय नहीं है कि ६० अधिक गरीब बच्चों की मौत एक बीमारी से मुजफ्फरपुर में हो जाती है, और यह बीमारी हर रोज सूबे के अन्य जिलों में फैलती जा रही है; पर न तो सरकार को या उनके स्वास्थ्य महकमे को इसकी चिंता होती प्रतीत हो रही है और न ही मीडिया हाय-तौबा मचाती है जैसे कि बरमेश्वर मुखिया के मौत पर मीडिया पेज दर पेज रंगती रही| राजधानी पटना में प्रत्येक दिन आधे दर्जन लोगों की हत्या कर दी जाती है, प्रमोद जैसे बड़े व्यवसायी की दिन दहाड़े हत्या कर दी गई और सरकार और मीडिया दोनों ही मौन रही| कई शहरों में दर्ज़नों छात्राओं को बेच दिया जाता है और सुशासन के प्रशासन उसे प्रेम-प्रसंग बता कर रफा-दफा कर देते हैं| दर्ज़नों-दर्ज़न बच्चियों को बलात्कार करके मार दिया जाता है और परन्तु सरकार मूक दर्शक बन बनी रहती है| सूबे में आये दिन कहीं न कहीं, किसी निर्दोष व्यक्ति की पुलिस हिरासत में मौत हो जाती है; चिकित्सकों की लापरवाही से सैकड़ों लोग प्रतिदिन मर रहे हैं, जिसका उदाहरण राजधानी पटना का पी.एम.सी.एच. है| मीडिया को भी इनकी चिंता नहीं है| चिंता है तो सिर्फ और सिर्फ वोट की| सभी नेताओं ने एक स्वर से कहा सामाजिक न्याय के पुरौघा है बरमेश्वर  मुखिया| किसी ने गाँधी, तो किसी ने महानायक, तो किसी ने सहजानंद सरस्वती से तुलना कर दी|

मेरा यह नहीं कहना है कि आप अपने विचारों के प्रति स्वतंत्र नहीं रहें, यह आदि युग से चला आ रहा है| जिससे खुशी प्राप्त हुई उसी को भगवान माना, जिससे भय हुआ उसी को भगवान माना| सर्प की पूजा भय के कारण शुरू हुई, सूर्य की पूजा रौशनी देने के कारण हुई| जिसकी भी पूजा लोग करते हैं उसके पीछे स्वार्थ भी एक बड़ा कारण है या कहिये प्राप्ति का कारण| आप देखते होंगे जब किसी गरीब की कोई अमीर पैसे आदि से विपत्ति में मदद कर देता है, तो वह तुरंत भगवान उसे भगवान बना देता है| मनुष्य तो आवश्यकता या अभाव के अनुसार किसी भी मनुष्य को भगवान या मसीहा बना देता है| आप देखते होंगे जितने भी कोर्पोरेट घरानों के पूंजीपति हैं, गरीबों को लूटकर अमीर बनते हैं, फिर अपने ब्लैक मनी को व्हाईट करने के लिए कुछ अंश मंदिर या अनाथालय को क्या दे देते हैं कि वे तुरंत लुटेरे से महापुरुष हो जाते हैं, और उनकी जयजयकार होने लगती है| उसे आप भी करें, आप भी तो मनुष्य ही हैं, लेकिन उसे सामाजिक रूप से महिमामंडित नहीं करें तो समाज के लिए बहुत अच्छा होगा|

मीडिया माध्यम से आप देखे होंगे कि जाति विशेष के छात्रों ने होस्टल छात्रावासों से निकल-निकलकर कैसा उत्पात मचाया| छात्रवासों के सैकड़ों आई.ए.एस., डॉक्टर आदि बनने वाले आदर्शवान छात्रों ने जाति के कारण ब्रह्मेश्वर जी की जयजयकार लगाते हुए उत्पात मचाया| मीडिया ने भी ‘आरा से पटना तक की शव यात्रा’ ऐसे विस्तार से कवर किया कि ऐसा लगा कि जैसे गाँधी या आज़ाद का शव निकल पड़ा है| राजनीति के बारे में तो सर्वविदित है कि यहाँ अवसरवादियों का बोलबाला है लेकिन मीडिया तो बुद्धिजीबियों का क्षेत्र समझा जाता है| आम जनता मीडिया के बातों पर बिना कुछ सोचे-विचारे भरोसा करती है और ऐसे में जब मीडियाकर्मी अपना जातिवादी रंग दिखाएगे, जैसा कि बरमेश्वर मुखिया के हत्या के बाद दिखा दिया तो हमारा समाज कहाँ जाएगा |





