Saturday 11 June 2011

नैतिक अध्यात्मिक शिक्षा के बगैर शिक्षा का कोई औचित्य नहीं


आज़ादी के बाद से लेकर आज तक जो भी सरकार केंद्र और राज्य में बनी, सभी ने अपने-अपने नज़रिए से शिक्षा के महत्व को समझते हुये अनेकों कार्यक्रम अमल में लाया| कुछ सरकर अपने राजनैतिक फायदे को ध्यान में रखकर शिक्षा के एजेंडे पर काम किये| जो भी सरकार बनी शिक्षा को अपनी पार्टी के हित के लिए इस्तेमाल किया| शिक्षा का जो सही मतलब हमारे पूर्वजों ने बतलाया था, किसी सरकार ने गंभीरता से उस पर अमल नहीं किया| शिक्षा का मतलब था “सा विद्या या विमुक्तये” (शिक्षा ऐसी जो मनुष्य को हर बंधन से मुक्त करे)| बंधन का मतलब है, हर तरह की जड़ता, बुराई, संकीर्णता, कुरीतियां आदि, इन सबसे मन को दूर रखना| शिक्षा ऐसी हो जिसमे मानवता को महत्व मिले और साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक विकास हो| ऐसी शिक्षा जिससे मनुष्य को आत्म ज्ञान मिले|
आत्मज्ञान का अर्थ-‘आत्म मोक्षार्थम जगत हिताय च’ अर्थात अपना मोक्ष और जगत का कल्याण| ज्ञान ऐसी हो जिसे प्राप्त कर लोग अपने को व्यावहारिक जीवन में उतारकर मानव और जगत कल्याण की बात करें| दुनयावी ज्ञान बदलता रहता है| एक समय कोलकाता देश कि राजधानी थी आज दिल्ली हो गयी| उसी तरह उत्तर प्रदेश की राजधानी पहले इलाहाबाद थी आज लखनऊ हो गया| इसी तरह के दुनियावी ज्ञान बदलते रहते हैं| केरल में सबसे ज्यादा शिक्षा है, पैसा है, लेकिन लाईन में लगकर करीब-करीब सभी लोग शराब का सेवन करते हैं| इसलिए कहा गया है कि शिक्षा को जब तक नैतिक और व्यावहारिक ज्ञान में परिवर्तित नहीं करेंगे तब तक उसे सही ज्ञान नहीं कह सकते| उससे ना तो समाज का भला हो सकता है और नहीं मनुष्य का|
आप जानते हैं सरकार के गलत नीति और नियत के कारण इस देश के शिक्षा का व्यवसायीकरण हो गया है| शिक्षा का मतलब हो गया है धनोपार्जन| आज बड़े-बड़े पूंजीपति लोग सिर्फ व्यवसाय के लिए स्कूल, कॉलेज, इंस्टीट्यूट आदि खोलकर रखे हैं| आज आप देखेंगे कि शहरों में, छोटे-छोटे कस्बों में गोबर-छत्ते की तरह स्कूल खोले जा रहे हैं| बड़े-बड़े निजी स्कूलों में बच्चों की प्रतिभा को नहीं देखी जाती है, देखा जाता है तो सिर्फ यह कि इनके माता-पीता कितना आयकर देते हैं| इन स्कूलों में बच्चों का इंटरव्यू नहीं होता है, होता है उनके माता-पीता का| आपने कभी सुना कि मध्यकालीन युग में कभी कोई प्रतियोगिता हुआ और किसी ने टॉप किया? किसी कोचिंग के बारे में सुना!? या कोई ऐसे शिक्षक जो अपना विज्ञापन देता हो कि यह मेरा ज्ञान-दिया-शिष्य है| उनदिनो तो सिर्फ शिक्षक को संतुष्टि मिलनी चाहिए थी कि उनके गुरुकुल के छात्र का जीवन आत्मज्ञान से परिपूर्ण हों| आज तो अर्थ और संचार का युग है, सभी निजी शिक्षक स्कूल, कॉलेज, में होड़ लगी है; दुनिया को दिखने के लिए कि हम कितने (नोट छापने वाला) मानव-मशीन तैयार कर लें| ये लोग डॉक्टर, इंजिनियर, वकील, प्रोफ़ेसर, जज, प्रधानमंत्री तो बनाये पर एक भी (नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण) मनुष्य (सार्वभौमिक अर्थ में) नहीं बना सके जो समाज का निर्माण कर सके, जो मानव के कल्याण की बात करे और उसपर अमल भी करे| ये लोग किताबी ज्ञान के नाम पर खुद करोड़पति तो बने ही मनुष्य को भी जातिवादी, संकीर्ण मानसिकता से युक्त, आडम्बर और अंधविश्वास के (अ)धार्मिक राह पर चलने वाला बनाया| डॉक्टर तो बनाये पर शोषण के लिए; वकील तो बनाये पर लूटने के लिए; प्रोफेसर, शिक्षक तो बनाये पर सिलेबस और ज्ञान को बेचने के लिए; इंजिनियर