Monday 4 July 2011

भीड़, ईमानदारी, पद, प्रतिष्ठा, ताकत और धन लोकतंत्र में किसी भी बात का मापदंड नहीं हो सकता |



का पर करूँ सिंगार पिया मोड़ आन्हर - यह हाल आज-कल अन्ना जी के सिविल सोसाइटी का है| शेर पर सवाशेर की कहावत भी भ्रष्टाचार वाली इस लड़ाई में चरितार्थ होते दीखा| रामदेव जी का चाल, चरित्र, ढोंग, मानवीय संवेदना, बहुरूपिया रूप और रामलीला मैदान के नाटक-कथा दुनियाँ के बेहतरीन नाटकों में से एक रही|

रामदेव जी के मामले में यह लोकोक्ति पूरा फिट बैठता है-चौबे गए छबे बनने, दूबे बनकर लौटे| परन्तु अन्ना जी, आप तो रामदेव जी के तरीकों और विचारों को ही हमेशा गलत कहते रहे हैं! वर्चस्व और अहंकार की लड़ाई में नैतिकता और विचरधारा का क्या औचित्य? ‘हम तो हम’ वाली बात! कोई ईर घाट तो कोई वीर घाट! सवाल उठता है अन्ना जी कि आप तो अपने मरने तक की कसम खाकर आये थे कि जरूरत पड़ेगी तो गाँधी की राह को छोड़कर सुभाष-भगत-चंद्रशेखर की राह भी पकड़ लेंगे| लंबी-लंबी नैतिकता की पाठ आपकी सिविल सोसाइटी नसीहत के तौर पर देने लगी|

याद कीजिये अन्ना जी जब आप जंतर-मंतर पर बैठे थे! आपके लोगों ने सभी राजनीतिक पार्टी, सभी नेता को चोर कहा था| इतना ही नहीं चौटाला साहेब और उमा भारती को बेइज्जत करके भगा दिया था| कहानी यही खत्म नहीं होती, यहाँ तक कहा गया कि जिन्हें बात करनी है, उसे बिना चुनी(जनता के द्वारा) हुई सिविल सोसाइटी से ही बात करनी होगी| हम ही हैं सुपर पॉवर, जिन पर करोड़ों-करोड़ जनता ने अपना विश्वास जताया है; जिन्हें लोगों ने अपना जनप्रतिनिधि चुना है...बनाया है...माना है, उसे तो आप लोगों ने रद्दी के टोकरी में फैंक दिया| आप लोगों ने तो मान लिया कि मेट्रो सिटी या शहर में रहने वाले लोग और इंग्लिश पढ़ कर बोलने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी लोग जिनके पास उधार की विचार होती है, दलाली और धोखाधरी का धन होता है, कई तरह के बहुरूपी चेहरा होता है, ऐसे लोग नैतिकता वाली गलत पुस्तक बचपन से ताउम्र पढते रहते हैं और उसे ही सभ्य समाज कहा जाता है| इनलोगों को जानना हो तो उसके दोस्त बन जाएँ तब पता चल जायेगा ये लोग घर में कुछ और बहार में कुछ और, दिन में कुछ और रात में कुछ और ही होते है|

ऐसे भीड़ को देखकर ही आपलोग अपने को संविधान से ऊपर समझ लिये| आन्ना जी आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि यह जो सिविल सोसाइटी है उसे जनता ने नहीं बल्कि वे स्वयं ही अपने मियाँ मिट्ठू बन गए हैं और खुद ही अपने को सुपर पॉवर मान लिया|
अन्ना जी, निश्चित तौर पर आप एक नेक, नैतिकवान और देश, समाज के लिए समर्पित इंसान हैं, परन्तु यह देश, समाज ऐसे भले लोग से नहीं चलता है जो कहने और देखने के लिए भले होते हैं परन्तु उनका शरीर, मन, तन किसी मनुष्य के लिए हिलता-डुलता तक नहीं, जुबान और आँखें हमेशा बंद ही रहता है| परन्तु ये ‘भले लोग’ राष्ट्र और समाज को नुकसान नहीं पहुंचाते| परन्तु मेरा मानना है कि आज समाज को अच्छे लोगों की जरुरत है जो ईमानदार, नैतिकवान, चरित्रवान हों जरूर, परन्तु उनका पूरा जीवन समर्पित हो सिर्फ आम आदमी के लिए| अच्छे लोगों के भीतर गलत को गलत कहने की ताकात होती है| ये लोग चुप नहीं बैठते हैं, सकारात्मक या रचनात्मक प्रतिक्रिया देने में देर नहीं करते, जो जीने के लिए नहीं हमेशा मौत के तरफ अपना कदम बढ़ाते रहते हैं| हमेशा जीते ही हैं दूसरों के लिए| ऐसे लोग चाहिए जिनके नेतृत्व में राष्ट्र और समाज को बढ़ाया जाये|

जब आप लोग सभी नेता और पार्टी को गाली दे चुके हैं, उन्हें मंच से भगा चुके हैं, फिर क्या जरुरत पड़ गयी सबके दरवाज़े की खाक छानने की? आज चोर और बेईमान लोगों का गली द्वार कैसे याद आ गया? कभी आर.एस.एस., भाजपा को गाली तो कभी वे सबसे अच्छे, ये दो चेहरा क्यों? आप क्यों असीम ताकात चाहते हैं? आपकी सिविल सोसाइटी भ्रष्टाचार को सिर्फ नेता और नौकरशाह तक क्यों सीमित रखना चाहती है|

