एक बार संगीत के जादूगर
तानसेन से बादशाह अकबर ने पूछा – “क्या तुमसे भी अच्छा गाने वाला इस दुनिया में
कोई है?” तानसेन ने कहा – “हाँ जहांपनाह! मैं अपने गुरू स्वामी हरिदास के चरणों की
धुल भी नहीं हूँ|”
बादशाह ने कहा, “कभी मुझे
भी उनका संगीत सुनाओ!”
इसपर तानसेन ने गंभीर होकर
कहा, “हुजूर! वह किसी के सामने गाते नहीं हैं|”
“क्यों?” अकबर ने आश्चर्य
से पूछा|
“हुजूर! वे अपनी मर्जी के
मालिक हैं|”
अकबर के मन में एक टीस सी
उठी| उनका संगीत सुनने की इच्छा तीव्र हो गई| उन्होंने तानसेन से कोई रास्ता
निकालने को कहा, “उनका संगीत सुने बिना मुझे चैन नहीं मिलेगा|”
आखिर तानसेन ने एक तरकीब
सोंची| वह अकबर को लेकर उनके आश्रम जा पहुंचा| उसने बादशाह को एक पेड़ के पीछे छुपा
दिया| हरिदास उस समय समाधिस्थ थे| तानसेन उनके चरणों में जाकर गिर पड़ा|
“कौन? तानसेन?” गुरू जी ने
आँखें खोलकर कहा, “कहो! कैसे हो? स्वास्थ्य ठीक है? कैसे आना हुआ?”
तानसेन, “गुरू जी कुछ भूल
हो रही है|”
“अभी देखते हैं|”
गुरू जी के ऐसा कहने पर,
तानसेन तानपुरा उठाया और स्वर निकाला| एक स्थान पर उसने जानबूझकर गलत स्वर विन्यास
किया| गुरू जी ने वहीँ रोक दिया| तानसेन ने कहा, “गुरू जी! यहीं भूल हो रही है|”
गुरू जी ने तानपुरा उसके हाथ से लिया और फिर उसपर उंगलियां चलाने लगे| उन्होंने
ऐसा स्वर निकाला कि उड़ते पंछी ठहर गए| शावकों के झुण्ड चरना भूल गए| कुछ क्षण
गाकर, गुरू जी पूछे, “समझे तानसेन?”
“हाँ गुरू जी! अब मैं गाता
हूँ|” तानसेन ने तानपुरा लेकर वही राग सुना दिया| गुरू जी ने प्रसन्न होकर कहा,
“ठीक है| अब भूलना नहीं! इतने बड़े गायक को शोभा नहीं देता कि वह इस प्रकार से भूल
करे|”
तानसेन उठा और उन्हें दंडवत
प्रणाम करके आश्रम से बाहर निकल गया| बाहर आकार उसने देखा कि बादशाह सलामत
मूर्क्षित से बैठे हैं|
तानसेन, “आपने सुना
जहांपनाह?”
“तुम ऐसा क्यों नहीं गा
सकते?” अकबर ने पूछा|
तानसेन ने जवाब दिया,
“हुजूर! मैं बादशाह सलामत के लिए गाता हूँ और गुरू जी गाते हैं उनके लिए जो
बादशाहों के बादशाह हैं|”
No comments:
Post a Comment