बनाये पर पुल, सड़क अन्य चीज़ों में मिलावट के लिए, जिसके कारण सैकड़ों-हजारों लोगों के जान जाती है| नेता बनाये पर जात-पात करने, धर्म के नाम पर राजनीति करने, देश को लूटने, समाज को बांटकर अपना घर भरने और कुर्सी को सुरक्षित रखने के लिए| जिन लोगों को इन पढ़े-लिखे लोगों ने ज्ञान दिया- मशीन तरह जीने के लिए, ऊँचे रसूख से जीने के लिये, भौतिक सुविधा से स्वयं को परिपूर्ण करने के लिए, उनकी ना तो कभी किसी ने पूजा किया और ना ही समाज में इज्जत हुई| इज्जत अगर मिली भी तो सिर्फ भय के कारण, आवश्यकता के कारण, उनके आत्मज्ञान के कारण नहीं| जो महापुरुष समाज में स्थापित हैं, जिनकी हमलोग पूजा करते हैं, जिन्हें हमलोग सही मायने में संत कहते हैं, उनके इतिहास को भी जानना जरुरी है| ऐसे महापुरुष, संत लोग ना तो कभी कोई किताब पढ़ा, ना तो कभी कोई स्कूल गए, ना ही मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरूद्वारे गए| ऐसे महापुरुष आज पूरे दुनिया के लिए भगवान हैं| उनकी तस्वीर हम लगाते हैं| वह हमारे वन्दनिय हैं-पुज्यनिय हैं| असल में पुज्यनिय ऐसे ही महापुरुष हैं जिनमे दुनिया को निर्मित और संचालित करने की शक्ति है| जो सर्वशक्तिमान हैं, सब कुछ संचालित करता हैं| परन्तु आज जो लोग पुज्यनिय हैं या जिनकी जय-जयकार हो रही है, उनके पीछे अर्थ, कुर्सी, सत्ता, ताकात, रसूख, भय, दिखावेपन वाला नाम, जाति, मजहब, धर्म, के कारण: ऐसे लोग ज्ञान के कारण नहीं पूजे जाते| सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन जिन्होंने शिक्षा और शिक्षक के सम्मान को एक नया आयाम दिया; उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि जो शिक्षक विद्यार्थी के जिज्ञासा को, मतलब- जानने के भूख को अनंत तक जगाकर रखे, सही मायने में वही शिक्षक हैं|
सरकार हमेशा कहती है कि हम रोजगारोन्मुख शिक्षा को बढ़ावा देंगे, दसवीं तक के शिक्षा को अनिवार्य और निःशुल्क करेंगे, परन्तु आज तक सरकार के कथनी और करनी में हमेशा फर्क दिखाई दिया| केन्द्र में बी.जे.पी (BJP) की सरकार बनी तो काफी हाय-तौबा मचा कि मुरली मनोहर जोशी के द्वारा शिक्षा का भगवाकरण हो रहा है| इसीतरह हमेशा जिसकी सरकार आई विवादों में शिक्षा रही| आज भी शिक्षा का प्रत्येक पहलू दोषपूर्ण देखने को मिलता है| शिक्षा के सवाल को लेकर वाद-विवाद चलता रहा है| आखिर एक तरफ सारकार शिक्षा को आमलोगों तक पहुँचाने की बात करती है, दूसरी तरफ पूँजीपतियों को बढ़ावा देती है| यह दोनों बातें कैसे संभव है? आप अनिवार्य शिक्षा की बात करते हैं पर यह नहीं कहते कि जहाँ प्रधानमंत्री जी और राष्ट्रपति जी का पुत्र देश के सबसे महंगे और सुविधायुक्त स्कूल, कॉलेजों में पढेंगे वहीं दूसरी तरफ गाँव के सबसे अंतिम पायदान का गरीब व्यक्ति जो अपने कमाई से सिर्फ पेट ही भर सकता है, उसके बच्चे की पढाई ऐसी सरकारी स्कूलों में सरकार करवाना चाहती है, जहाँ शिक्षक नाम मात्र के हैं, स्कूल भवन नहीं है, बुनियादी सुविधा नदारद है| पढाई के नाम पर बस हाजरी ली जाती है| मिड डे मील के नाम पर सड़ा हुआ खाना उपलब्ध है|  ऐसे स्कूल को सिर्फ कहने के लिए स्कूल कहा जा सकता है| ऐसे ही स्कूल में गरीब के बच्चे पढेंगे| इतना बड़ा फर्क, जिस देश में शिक्षा के सवाल पर हो उस देश का कभी भी कल्याण संभव नहीं हो सकता| दोहरी शिक्षानीति एक ही देश और एक ही संविधान के तहत!? जब तक दो तरह की सुविधा होगी, दो तरह की शिक्षा होगी, दो तरह के शिक्षक होंगे, दो तरह के सिलेबस होंगे तब तक अनिवार्य और फ्री शिक्षा का क्या मतलब?

