Saturday 10 September 2011

निजी जीवन में अच्छे हुये बगैर न परिवार को, न समाज को और ना ही राष्ट्र को अच्छा बनाया जा सकता है


चारों तरफ एक ही बात, कौन जीता, कौन हारा; कोई कहता है जनतंत्र जीता, कोई कहता है जनगण जीते, तो कोई कहता है सरकार जीती| जिस किसी भी अखबार, टीवी में आप देखें, एक ही बहस, कोई दलित और मुसलमान के परोपकारी बन के लेख लिख रहे हैं, तो कोई नयी इतिहास, नई क्रांति, दूसरी आज़ादी की बात कर रहे हैं| युवाओं की भूमिका से लेकर अलग-अलग विचारधारा को लेकर अपनी बातों को ही जनता के नज़र में सही साबित करने में लगे हैं|

सवाल जीत या हार का नहीं है और ना ही इस बात का है कि अन्ना बड़ा या संसद; सवाल इसका भी नहीं है कि संविधान बड़ा या भीड़| तमाम बातों का निहितार्थ यही है कि देश की गरीबी खत्म होगी या नही? कई तरह की सामाजिक आर्थिक शोषण और बीमारी के कारण आज सामाज के बीच एक लंबा सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक असमानता है, शोषण है, नफरत है|

सवाल उठता है कि आपस में भय का वातावरण खत्म होगा या नही? किसानों की आत्महत्या रुकेगी या नही? भूख, कुपोषण, संक्रमण बीमारी से लोगों का मरना खत्म होगा या नहीं? सिर्फ एक ही सवाल है आज आम लोगों के सामने: खुशहाली का, राष्ट्र के तरक्की और संमृद्धि का, आत्मसम्मान का, सम्पूर्णता का| निश्चित तौर पर भ्रष्टाचार एक गंभीर समस्या है लेकिन यह कई तरह की समस्याओं से घिरा हुआ है| प्रकृति और परिस्थिति के कारण तरह तरह की समस्याओं को लेकर सवाल उठते रहे हैं, आंदोलन होते रहे हैं पर परिणाम वही ढाक के तीन पात! सवाल आज किसी को गाली देने या किसी को संत बनाने का नहीं है| सवाल है सदियों से चली आ रही खराब व्यवस्था कभी अच्छा होगा या नहीं? पूरे मामले में मेरा मानना है कि अन्ना हजारे और उनके टीम ने पूरे आंदोलन में जो रास्ता अपनाया है वह लोकतान्त्रिक नहीं रहा| रामलीला मैदान में फासीवादी और दकियानुसी भीड़ जमाकर सरकार पर दवाब देना और सरकार भी जन समर्थन की दुहाई देते हुये झुक जाना| यह भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है|

यदि कल के दिन कोई संस्था, कोई पार्टी २० लाख ५० लाख भीड़ जुटा ले, सरकार पर दवाब डाले कि आपको यह कानून माननी होगी तो क्या उसे भी मानेगी? सरकार ने जिस तरीके से देश में गलत संदेश दिया है वह भविष्य के लिए उचित नहीं है| रामलीला मैदान पर बच्चे और नाबालिक की भीड़, आम लोगों की भीड़ नहीं हो सकती| भीड़ को लोकपाल या जन लोकपाल के बारे में कुछ भी पता नही| उसके बावजूद भी क्या हमलोगों को ऐसा समझना चाहिए कि यह भीड़ सोच-समझ या कानून के समर्थन में उतरी थी| सवाल यह भी उठता है कि क्या भीड़तन्त्र हमारे जनतंत्र पर भारी पर रहा है| कुछ लोग इस भीड़ को दिखाकर जिस तरह जनतंत्र, लोकतंत्र, संविधान और संसदीय संप्रभुता के बीच जो तकरार की बात पैदा कर रहे हैं, वे लोग निश्चित रूप से फासीवादी ताक़तों से मिले हुये हैं| जिस तरीके से यह लिखा जा रहा है कि जोश, जज्बे और जन समर्थन के नाम पर इस आंदोलन ने संसद को झुका दिया|

