“युगद्रष्टा”
किस गहन चिंतन में-डूब गया है तू,
क्या ठान ली है स्वर्ग धरा पर लाने की ?
फलक के किन तारों को तू देख रहा,
या इच्छा है चाँद को ही उतार लाने की ?
प्रकाश खोजने अंधकार में मारा-फिरेगा,
मातम मानती माँ का क्या तू गोद भरेगा ?
कितने बहनों का भाई बन पीड़ा सहेगा,
असुरों से अकेले क्या तू लड़ता रहेगा ?
चंडाल चौकड़ी से आवृत यह शहर है,
दमन का दौड़ अंधा कातिलों का कहर है |
फिर क्यों आयो हो यहाँ पुरुषार्थ जगाने,
जख्में-दिल पर मोहब्बत का दरिया बहाने ?
क्या चाहते हो बिगुल क्रांति का बजे,
सद्भाव से मानवता पुन: सजे-धजे |
तो आततायी का सिर कलम करना पड़ेगा |
बीज नैतिकता का धरा पर बोना पड़ेगा |
सुख-शांति-समृद्धि का सर्वत्र राज हो,
जो हैं सहज-सरल, उनके सिर ताज हो |
असंभव नहीं जगत में तारों को तोड़ लेना,
चाह में दम हो तो नभ भी नमन करेगा –
चाह में दम हो नभ भी नमन करेगा |
हमारी सारी शक्ति दूसरों के अवगुणों की खोज में
क्षय हो जाती है | काश ! इन अवगुणों को स्वयं में खोज कर उन्हें परिष्कृत कर पाते
तो समाज कितना सुंदर हो जाता |
किस गहन चिंतन में-डूब गया है तू,
ReplyDeleteक्या ठान ली है स्वर्ग धरा पर लाने की ?
फलक के किन तारों को तू देख रहा,
या इच्छा है चाँद को ही उतार लाने की ?
जी ! अभी बस इतनी है कि बिहार और बिहारी
की गरिमा वापस लाने की
अपनो को फिर से खुशहाल बनाने की .........
आपके कार्यों के प्रति आशान्वित
अभिमन्यु आनंद
दिल्ली विश्वविद्यालय से!