Friday 10 February 2012

बादशाहों का बादशाह


एक बार संगीत के जादूगर तानसेन से बादशाह अकबर ने पूछा – “क्या तुमसे भी अच्छा गाने वाला इस दुनिया में कोई है?” तानसेन ने कहा – “हाँ जहांपनाह! मैं अपने गुरू स्वामी हरिदास के चरणों की धुल भी नहीं हूँ|”

बादशाह ने कहा, “कभी मुझे भी उनका संगीत सुनाओ!”
इसपर तानसेन ने गंभीर होकर कहा, “हुजूर! वह किसी के सामने गाते नहीं हैं|”
“क्यों?” अकबर ने आश्चर्य से पूछा|
“हुजूर! वे अपनी मर्जी के मालिक हैं|”

अकबर के मन में एक टीस सी उठी| उनका संगीत सुनने की इच्छा तीव्र हो गई| उन्होंने तानसेन से कोई रास्ता निकालने को कहा, “उनका संगीत सुने बिना मुझे चैन नहीं मिलेगा|”

आखिर तानसेन ने एक तरकीब सोंची| वह अकबर को लेकर उनके आश्रम जा पहुंचा| उसने बादशाह को एक पेड़ के पीछे छुपा दिया| हरिदास उस समय समाधिस्थ थे| तानसेन उनके चरणों में जाकर गिर पड़ा|

“कौन? तानसेन?” गुरू जी ने आँखें खोलकर कहा, “कहो! कैसे हो? स्वास्थ्य ठीक है? कैसे आना हुआ?”
तानसेन, “गुरू जी कुछ भूल हो रही है|”
“अभी देखते हैं|”
गुरू जी के ऐसा कहने पर, तानसेन तानपुरा उठाया और स्वर निकाला| एक स्थान पर उसने जानबूझकर गलत स्वर विन्यास किया| गुरू जी ने वहीँ रोक दिया| तानसेन ने कहा, “गुरू जी! यहीं भूल हो रही है|” गुरू जी ने तानपुरा उसके हाथ से लिया और फिर उसपर उंगलियां चलाने लगे| उन्होंने ऐसा स्वर निकाला कि उड़ते पंछी ठहर गए| शावकों के झुण्ड चरना भूल गए| कुछ क्षण गाकर, गुरू जी पूछे, “समझे तानसेन?”

“हाँ गुरू जी! अब मैं गाता हूँ|” तानसेन ने तानपुरा लेकर वही राग सुना दिया| गुरू जी ने प्रसन्न होकर कहा, “ठीक है| अब भूलना नहीं! इतने बड़े गायक को शोभा नहीं देता कि वह इस प्रकार से भूल करे|”



तानसेन उठा और उन्हें दंडवत प्रणाम करके आश्रम से बाहर निकल गया| बाहर आकार उसने देखा कि बादशाह सलामत मूर्क्षित से बैठे हैं|
तानसेन, “आपने सुना जहांपनाह?”
“तुम ऐसा क्यों नहीं गा सकते?” अकबर ने पूछा|
तानसेन ने जवाब दिया, “हुजूर! मैं बादशाह सलामत के लिए गाता हूँ और गुरू जी गाते हैं उनके लिए जो बादशाहों के बादशाह हैं|”

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