कोई लिखता है कि राजनीतिक दल यह मान कर चल रही है युवाओं को संविधान, संसदीय व्यवस्था, भ्रष्टाचार, महंगाई और चुनावी व्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं लेकिन रामलीला के मैदान में देश भर के युवाओं ने मंथन किया| नौकरी पेशा हो या अध्ययन, आई.आई.टी. से ट्रेनिंग प्राप्त करने वाला या डॉक्टरी का प्रशिक्षण प्राप्त करने वाला हर क्षेत्र का युवा खड़ा नज़र आया| किसी ने अपनी लेखनी से फासीवाद की याद दिला दी, तो किसी ने लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को दरकिनार कर तानाशाही और विखंडनवादी प्रवृति को उकसाया|

जितनी दलीलें पक्ष में उतनी ही खिलाफ में भी| और लोकतंत्र का यह बुनियादी बात है कि जितनी मुँह, उतने विचार, उतने ही तर्क| यह कहना कि सिर्फ यही आंदोलन देश का कल्याण कर सकती है और जो भी आंदोलन हुआ वह देश और समाज के हित में नहीं था! अन्ना और अन्ना की टीम ही ठीक या फिर अरुंधती, अरुणा राय, अग्निवेश ही ठीक बाकी सब गलत! जो अन्ना के साथ दिया वो नैतिकवान और देशभक्त तथा जो उनके साथ नही खड़ा हुआ वह चोर, यह कैसे कहा जा सकता है|

एक परिपक्व लोकतंत्र में यह सामान्य बात है कि विचारों की विविधता का सम्मान हो, अपनी असहमति को अभिव्यक्त करने की सबको जगह मिले| सरकार और अन्ना हजारे से अलग भी लोगों के विचार हो सकते हैं| उन्हें प्रस्तुत करने का लोगों को उतना ही अधिकार है| सवाल है जनलोकपाल, लोकपाल या अन्य लोगों का लोकपाल पर सहमति, कहाँ तक किसी निरंकुश व्यवस्था को खत्म कर सकती है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा|

यह सही है कि जनता के बीच महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्या, भूख से मृत्यु, भ्रष्टाचार ने कई तरह के आक्रोश को और बढ़ा दिया| लोग कहते हैं कि सरकार जिद्दी और अभिमानी हो गई इसलिए आक्रोश पैदा हुआ तो अन्ना हजारे भी ऐसा ही रवैया नहीं दिखा रहे हैं क्या? अन्ना के समर्थक सरकार और संसद पर असंवेदनशील, चोर और भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहे हैं, क्योंकि वह अन्ना के बनाये लोकपाल बिल के प्रारूप को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हैं लेकिन क्या अन्ना के लोकपाल बिल पर शंका जताने वाला हर व्यक्ति को सरकार का पिट्ठू और देशद्रोही बताकर क्या वे अश्लीलता नहीं दिखा रहे हैं! आखिर अन्ना और उनकी टीम पूरे विश्वास के साथ यह दावा कैसे कर सकती है कि लोकपाल बिल का प्रारूप ही सही है और कोई उसकी आलोचना नहीं कर सकता? अगर सरकार खुद को सही साबित करने के लिए लोकप्रिय जनादेश और संसद के सर्वोच्च अधिकार का आड़ ले रही है तो क्या अन्ना की टीम दिखावटी नैतिकता के आड़ में छुपने की दोषी नहीं है?