आखिर सरकार आमलोगों को कैसी शिक्षा देना चाहती है? जब तक सरकार की मंसा, राजा और रंक, अमीर और गरीब में फर्क मिटने की नही हो जाती तब शिक्षा में एकरूपता कैसे संभव है? सरकार को चाहिए कि एक तरह का स्कूल, एक तरह की शिक्षा और एक तरह की सुविधा हो| रजा और रंक दोनों के बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा और एक ही तरह के स्कूल हों| कम से कम शिक्षा का व्यवसायीकरण होने से रोका जाना चाहिए| शिक्षा का मतलब है मानव का निर्माण, सबको नैतिक और रोजगारोन्मुख सामान्य शिक्षा| हमारे ऋषि-मुनि या गुरुकुल के युग में शिक्षा को सेवा, तप, साधना के भाव से देखा जाता था, उस युग में कभी भी शिक्षा के बदले लेने-देने की परंपरा नहीं थी| हमारे गूरू लोग मनुष्य निर्माण में अपना जीवन लगा देते थे ताकि एक अध्यात्मिक, नैतिक व्यक्ति का निर्माण हो जिसमें विश्व, राष्ट्र और मानव कल्याण हेतु का बोध हो; ताकि सार्वभौमिक समाज का निर्माण हो सके, खुशहाल समृद्ध विश्व का निर्माण हो सके| एक चूल्हा एक समाज के भाव से मनुष्य और समाज में रिश्ते को बनाये|

हमारे आदिगुरु शिव दुनिया को वसुधैव कुटुम्बकम के रूप में देखना चाहते थे| आनंदमूर्ति जी चाहते थे मानव-मानव एक हों, विश्व बंधुत्व कायम हो, दुनिया के नैतिकवान एक हों, मानव का धर्म एक हो, वह हो- सेवा धर्म, मनुष्य धर्म; ऐसी शिक्षा हमारे ऋषि-मुनि, संत, सन्यासियों ने दी| परन्तु हमारे चुनी हुई सरकार ने शिक्षा जैसी जीवन के अतिमहत्वपूर्ण आवश्कता को फीस से जोड़ दिया जो महापाप है| जब गूरू अर्थ/धन के लिए पढायेंगे तो वह शिक्षा नैतिक हो ही नहीं सकती वह शिक्षा राष्ट्र और मानव कल्याण के लिए हो ही नहीं सकता| शिक्षक के ज्ञान की कोई कीमत नहीं होनी चाहिए| ज्ञान के भी खरीददार हो जायें तो फिर जीवन में बच क्या जायेगा| यह बात जरूर है कि शिक्षक की प्रतिष्ठा प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से भी ऊपर हो; वह हमारे समाज में पूज्यनिय हों, वंदनिय हों| शिक्षक को जीवन जीने के लिए प्रत्येक तरह की सुविधा मिले जो देश में सबसे ऊपर हों| आज शिक्षक को समाज में सबसे हेय दृष्टि से देखा जाता है| शिक्षक की नौकरी करना अब कोई नहीं चाहते| मजबूरी में शिक्षक बन रहे हैं, सिर्फ जीवन को जीने के लिए, परिवार को इस महंगाई के युग में जिन्दा रखने के लिए| यदि जीने के लिए रूपया जरुरी नहीं हो तो कोई नौजवान शिक्षक नहीं बने| पहले परिवार या जिस गाँव में गुरू होते थे उस परिवार को छोड़िये गाँव का सम्मान बढ़ जाता था, परन्तु आज जिस परिवार में शिक्षक हों उसे (आर्थिक रूप से) दोयम दर्जे का परिवार समझा जाता है|