भ्रष्टाचार के मूल मन्त्र को जानना होगा| जो भ्रष्टाचार गरीब को प्रभावित करता हो, जो भ्रष्टाचार आम जीवन को प्रभावित करता हो और जो राष्ट्र के साथ-साथ सम्पूर्ण मानव सभ्यता के संस्कृति को प्रभावित करता हो, उसे समझना होगा|

अन्ना जी, हमसब को अपने अंदर की गलत सोच को खत्म करना होगा| यह जो एक-दूसरे को अमर्यादित बातें से अलंकृत करने की परिपाटी शुरू हुयी है उसे रोकना होगा| कम से कम किसी ना किसी को तो इन तौर-तरीकों से अलग होना होगा| एक आग्रह है आपसे, ‘लोकतंत्र’ की रक्षा ‘भीड़तंत्र’ से नही किया जा सकता है - इस बात को समझें| भीड़ किसी बात का मापदंड नही हो सकता है| यदि ऐसा है तो राजनीतिज्ञों को गाली क्यों? फिर कतिपय लोगों को बाहुबली क्यों कहा जाता है? एक बात और याद रखने की जरूरत है, ईमानदार होने से और भला होने से ही सब कुछ को सही नही ठहरया जा सकता| आपसे आग्रह है, ‘खूंटा यहीं गड़े’ इन बातों को छोड़ आगे बढिए| जिद और अहंकार हमे कभी भी सही मंजिल पर पहुँचने नही देगा| अन्ना जी व्यावहारिक पहलू का समाज में महत्व है, इसे नही भूलना चाहिए| कहावत है, चोर मचाये शोर| यह जो भीड़ है; वह किसी की नही होती| ये लोग अपने जीवन के लिए सब कुकर्म करते हैं| बहुसंख्यक लोग समाज में गलत आदत से जीना चाहते हैं| देखा गया है कि गलत व्यक्ति भी अपनी मान्यता को समाज में अपने धन, पद, ताकात और रसूख के द्वारा मनवा लेते हैं| क्या ऐसे ही लोगों को हम सभ्य नागरिक मान लेंगे? सभ्य समाज को पूरी आज़ादी मिली हुई है कि जो उनके मन में आये वह बोलें और करें! उस सभ्य समाज के तौर-तरीके या कहिये उनकी अभिव्यक्ति और प्रतिक्रिया से न्यायालय, सरकार, प्रेस प्रभावित होकर अपना विचार बनाती है|

भीड़ ही सही है तो भुल्लर को फांसी क्यों? अफजल को फांसी क्यों? भीड़ ही सही है तो अयोध्या में मंदिर क्यों नही बना लेते, फिर न्यायालय की क्या जरूरत? भीड़ ही सही है तो ढोंगी संत महात्मा के हाथों में सत्ता क्यों नही दे देते? भीड़ ही सही है तो मंदिर के पुजारी और मस्जिद के इमाम की बात क्यों नही मान ली जाती? भीड़ ही सही है तो जादू दिखाने वाले पी.सी. सरकार को प्रधानमंत्री क्यों नही बना देते? भीड़ ही सही है तो नरेन्द्र मोदी को गलत नही कहना चाहिए, फिर बाल ठाकरे और राज ठाकरे को मनमानी करने की पूरी आज़ादी मिलनी चाहिए! या अगर भीड़ ही सही है तो कश्मीर में पूरी स्वायत्तता दे देनी चाहिए! क्यों नही आपलोग कश्मीर को वहाँ के लोगों के विचार पर छोड़ देते? फिर क्यों वहाँ स्वाभिमान या संविधान की बात उठती? भीड़ ही सही है तो लालू जी, मायावती, करूणानिधि, जयललिता, कनिमोझी, राजा, कलमाड़ी जी को बंद क्यों किया? क्यों इनलोगों को संवैधानिक पाठ पढाया गया? क्यों ये लोग जेल गए? भीड़ ही सही है तो – खालिस्तान को क्यों नही मान लिया गया, उल्फा की बात क्यों नही मानी गयी, लिट्टे को क्यों नही मान्यता मिली, क्यों नही तमिल देश को मान लिया गया, लादेन को क्यों मारा गया, सद्दाम को क्यों फांसी दी गयी, आज़ादी से लेकर आज तक प्रधानमंत्री की कुर्सी पर किसी आदिवासी, पिछड़े मुसलमान या दलित का बच्चा क्यों नही बैठा, न्यायालय में अधिक पद दलित और पिछड़े मुसलमान को क्यों नही दिया जाता? जहाँ सम्मान, बराबरी, पिछड़े नेता की बात आये तो चोर है, यह देश नही चला सकता, न्याय नही कर सकता, तब भीड़ को आधार क्यों नही माना जाता?

क्या कम कपड़े पहनकर, सिर्फ इंग्लिश बोलकर, इंडिया गेट पर कैंडल जला लेने मात्र को ही भीड़ मान लिया जाये और उसके बात को जबरदस्ती स्वीकार करवा दिया जाये!? अन्ना जी सोचिए, समझिए, चिंतन कीजिये, भीड़ और ईमानदारी किसी भी बात का मापदंड नही हो सकता| कहावत है, सैंया भईल कोतवाल तो अब डर काहे का| इस परंपरा को रोकना होगा|

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