Monday 20 February 2012

युधिष्ठिर का यज्ञ


कुरुक्षेत्र युद्ध में विजय पाने की खुशी में पांडवों ने राजसूय यज्ञ किया| दूर-दूर से हजारों लोग आये| बड़े पैमाने पर दान दिया गया| यज्ञ समाप्त होने पर चारों तरफ पांडवों की जय-जयकार हो रही थी| तभी एक नेवला आया| उसका आधा शरीर भूरा था और आधा सुनहरा था| वह यज्ञ भूमि पर इधर-उधर लोटने लगा| सभी लोग उसे देखने लगे|

थोड़ी देर बाद नेवला रुका आर बोला, “तुम लोग झूठ कहते हो| यह यज्ञ वैभवशाली नहीं हो सकता| यह अधूरा ही है|”
लोगों ने कहा, “क्या कहते हो? ऐसा महान यज्ञ तो संसार में कभी नहीं हुआ|”
नेवला, “यज्ञ तो वह था, जहाँ लोटने से मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया था|”



लोगों के द्वारा पूछने पर नेवले ने उस घटना का इस प्रकार वर्णन किया:

“दूर एक गाँव में एक दरिद्र ब्राह्मण अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था| कथा कहने से जो थोड़ा-बहुत मिल जाता था, उसी से सभी मिल-जुलकर खाते थे| एक बार उस गाँव में अकाल पड़ गया| लोग दाने-दाने को मोहताज हो गए| कई दिनों तक उस ब्राह्मण परिवार को अन्न नसीब नहीं हुआ| एक दिन कहीं से थोड़ा आटा आया| ब्राह्मण के पुत्रवधू ने रोटी बनाई और चार टुकड़ों में बांटकर थाली लगाया|”

“जैसे ही सभी खाने बैठे कि दरवाज़े पर एक अतिथि आ गए| ब्राह्मण ने अपनी हिस्से की रोटी उस अतिथि को दी, लेकिन उतने ही रोटी खाने से अतिथि का पेट नहीं भरा| तब ब्राह्मण की पत्नी ने भी अपने हिस्से की रोटी अतिथि को दे दी| उसे भी खा चुकने के बाद अतिथि भूखा ही था| तब एक-एक कर बेटे और पुत्रवधू ने भी अपने हिस्से की रोटियां अतिथि को दे दिए| तब कहीं जाकर उस अतिथि का पेट भर पाया| अतिथि आशीष देकर चले गए| उस रात पूरा परिवार भूखा ही रह गया|”

“अतिथि जब भोजन कर रहे थे तो अन्न के कुछ दाने जमीन पर गिर गए थे| मैं उन कणों पर लोटने लगा| उन कणों का जहाँ-जहाँ मेरे शरीरी से स्पर्श हुआ, वहाँ मेरा शरीर सुनहरा हो गया| तब से मैं सारी दुनिया घूमता रहता हूँ कि फिर कहीं वैसा ही यज्ञ हो ताकि मैं अपने शरीर के बचे हिस्से को भी सुनहरा कर सकूँ| लेकिन वैसा वैभवशाली यज्ञ आज तक मुझे देखने को नहीं मिला और मेरा आधा शरीर अभी तक भूरा ही है|”

नेवले का आशय समझकर युधिष्ठिर लज्जित हो गए|

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