स्थिति इतना भयावह हो गया है कि शिक्षक-परिवार में कोई बड़ा परिवार अपना रिश्ता भी नहीं करना चाहता| यदि रिश्ता हो भी जाये तो सिर्फ अधिक दहेज के बल पर| अब आप ही सोचिये बच्चों  का निर्माण करने वाले गुरु की जब यह स्थिति है तो शिक्षा की क्या दशा होगी; आप सोच सकते हैं| गुरुकुल के युग में गुरू बच्चे के घर का एक अन्न का दाना खाना भी उचित नहीं समझते थे; कुछ लेना तो दूर की बात थी| अब तो तनख्वाह यदि नहीं बढ़ेगी तो हड़ताल, अधिक सुविधा के लिए यदि भत्ता नहीं मिलेगा तो हड़ताल; सप्ताह में दो दिन की छुट्टी होनी चहिये, अधिकतर अन्य सरकारी कामों में लगे रहते हैं| पहले शिक्षक सिर्फ गुरुकुल से मतलब रखते थे| किसी दुनियावी बातों से कोई मतलब नहीं| वर्तमान के शिक्षक यदि दुनिया की बातों में, राजनीति में नहीं हस्तक्षेप करेंगे तो वे जी ही नहीं पाएँगे| पहले गुरु को पूजा जाता था, समाज में भगवान तुल्य प्रतिष्ठा दी जाती थी|
भक्त/संत/दास कबीर ने तो गुरु का स्थान भगवन से भी बढ़ कर माना है| उन्होंने कहा है-
गुरु गोविन्द दोऊं खड़े काको लागूं पाँव
बलिहारी गुरु आपनी गोबिंद दियो मिलाय
उनका कोई जात, धर्म, मजहब नहीं था| सिर्फ एक ही धर्म था सेवा धर्म, मानव के कल्याण का धर्म, राष्ट्र धर्म, जीव धर्म| पहले गुरु सिर्फ मनुष्य को जीवात्मा से परमात्मा में मिलाने की कोशिश करते थे| आज के शिक्षक अपने जाति के नेता हुआ करते हैं| राजनैतिक पार्टी का जात और धर्म के आधार पर अपने क्षेत्र में नेतृत्व करते हैं| शिक्षक का रूप गुंडों वाली हो गयी है| आज के शिक्षक दुनियावी, मायावी, संकीर्णता से ग्रसित हैं| आज उन्हें किसी तरह पुरस्कार नहीं मिलेगा यदि वे किसी विशेष जाति, धर्म का ठप्पा नही लगाये हैं| पुरस्कार के लिए जरूरी है जात और पैरवी; यह नहीं तो शिक्षक की कोई कीमत नहीं| आज के शिक्षक पहले निज कल्याण की बात करते, तब जाति के कल्याण की बात करते, फिर अपने सरकार के कल्याण की बात करते| क्या ऐसे शिक्षक से मानव निर्माण की बात सोची जा सकती है? सरकार को चाहिए कि कम से कम शिक्षा को किसी भी कीमत पर निजी लोगों के हाथों में न दे| निजी लोग कभी भी सेवा या समर्पण के भाव से कोई काम नहीं करते जब तक किसी भी धंधे में तीन से चार गुणा फायदा नहीं हो|

अब आप ये बतायें जो करोड़ों रुपये लगाकर एक स्कूल को खोलते हैं या फ्रेंचाइजी लेकर चलाते हैं, वो महात्मा, साधू या सन्यासी बनकर तो चलाएंगे नहीं| घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या? ऐसे लोग अर्थ लगाकर अर्थ ही कमाएंगे ये लोग भजन तो करेंगे नहीं!