४०० से १००० उत्पाती नौजवानों वाली क्रांति, जैसे द्रौपदी का चीर-हरण हो रहा था और पांडव मूक दर्शक बने बैठे थे वही हाल पटना शहर का था उस दिन| पटनावासी लुट रहे थे और सरकार और प्रशासन मूक दर्शक बनी बैठी थी| क्यों आप मुखिया को महानायक बनाना चाहते हो? सिर्फ वोट के लिए? मुखिया के मौत से उनके परिवार में काफी शोक का माहौल है, इसकी चिंता शायद ही किसी को सताई होगी| बस, सभी दल के नेताओं को भूमिहार समाज का वोट चाहिए था| सभी की छटपटाहट सिर्फ वोट की थी| कौन कितना मुखियाजी की चमचागिरी कर सकते हैं, बस इसकी होड़ लगी हुई थी| इस बयानवाजी से नौजवानों पर क्या असर पड़ेगा, इसकी चिंता किसी को नहीं| चिंता बस इस बात की सता रही है थी कि कैसे वे रातोंरात भूमिहार समाज के इकलौते नेता हो जाएं| जो लोग जिन्दा रहते मुखिया जी से मिले नहीं होंगे या कहिये कि वे भूमिहार समाज के विरोधी रहे होंगे वे ही लोग सबसे बड़े सिपेसलाहर बनने की कवायद करने लगे| याद रखियेगा मुखिया जी के पुत्र और परिजन! देश के लिए लड़ने वाले भगत सिंह के परिवार का जब कोई नहीं हो सका, बॉर्डर पर शहीद होने वाले सिपाही के परिवार को जब मेडल बेचकर गुजारा करना पड़ रहा हो, संसद बचाने वाले सिपाही के परिवार की स्थिति जब दयनीय हो सकती है, कर्पूरी ठाकुर के परिवार को जब भुलाया जा सकता है, तो आपको भूलने में इन्हें कितना वक्त लगेगा? यह सब दिखावा सिर्फ वोट के लिए है| किसी ने उन्हें गाँधी की संज्ञा दी, तर्क है कि न्यायालय से १६ नरसंहार में बरी हो गए थे और मात्र ४ ही बाकी रह गए थे| मेरा मानना है कि जब तक वोट की राजनीति रहेगी या कहिये कि सी.पी.ठाकुर जी जैसे लोग भाजपा के अध्यक्ष रहेंगे, भूमिहार समाज के बदौलत जब तक नितीश जी की सरकार बनी रहेगी, तो क्यों नहीं एक के बाद एक सब साक्ष्य के अभाव में बरी होते जाएंगे| नितीश जी का त्वरित न्यायालय सिर्फ गरीबों और पीड़ितों के लिए ही बना है? आप सात साल का इतिहास उठा कर देखें कितने लोगों को कोर्ट से सजा मिली या कहिये कि सजा पाने वाले बहुसंख्यक लोग किस जाति के हैं| उसमे दलित, अल्पसंख्यक, अतिपिछड़ा जाति के कितने लोग हैं| डी.