मैं अन्ना की टीम या सरकार द्वारा तैयार लोकपाल बिल के प्रारूप की आलोचना करने के भारत के किसी नागरिक के अधिकार का समर्थन करता हूँ| निश्चित रूप से अन्ना के कही हर बात का आँख मूंदकर समर्थन नहीं करने का मतलब यह हरगिज नहीं कि किसी को देशद्रोही मान लिया जाए| जिस तरीके से अन्ना के टीम ने अप्रैल से ही प्रधानमंत्री, भारत की संसद, भारतीय चुनाव और यहाँ तक कि भारतीत लोकतंत्र को सार्वजनिक रूप से असंसदीय शब्दों के आधार पर कोसने का काम किया है| मैं मानता हूँ कि सरकार या दलों में ऐसे लोग भी होते हैं जो आलोचना के पात्र होते हैं परन्तु हर बात का एक लोकतान्त्रिक तरीका तो होना ही चाहिए| लोगों के उन्माद को हवा देने में कामयाब टीम की तानाशाही को स्वीकार नहीं किया जा सकता|

आखिर एक संविधान है, अदालत है, निर्वाचित संसद है, जिसके मूल्य हैं, आदर्श हैं, जिसे नियमावली के मुताबिक सबकुछ होना है| अन्ना की टीम हो या कोई भी अपनी अभिव्यक्ति को रखने का और विरोध करने का पूरा अधिकार है| लेकिन कोई भी उसको थोपने के जिद्द पर अड़ा नहीं रह सकता| विरोध प्रदर्शन का अपना प्रभाव भी होता है और इससे बदलाव भी होते हैं लेकिन यह हमारे संविधान और लोकतान्त्रिक मशीनरी के समर्थन के बिना नहीं हो सकते|

अन्ना जी को यह नहीं भूलना चहिये कि सरकार के कुछ गलत नीतियों और विचारों के कारण चंद सिविल सोसाइटी वाले तमाम मध्यवर्गीय लोगों के नायक हो गए| सरकार के गलतियों के कारण आपको जिस तरह से लोगों का सर्थन मिला उस तरीके से ना तो आपने बड़प्पन दिखाई ना उदार हुए|

भीड़ के कारण अब आप और आपकी टीम अड़े हैं कि उन्हें सब कुछ करने दिया जाए जो आप चाहते हैं| सरकार पूरी तरह नतमस्तक होकर आपके सभी मांगें मानती रहे| भूख हड़ताल टूटने के पहले और बाद में आप भावनाओं में हमेशा बहते रहे और आपके समर्थक और आपकी टीम भावनाओं में भीड़ देखकर, अतिउत्साहित होकर जो मन में आया, संसद, सांसद और लोकतंत्र के बारे में अनर्गल बयान देते रहे| क्या इसे जिद्दी, घमंडी और असंवेदनशील होना नहीं माना जायेगा?

भावनात्मक उन्माद से भरी भीड़ अगर उत्पात मचाने पर आतुर हो तो हिंसा और त्रासदी की स्थिति के बीच एक बारीक फर्क रह जाता है| हमें यह नहीं भूलना चाहिए जब क्रोध से भरी लोगों की उग्र भीड़ आवेश और उत्तेजना में थी तो १६ दिसम्बर के दिन भारत के धर्मनिरपेक्षता के टुकड़े-टुकड़े बाबड़ी मस्जिद को तोड़कर किया| १९८४ में दिल्ली और २००२ में गुजरात में क्या हुआ था? भीड़ यदि हर बातों का मापदंड है और वही जनपक्ष है तो फिर कश्मीर की आम राय को क्यों नहीं मान ली जनि चाहिए? लगातार तीन महीने तक धार्मिक भावनाओं को लेकर जम्मू के लोग सड़कों पर उतरकर अपनी मांगों को मनवाने के लिए केन्द्र सरकार पर दवाब रखा| जम्मू में आम आदमी को फल-फूल, रोजमर्रा की सब्जी तक नसीब नहीं थी| क्या सरकार को उनकी हर बात मान लेनी चाहिए थी?