मेरा मानना है इस देश में यदि अत्यधिक व्यापार समाज में कुछ फल फूल रहा है तो वह है निजी स्कूल, निजी अस्पताल, निजी होटल, निजी शराब का दुकान और बार| खास तौर पर स्कूल का व्यापार में कई तरह के सेठ लोगों को मुनाफा है, कुछ ही दिनों में खरबपति बन जाते हैं| साथ-साथ समाज में इज्जत भी मिल जाती है| स्कूल के मालिक सभी कुकर्म करके रुपये कमाते| शोषण देखना है तो कोई स्कूल में देखे| ऐसे धनलोभी पशु-लोग के नाम के पीछे कुछ ही दिनों में आचार्य की उपाधि लग जाती है| टी.वी. पर ऐसे व्यवसायी लोग प्रवचन देने लगते हैं जो मन और कर्म से समाज को ठगने के लिए शिक्षा के व्यापार में लगे हैं| ऐसे लोग रुपया कमाते तो हैं नकली ज्ञान बेचकर, परन्तु उस रुपये के बदौलत सभी तरह के प्रतिष्ठा को प्राप्त करते हैं| क्या ऐसे व्यवसायी-वर्ग से मानव निर्माण की कल्पना की जा सकती है? कभी नहीं| इसलिए मेरा मानना है शिक्षा को किसी  भी कीमत पर निजी हाथों में नहीं देना चाहिए| जब तक शिक्षा का व्यवसायिकरण होता रहेगा तबतक भारत में हम नैतिक ज्ञान वाले अच्छे व्यक्ति का निर्माण नहीं कर सकते|

यह ठीक है कि आज अर्थ का युग है| अर्थ के बगैर जीवन नहीं चल सकता, अर्थ के बगैर राष्ट्र को समृद्ध, उन्नत, विकासशील नहीं बना सकते; परन्तु यह अत्यंत विचारणीय सवाल यह है कि क्या हम नैतिकता को समाप्त कर लें, आत्मज्ञान की आवश्यकता को जीवन से अलग कर लें? आज जो जाति, धर्म, क्षेत्रवाद, भाषावाद जैसी संकीर्णता सिर्फ एक ही कारण से बढ़ता जा रहा है; उसका कारण है पैसा और पावर (शक्ति) की जिजीविषा| क्या अर्थ को सब कुछ समझकर भारत की अध्यात्मिक, सांस्कृतिक, और पारंपरिक संस्कार जो विरासत में मिली, जिसके कारण आज भी हमारा देश बेमिसाल है, और दुनिया के सामने एक उदहारण है; उसे समाप्त कर दिया जाये?

मै सरकार से आग्रह करूँगा कि शिक्षा ऐसी हो जिसमे, अध्यात्मिक, नैतिक ज्ञान के साथ रोजगारोन्मुख हो ताकि विश्व, राष्ट्र, समाज में मानव श्रम का संतुलन कायम किया जा सके| उसी रुपये के कमाने के अंधी-होड़ के कारण ग्लोबल वार्मिंग, पानी, प्रकृति, उर्जा- प्रकृति के तमाम साधन-संसाधनों में हद दर्जे का असंतुलन उत्पन्न कर दिया है| क्या रुपये से प्रकृति में संतुलन लाया जा सकता है!? ये संतुलन आएगा (अधिकृत/सत्तासीन) विवेकशील मानव के इच्छाशक्ति से| मनुष्य या सरकार सिर्फ वर्तमान और निकट भविष्य को सोचकर बजट या लाभ-हानि का व्यवस्था करती है- वह भी कोरपोरेट घरानों से पूछ कर, उनके हितों का खयाल रखते हुए| २० साल बाद क्या होगा इसे ध्यान में रख कर कोई योजना नही बनती है; और अगर बनती भी है तो सिर्फ कागजों पर; जनता को भ्रमित करने के लिए| इसलिए सरकार को हर परिस्थिति में शिक्षा के व्यवसायीकरण पर रोक लगाना चाहिए| शिक्षा ऐसी हो जो जीवन के साथ प्राकृति, श्रृष्टि और मानव के निर्माण का पाठ पढाये|