पी. यादव के बेटे को जब बरी किया गया तो, सुओ-मोटो नोटिस ले लिया गया| इस तरह कितने मामलें हैं जिसमे कोर्ट स्वयं ही मीडिया के कारण हस्तक्षेप करती है| फिर माननीय न्यायालय ने ब्रह्मेश्वर जी के केस में चिंता क्यों नहीं दिखाई? सरकार को पुन: साक्ष्य जुटाने को क्यों नहीं कहा गया? अमीरदास आयोग के रिपोर्ट पर जब रोक लगा, तो न्यायालय ने सरकार के गलत निर्णय में क्यों नहीं हस्तक्षेप किया? अगर सरकार सही तरीके से साक्ष्य देती तो ना ही गलत करने वाले बचते और ना ही घटना घटती| नरसंहार किसी का भी जाती या समुदाय का हो, किसी भी संगठन के द्वारा हो, क्या इसे जायज ठहराया जा सकता है? कभी नही| मासूम छोटे बच्चे, जिन्हें ना तो जात का पता, ना ही पिता का, ना ही दुनिया का, फिर उसका क्या दोष? बेबस महिलाओं का क्या दोष? जिनका बलात्कार करके गुप्तांग में गोली मार दी गई| मृत्यु सैया पर पड़े बुजुर्ग को गोली मार दी जाती है| क्या कुसूर है इनका, क्या भूमिसुधार के लिए ये ही जिम्मेवार हैं? इन महिलाओं और बच्चों ने क्या गुनाह कर दिया? व्यवस्था का दोष होता है, सरकार नीतियाँ नहीं बनाती है, सरकार सामाजिक समरसता को ताड़-ताड़ करती है| राजनेता इसके लिए सबसे बड़े जिम्मेवार हैं जो अपने मौलिक कर्तव्य को भूल जाते हैं| जो वोट के लिए न जाने कितने गंदे खेल खेलते हैं| जात को खुश करना सिर्फ प्रवृति भर रह गया है| आप लड़िए व्यवस्था से, इतना ही क्रन्तिकारी थे मुखिया जी या एम.सी.सी., या माले के क्रन्तिकारी तो फिर क्यों नहीं आप सभी दोषियों के खिलाफ लड़े? मंत्री जो जनप्रतिनिधि भी होते हैं, जनता के प्रति प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेवार होते हैं तथा प्रशासनिक अधिकारी जो मुख्य रूप से लोकसेवक होते हैं ये सब ‘लोक’ और ‘जन’ को भूले बैठे है, और मुख्यमंत्री जो सदा गरीबों-किसानो को न्याय दिलाने की बात करते हैं...व्यवहारिक जिंदगी में गरीब को भूल जाते हैं और किसानों की रक्षा नहीं कर पाते हैं| कानून के मुताबिक आज भी भूमिसुधार का मतलब नहीं रह गया, फिर अलग से लड़ाई क्यों?

मैं यह नहीं कहता कि आप सरकार या मंत्री या व्यवस्था के खिलाफ हथियार उठा लें, परन्तु यह जरूर कहूँगा कि अगर आपमें इतना ही क्रांति करने की कूबत है या ताकत है तो भगत सिंह की तरह मिलकर व्यवस्था पर चोट कीजिये! मुझे महान आश्चर्य और घोर निराशा तब हुई जब नितीश जी एक शब्द भी बोलने के तैयार नहीं हुए| उनकी समर्थित पार्टी भाजपा मानो पागल हो चुकी है कि भूमिहार समाज का वोट बैंक हम बटोर कर ही रहेंगे| आखिर मीडिया पन्द्रह दिनों तक क्या लिखा- इस चौक पर महिलाओं ने फूल माला चढ़ाया, यहाँ पानी का व्यवस्था था| विधायक को पीटा, सी.पी ठाकुर के गाड़ी का शीशा फोड़ दिया...ब्रह्मेश्वर जी क्या पढे, क्या खाए, जेल में कैसे रहते थे, निकले तो मंदिर गए, पूरा बदल चुके थे, किसानों की लड़ाई लड़ते थे, काफी असाधारण थे मान लिया, वे सब कुछ थे और भी ज्यादा अच्छे थे, उनके अंतिमसंस्कार में कौन-कौन लोग पहुंचे, कौन खाए, किसने गाँधी कहा, किसने पुरौघा कहा, दूध कौन लाया, गाँव के लोग क्या कहते हैं...यह सब क्या था!? पत्रकारिता का निम्नतम स्तर या किसी पार्टी विशेष का मुखपत्र बनने के लिए १५ दिनों के लिए बिक गयी थी सूबे की पत्रकारिता? हुआ क्या था हमारे सूबे के मसिजीवी पत्रकारों को?