इसी तरह के हालात पंजाब और हरियाणा में विभिन्न मुदों और विचारों को लेकर देखने को मिलता है, कभी लाखों की भीड़ को लेकर स्वयम्भू भगवान राम-रहीम का उत्पात, मौत का नंगा नाच, सरकार और न्यायालय दोनों इस भीड़ के सामने मौन| क्या इस भीड़ को भी जायज ठहराना चाहिए? हरियाणा के खाप की घटना को यदि याद किया जाए जहाँ भीड़ ही नहीं सभ्यता और संस्कृति के नाम पर लगातार मौत पर मौत दिया जा रहा हो, इसे क्या माना जाए? या फिर राजस्थान और उत्तर पश्चिमी प्रदेश में कभी मीना समुदाय के लोग तो कभी गुज्जर, जाट समुदाय के लोग लाखों जनपक्ष को लेकर जिस तरीके से अपनी बातों को मनवाने के लिए महीनों-महीनों तक परंपरागत लाठी, भाला, फरसा, अस्त्र-शस्त्र से लेकर भूखे-प्यासे, आर-पार की लड़ाई को तैयार बैठे रहते हैं, तो क्या सरकार को उसकी बात मान लेनी चाहिए? या फिर देश के बहुसंख्यक कमजोर समुदाय के लोग जो अपनी संप्रभुता के आरक्षण जैसे सवालों से लेकर दर्ज़नों सवाल को लेकर वर्षों वर्ष से सरकार पर दवाब बना रहे हैं, तो क्या सरकार को झुक जाना चाहिए? जब करोड़ों-करोड़ लोगों के सम्मति से  आर्थिक सम्पन्नता, रोजगार के व्यवस्था के सवाल इस देश में उठते रहे हैं तो फिर देश की यही मुट्ठी भर लोग जो आज कैंडल जला रहे हैं इनका विरोध का स्वर क्यों उठने लगता थे और है, फिर आरक्षण को लेकर आत्महत्या का दौर क्यों शुरू हो जाता है|

देश के तीन हिस्से लोग बटाईदारी कानून के पक्ष में है| देश के तीन हिस्से के लोग जल, जमीन, जंगल पर अपना अधिकार चाहते हैं| देश के बहुसंख्यक किसान अपने उपजाये हुये फसल की कीमत खुद लगाना चाहते हैं, तो फिर क्यों इस देश की सरकार ने इस बात को मानना उचित नहीं समझा? मुट्ठी भर सभ्य समाज के दिए हुये व्यवस्था पर ही तो आज तक यह सरकार चलती आई है|

जो भी सरकार आई, पूंजीपतियों की सरकार रही, जो भी कानून बना, हमेशा अमीरों और मध्य वर्ग को ध्यान में रखकर बनाया गया| आज़ादी के बाद से लेकर आज तक रोजगार, नौकरी, व्यापार या किसी भी तरह के धंधे और व्यवस्था पर अधिकार इसी सिविल सोसाइटी के नुमाइंदे, मुट्ठी भर लोगों की रही है| आज़ादी के बाद से आज तक कई प्रतिशत लोग, गरीब, दलित, कमजोर, पिछड़े-अतिपिछड़े, अल्पसंख्यक, आदिवासी समाज और परिवार के लोगों का कई प्रतिशत व्यापार या नौकरी पर अधिकार है|

जो लोग आज भ्रष्टाचार के खिलाफ हाय-तौबा मचा रहे हैं, सारी बुरी संस्कृति, परंपरा और सभी तरह की बुराइयां, जड़ता, इन्ही मुट्ठी भर लोगों की देन रही है| यही लोग भ्रष्टाचार के जनक रहे हैं| आज़ादी के बाद देश के लोकतान्त्रिक व्यवस्था में यदि संसदीय और विधानसभा के सीटों को छोड़ दिया जाए, दस साल, बीस साल पूर्व तक ९०% संसद, विधायक, मंत्री इसी सिविल सोसाइटी के नुमाइंदे के लोग हुआ करते थे|

देश के चारों स्तंभ विधानपालिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया को समझने और देखने की कोशिश करें तो प्रधानमंत्री से लेकर चपरासी तक, सर्वोच्च न्यायालय के चीफ से लेकर क्लर्क तक, सचिव से लेकर डी.एम. और सी.एम. तक कौन लोग थे और हैं? आज जन्म से लेकर मरण तक, कुंडली से लेकर कर्मकाण्ड तक पूजा, धर्म, समाज, आडंबर जैसे आवरण से लेकर के जीवन को जीने और समाज को चलाने वाले व्यवस्था पर किन लोगों का अधिपत्य है?