शिक्षक के चयन में विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए ताकि वह सिर्फ शिक्षा और जीवन निर्माण के प्रति समर्पित हों| शिक्षक को किसी भी कीमत पर जाती, धर्म, राजनीति और लाभ-हानि तथा अन्य प्रशासनिक दायित्व (मसलम- विधानसभा या लोकसभा के चुनाव की कार्यभार) से जुड़े जैसे कार्यक्रमों से दूर रखना ही होगा|

अगर कोई जनप्रतिनिधि शिक्षक को उनके कर्तव्य याद दिलाता है तो वह शिक्षक महोदय धमकी देते हैं कि मै स्कूल नहीं जाऊंगा मेरी पोस्टिंग घर के पास करो| मेरे पास मेरे जाति का इतना वोट बेंक है, हम भी आपके जात हैं, मेरे पास भी ताकात है, चुनाव में सबक सिखा देंगे...आदि-आदि| ऐसी बातें शिक्षक करते हैं| अब आप ही सोचिये कि क्या होगा बच्चों के भविष्य का? माता-पीता को सोचना होगा कि बच्चों के भविष्य को हम किसके हाथ में दें? क्या आप ऐसे शिक्षक के हाथों में बच्चे के भविष्य को देंगे जो अपने स्कूल में सिर्फ जाति, धर्म, मजहब जैसे वाद की जानकारी देता हो? जो शिक्षक विवेकानंद पैदा ना करे, कबीर, भगत, सुभाष पैदा ना करे, अब्दुल कलाम पैदा ना करे, क्या बच्चे का भविष्य वहाँ सुरक्षित है? वैसे माता-पिता भी अपने बुढ़ापे को यादकर आज के कलयुग में अपने-अपने बच्चों को कम-से-कम उम्र में ही नोट छापने वाला मशीन ही बनाना पसंद करते हैं| ऐसे स्कूल में ही बच्चों को सब कुछ बेचकर पढाना चाहते हैं| अब आप ही सोचिये, पिता भी इसलिए सब कुछ बेचकर लगा रहे हैं कि यदि किताबी ज्ञान लेकर डॉक्टर, आई.ए.एस., आई,पी.एस., कोई बड़ा पदाधिकारी बनता है तो जितना धन अभी है उससे कई गुणा और अधिक हो जायेगा| आने वाली पीढ़ी भी सुरक्षित और हम भी सुरक्षित| यह नहीं सोंचेंगे कि सुरक्षित होना या रखना हमारे हाथों में नहीं है, वह सिर्फ भगवान के हाथों में है| जो मिला है या मिल रहा है, सब उसी की कृपा से है| फिर यह लूट-खसोट क्यों? इतना शोषण क्यों? समाज में इतना बंटवारा क्यों? किस बात के लिए मारा-मारी?

मुझे लगता है अब छात्र नौजवानों को अपने भविष्य के साथ-साथ, विश्व और मानव कल्याण के लिए भी सोचना चाहिए| सभी नौजवानों को आगे आना होगा, शिक्षा के व्यवसायीकरण को रोकने के लिए| सरकार खुद एक अलग से बजट की व्यवस्था करे जो सिर्फ अच्छे शिक्षक का निर्माण करे| साथ-साथ राजा और रंक, अमीर और गरीब का बेटा एक साथ ज्ञान प्राप्त करे| किसी के मन में हीन भावना नहीं पनपे| ऐसी शिक्षा व्यवस्था से ही समाज की दूरियां कमेगी| शोषण का एक बड़ा पक्ष खत्म हो जायेगा| समाज का प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे के नजदीक आ पायेगा| इसी से सुंदर समाज और सुंदरतम भारत का निर्माण हो सकेगा|

धन्यवाद!

1 comment:

  1. Apke wichar shiksha ke sandarbh mein achchhe parantu is par dhyan kisika nahin hai.Jarurat hai shiksha niti mein amul chool priwartan ki.

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