२२७ हत्या और २० नरसंहार, साथ ही गुप्तांग में गोली मारने वाले को सभ्य समाज आदमखोर ही कह सकता है| आने वाला समय उसे अलग ही याद करेगा| बहुसंख्यक आबादी उसे आतंकवादी, आदमखोर ही कहेंगे| मुट्ठी भर जमींदार, सामंती मानसिकता के लोग मसीहा कहेंगे|

बिहार में जातीय संघर्ष कोई नया नहीं है| इसका एक उदाहरण १९९० में डी. बंधोपाध्याय द्वारा दिया गया भूमिसुधार पर दिया गया रिपोर्ट है| इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष १९६५ से १९८५ के बीच जो भी नरसंहार हुए उनका मूल कारण भूमिसुधार की समस्या थी| अपने रिपोर्ट के प्रारम्भ में ही डी. बंधोपाध्याय ने स्पष्ट किया कि बिहार आज भी बमों के ढेर पर टिका है जो कभी भी फट सकता है| यह बंधोपाध्याय का साहस ही था कि उन्होंने सारे नरसंहारों के पृष्ठभूमि का वर्णन किया| मसलन यह कि किस नरसंहार में किस जाति के लोग आक्रमणकारी थे और किस जाति के लोगों का रक्त बहा| इनकी रिपोर्ट को देखें तो अधिकांश मामले आक्रमणकारी जातियों की सूची में एक पिछड़ी दबंग जाति का उल्लेख मिलता है| संभवत: यही वजह है कि नितीश सरकार ने इस रिपोर्ट को ठंढे बस्ते में डाल दिया| ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि इसी पिछड़ी दबंग जाति और सामंतवादियों के बीच गहरा याराना हुआ करता था| बाद में जब, पन्द्रह वर्ष पश्चात लालू के सरकार की विदाई हुई, इसके पीछे भी इसी पिछड़ी दबंग जाति और सामंतियों के बीच गटबंधन मुख्य वजह थी| सरकार में आते ही नितीश जी मुखिया को तक़रीबन हर आरोप से मुक्त करा दिया| जिसका नतीजा हुआ कि मुखिया नौ वर्ष बाद जेल से रिहा कर दिया गया| नितीश सरकार ने बथानी टोला नरसंहार के मामले में अदालत को यहाँ तक गुमराह किया कि मुखिया फरार है| इस आधार पर उसके केस को बाकी से अलग कर दें! यही वजह रही की आरा के अदालत ने जब अभियुक्तों को सजा सुनाया तब मुखिया जी का उसमे नाम नहीं था| संभवत: इसी आधार पर पटना हाई कोर्ट ने निचली अदालत का फैसला रद्द करते हुए सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया| हाई कोर्ट के फैसले ने बिहार सहित सभी राज्यों में खलबली मचा दी| सरकार की दोहरी नीति के कारण लोगों ने न्यायालय पर सवालिया नज़र लगाते हुए प्रतिक्रिया दी| खासतौर पर लोगों ने सवाल उठाया कि जब सभी अभियुक्त बरी हो गए तो बथानी टोला के लोगों की हत्या किसने की| इस फैसले के बाद बिहार की राजनीति में भूमिहार समाज का वर्चस्व एक बार फिर से जगजाहिर होने लगा| खासतौर पर नितीश सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल ब्रह्मर्षि समाज के एक मंत्री ने यहाँ तक कह दिया कि यदि बिहार सरकार ने न्यायालय के इस आदेश को चुनौती दी तो राज्य का माहौल खराब हो जाएगा| जबकि गिरिराज के कहने से पहले ही सरकार के एक मंत्री जीतन मांझी ने १७ अप्रैल को देश की राजधानी दिल्ली में केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम की अध्यक्षता में दलित अत्याचार निवारण अधिनियम में