फिर आज वही मुट्ठी भर लोग खुद अपने हि किये पाप और कुकर्म पर हाय-तौबा क्यों मचा रहे हैं? तमिलनाडु की बहुसंख्यक जनता चाहती है कि राजीव के हत्यारे को माफ कर दिया जाए, कश्मीर के भीड़तंत्र की आवाज़ है अफजल को फांसी नहीं दिया जाए, पंजाब के पक्ष और विपक्ष एवं सम्पूर्ण समाज की आवाज़ है कि एक भुल्लर को माफ कर दिया जाए|

मीडिया और सभ्य समाज के लोग इस जनपक्ष को क्या कहेंगे? गलत या सही? सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार जरुर मिटना चाहिए लेकिन कैसे? बिना तर्क, विचारों, सिद्धांत के?

अन्ना के आंदोलन के मूल्य, विचार और उन्माद प्रमुख मीडिया का रिश्ता इसी आवेग, उन्माद से है जिसने अन्ना के पक्ष में माहौल बनाने में बरी भूमिका अदा की| क्या अन्ना आंदोलन लोकतांत्रिक सुधारों से जुड़ा है? पूंजीवादी व्यवस्था, भ्रष्टाचार की पोषक, रक्षक है? अन्ना ने कई बार कहा कि वे सामाजिक, आर्थिक विचार के पक्ष में हैं, लेकिन अन्ना का आंदोलन धन की सत्ता और महत्ता के साथ है|

यह आंदोलन व्यवस्था विरोधी आंदोलन नहीं थी, अन्ना ना तो सत्ता परिवर्तन और ना ही व्यवस्था परिवर्तन के पक्ष में हैं| एक जनलोकपाल बिल से भ्रष्टाचार की समस्या नहीं सुधर सकती है| सवाल उठता है अन्ना साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के पक्ष में हैं या विपक्ष में? अन्ना आंदोलन उपरी और सतही तौर पर व्यवस्था परिवर्तन का भ्रम पैदा कर रही है| यह बात भी सही है कि जनता और उनके प्रतिनिधि के बीच तीन दशक पहले विश्वास और सद्भाव का जो महीन धागा था वह टूट गया|

यह लोकतंत्र के लिए संकट है| किसी भी आंदोलन के पास अपनी राजनैतिक दृष्टि और विचारधारा थी, लेकिन अन्ना आंदोलन किसी भी राजनैतिक विचारधार के विरुद्ध है|

गाँधी ने अंग्रजों को भारत से भगाया था| गाँधी के सत्याग्रह और अन्नाग्रही में भिन्नता है| अन्ना क्या भ्रष्टाचारी को भारत से भगा रहे हैं? क्या यह संभव है? गाँधी के पास राजनैतिक दर्शन था, गांधीवाद एक विचारदर्शन है, जे.पी. समाजवादी थे, उनका समजवादी बिखर गया, बाद में उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया| जिसकी स्पष्ट अवधारणा उस आंदोलन के पास बहुत अधिक नहीं थी| अन्ना के पास कोई विचार है, ना सिद्धांत है, ना दर्शन|

उनका आदोलन किसी एक विषय के लिए सुधारवादी दिखाई जरूर देता है| अन्ना टीम की कई सदस्य गैर सरकारी संगठनों से जुड़ें हैं| एक ओर क्रांतिकारी का उल्लेख और क्रांति की बात और दूसरी ओर गाँधी की अहिंसा, इन दोनों में सच क्या है? क्या अन्ना आंदोलन इन दोनों के उल्लेख का भ्रम उत्पन्न नहीं करता? ऐसी परिस्थिति में दूसरी क्रांति से अन्ना का क्या मतलब? आज जिस तरीके से अन्ना की टीम कभी राईट टू रिकाल, कभी न्यायपालिका के सवालों को लेकर भीड़ के अहंकार पर, यह कानून तो ऐसा ही होना चाहिए, लगातार बोला जा रहा है| यह किसी भी लोकतंत्र के लिए मान्य नहीं होना चाहिए| मेरे ख्याल से मौजूदा दौर में संसदीय लोकतंत्र से बेहतर विकल्प कोई दूसरा नहीं हो सकता|

अध्यक्षात्मक प्रणाली के अपने खतरे हैं, इस लिहाज़ से देश का कानून बनाने की जिम्मेवारी संसद की ही होनी चाहिए और इससे समझौता नहीं होना चाहिए| यह भी सवाल उठता है कि इस पूरे प्रकरण की नौबत क्यों आई? अगर सरकारी लोकपाल बिल कमजोर थी तो विपक्ष को इसमें सुधार की माँग जोरदार करनी चाहिए|

एक और मसला है कि हमें संसद में अच्छे लोगों को चुनकर भेजने की ओर ध्यान देना होगा| अगर हमारे प्रतिनिधि नैतिकवान, चरित्रवान और ईमानदार होंगे, तभी वे अच्छे और जनकल्याण वाले कानून बना पाएँगे| प्रतिनिधि अच्छा हो, इसके लिए जरुरी है कि राजनीति में अच्छे लोग शामिल हों, लेकिन यह जो आप एक-दूसरे के आरोप-प्रत्यारोप, देश में हिंसा फ़ैलाने की बातें अन्ना के टीम के द्वारा उठाया जा रहा है, यह कहाँ तक सही है?

अन्ना की टीम ने अरुणा राय, अरुंधती, अग्निवेश, ना जाने किन-किन लोगों को गालियों से सुशोभित की जा रही है और इधर की टीम अन्ना के टीम को गलत साबित करने में लगी हुई है| सवाल ना तो अन्ना के टीम का है, ना ही किसी और टीम का| सवाल है स्थिति बदलनी चाहिए| असली जन भागीदारी के रूप में किसान, मजदूर, गरीब, आदिवासी, बहुसंख्यक अशिक्षित छात्र नौजवान से शुरू होनी चाहिए| यह सही है कि भ्रष्टाचार घुन की तरह लोगों में समाया है| समाज में हर जगह भ्रष्टाचार हो रहा है| इससे देश के प्रगति पर असर हो रहा है| भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्सा भी व्याप्त है लेकिन यह भी सही है कानून से भ्रष्टाचार दूर नहीं किया जा सकता है| मेरा तो स्पष्ट मानना है, और यह मेरा व्यक्तिगत विचार भी है कि गिनती भर लोग होंगे इस देश में जो भ्रष्टाचार में शामिल नहीं होंगे, और यह एक कड़वा सच है कि निजी जीवन में भ्रष्टाचार को कोई खत्म नहीं कर सकता है|

4 comments:

  1. मुझे पता है कि मैं अन्ना नहीं हूँ, अनुपम हूँ!

    आप कौन हैं?
    क्या आपको भी इमानदार बनने के लिए अन्ना का सहारा लेना पड़ रहा है?
    अगर हाँ, तो जो अन्ना टोपी कल बीस रूपये में बिक रही थी, आन्दोलन ख़त्म होते ही उसकी कीमत घट गयी है. जाइये, अब तो पांच रूपये में ही आप भ्रष्टाचार विरोधी बन सकते हैं!

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  2. मैंने दिल्ली में अन्ना की टोपी पहने हुए शराबियों को हुर्दंग करते भी देखा है. चंडीगढ़ में दिन भर नारे लगाने वालों को रात में २५ का माल ३० में बेचते हुए भी देखा है. ऐसे लोगों के लिए अन्ना एक मुखौटा भर हैं अपनी गन्दगी को छुपाने का.
    भारत में भ्रष्टाचार किस हद तक जड़ें जमा चूका है ये इसी बात से समझ आ जाती है कि हमें अपनी इमानदारी स्थापित करने के लिए अन्ना का नाम चाहिए, अपना नहीं.

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  3. भ्रष्टाचार समाप्त हुए बिना ये समस्या भी समाप्त नहीं होगी, चलती रहेगी।

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  4. Bilkul Pahle Hame ye Brahstachariyon ko Hatana hoga

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