संशोधन विषयक बैठक में कह दिया था कि बिहार बथानी टोला मामले में हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी| परन्तु राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो नितीश जी के डोलते मिजाज ने ब्रह्मेश्वर मुखिया को अपना राजनितिक आधार तो दिया ही साथ-साथ बथानी टोला नरसंहार मामले को रद्दी की टोकरी में डालने की बेहतरीन साजिश रची| नतीजा हुआ कि ब्रह्मेश्वर मुखिया ने निकलते ही पुन: पुराने किसान संगठन को स्थापित किया| दो महीने में ही उन्होंने कई जगह बैठक की| नितीश सरकार के विरोध में सार्वजनिक भाषण तक दिया| विश्लेषकों का मानना है कि उनकी बढती लोकप्रियता के कारण ही उनके जाति के द्वारा ही उनकी हत्या की योजना बनाई गई| वैसे एक सवाल यह उठता है कि अपराधियों ने हत्या उसी दिन क्यों की जिस दिन नितीश जी पटना में नहीं थे? साथ-साथ सरकार के शीर्ष पर बैठे वे कौन लोग थे जो विगत २ जून २०१२ को मुखिया के लाश को लेकर बतौर राजनीति इस्तेमाल किया| इसके पीछे क्या मंसा थी? अन्त्योष्ठी के लिए मुखिया के लाश को आरा से पटना लाना, खासतौर पर जब यह पता था कि मुखिया समर्थक और जमींदार समाज के लोग शक्ति प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल करेंगे| पूरे रास्ते मुखिया समर्थकों ने कहर बरपाया| बिहार की राजधानी पटना में भी भयानक उत्पात मचाया| इस घटना ने समाज के बीच सबसे बड़ा सवाल खड़ा किया कि जिस सुशासन ने २ मई २०१२ को औरंगाबाद जिले मुख्यालय पर विपक्ष के द्वारा किये गए प्रदर्शन करने वालों पर गोली-बारी की थी, उसने २ जून २०१२ को पटना में उत्पती प्रदर्शनकारियों पर कम-से-कम आंसू गैस या लाठीचार्ज जैसे कानून सम्मत कार्रवाई से भी क्यों हिचकी? एक तरफ नितीश जी ब्रह्मेश्वर जी की हत्याकांड की जांच जो सी.बी.आई. को देने में तत्परता दिखाई, उतनी ही उत्सुकता फारबिसगंज गोली कांड, पटना में बिनोद व्यवसायी की हत्या और औरंगाबाद की घटना की सी.बी.आई. से जांच के लिए तत्परता दिखाए होते तो सुशासन की पोल खुल गई होती और समाज के सामने सुशासन नंगा हो गया होता| मुखिया के हत्यारे चाहे जो भी हों, इतना तो तय है कि बिहार में जातीय संघर्ष एक नए रूप में फिर सामने आयेगा| एक तारीख के बाद १३ तारीख तक भाजपा प्रायोजित न्यूज को जिस तरह मीडिया ने जिस तरह महिमामंडित किया बिहार और पूरे देश में जिस तरह भाजपा समर्थित और भूस्वामी सामंतवादी समर्थित नौजवानों ने सरकार के सह पर उत्पात मचाया| उससे ऐसा प्रतीत होता है कि आने वाले समय में यह संघर्ष पहले जैसा भले ना हो परन्तु इसकी धार उससे कम भी नहीं होगी| विश्लेषकों एवं समाजवाद और लोकतंत्र में विश्वास रखने वालों का मानना है कि बिहार में नितीश और भाजपा समर्थित सरकार आने के बाद जिस तरह से सामंतवादी लोगों का आतंक और मनोबल बढ़ा, वह वंचित समाज के लिए एक बार पुन: चिंता का विषय है| मध्य बिहार में मुखिया समर्थक सरकार को जिस तरह खुली चुनौती दे रहे हैं वह भविष्य के लिए चिंता का विषय है|