Tuesday 14 June 2011

सरकार और मिडिया की संवेदनहीनता के कारण नाग्मानंद जैसे सैकड़ों सच्चे समाजसेवी गुमनामी के अँधेरे खो गए...|



सिर्फ मीडिया के भरोसे और उनके कृपा से चलने वाली संस्था या सरकार हमेशा कहती है कि  मीडिया ने समाज में क्रांति लायी है, मीडिया की सक्रियता के कारण लोगों में सामाजिक चेतना जगी है| हमेशा याद रखिये कि किसी भी सन्दर्भ के दो पहलू होते हैं| यह सच है कि मीडिया में अभी भी  कुछ लोग स्वतंत्र, निर्भीक, नैतिक चरित्र वाले प्रगतिशील विचारधारा के वाहक हैं और इसी से मीडिया की विश्वसनीयता आमलोगों के बीच बची हुई है| जिस तरह से जनता/नागरिक नेता और सरकारी बाबुओं के बारे में, चौक-चौराहा पर उजला कपड़ा ये सफारी सूट को देखते ही अच्छे-अच्छे शब्दों से अलंकृत करने लगते हैं कि देखो चोर, बेईमान, अति जातिवादी, करोड़पति नेता...अन्य तरह-तरह की बातें करने लगते हैं उससे भी ज्यादा आजकल लोग मीडिया के बारे में कहने लगे हैं कि एक बोतल शराब पर खबर लिखवा लो या अखबार अब सरकार के पे रोल पर चल रहा है इत्यादि इत्यादि| आप यह नहीं भूलें कि मीडिया चलाने वाले लोग भी इसी देश और समाज के नागरिक हैं, इसी देश में इन्हें भी व्यवसाय करना है या कर रहे हैं| सर्वविदित है कि बिना विज्ञापन के कोई अखबार या खबरी चैनल नहीं चल सकता| उसके लिए सरकार तथा कॉर्पोरेट क्षेत्र के लोग ही उन्हें काम आयेंगे, फिर मीडिया स्वतंत्र और निष्पक्ष कैसे हो सकती है?

यह भी सच है कि घोड़ा अगर घास से दोस्ती करेगा तो जियेगा कैसे! उसी तरह जो मीडिया को धार देकर अपने जीवन को जोखिम में डालकर जो पत्रकार भाई काम कर रहे हैं, वो भी तो इसी समाज से आये हैं| ऐसा तो है नहीं कि वो किसी के रिश्तेदार नहीं हैं| उनके और उनके परिवार की रिश्तेदारी, ब्याह अंतरजातीय या बिना दहेज के हो रहे हैं क्या? जब पत्रकार बंधु भी किसी खास जाति, किसी खास धर्म के हैं, वे भी किसी के रिश्तेदार हैं और इसी समाज के घटनाक्रम से प्रभावित भी होते हैं तब वे निष्पक्ष कैसे रह सकते हैं? कैसे वो न्याय करेंगे खबरों के साथ? वह कोई संत या भगवान तो है नहीं कि उनका मन, कर्म, चिंतन, विचार समाज से प्रभावित ना हो| उन्हें भी परिवार चलाना है| उन्हें भी आज के उपभोग्तावादी युग में अच्छे से रहने लायक साधन तो चाहिए ही होता है, फिर कैसे मीडिया स्वतंत्र हो सकती है!?

यह छुपा नही है कि अखबार, पत्रिका और खबरिया टीवी चैनल के मालिक कौन-कौन हैं! एकाध को छोड़ कर सब पर उद्योगपतियों का मालिकाना हक़ है| आम लोगों की ऐसी धारणा बनती जा रही है कि ऐसे में कोई भी संस्था कैसे अपने को स्वतंत्र और निष्पक्ष रख सकती है? अब तो दबे जुबान से यहाँ तक चर्चा होने लगी है कि मीडिया ने क्रांति (परिवर्तन) का नहीं बल्कि कुछ हद तक भय का वातावरण बनाया है| मीडिया के कारण अनेकों निर्दोष व्यक्ति, परिवार, समाज तथा संस्था प्रभावित हो रही है| लोगों के निजी जीवन में मीडिया की (कभी-कभी)अतिसक्रिय भूमिका से आतंक का सा माहौल बना है| जिसे जब चाह हीरो बनाया, जिसे जब चाह जीरो| अब तो राज्यों में विपक्ष की सामत नहीं है| पूजा, भजन, प्रवचन, गुणगान, सिर्फ सत्ता में बैठे सरकार की ही होती है| विपक्ष पर मीडिया का भय सीधा दीखता है| लोग जानते हैं कि जिनके पास अकूत संपत्ति है वह मीडिया और पत्रकारों का राजदुलारा हो सकता है|

आप अभी के ताज़ा घटना को देख रहे होंगे कि कैसे अन्ना हजारे जी और रामदेव जी के सन्दर्भ को अपने-अपने तरीके से अपने फायदे के आईने से देखा गया/जा रहा है| मीडिया के मालिक वही काम करते या करवाते हैं, जिससे उन्हें फायदा पहुंचता है| कुछ दिन पूर्व आशुतोष जी (आई.बी.एन.-७ के) का लेख और कल (तारीख़- १३/०६/२०११) के दैनिक हिंदुस्तान में छपे लेख में काफी भिन्नता है| कल का जो लेख है वो सही तस्वीर को दिखाता है और काफी हद तक यही सच भी है| लेकिन हमारे  पत्रकार बंधु को एक ३४ वर्षीय, संघर्षशील नाग्मानंद (जिन्हें हम एक निष्ठावान समर्पित समाजसेवी ही कहेंगे) पिछले ४ महीनों से प्रकृति और मानव जीवन की रक्षा के लिए एक ताकतवर व्यवस्था के खिलाफ आमरण अनशन पर थे|
 
राज्य और केन्द्र सरकार दोनों को घटना की जानकारी थी| परन्तु किसी ने संवेदना नहीं दिखाई| जानते है क्यों? क्योंकि मीडिया ने हाय-तौबा नहीं मचाई और आमजन तक बात नहीं पहुंची| क्योंकि इन बाबा के तरह इनके साथ सम्पूर्ण कॉर्पोरेट जगत की कृपा नहीं थी| या लाखों-करोड़ों लोग इनके शिष्य नहीं थे| इस घटनाक्रम से कोई सरकार प्रभावित नहीं हो रही थी, न ही किसी सरकार या पार्टी का वोट बैंक खराब हो रहा था और न ही जनता में किसी तरह का आक्रोश था| सरकार हमेशा जनता के आक्रोश और वोट बैंक के चलते ही भय खाती है| पार्टी या सरकार बिना लाभ, लक्ष्य के कोई काम नहीं करती| धारना-प्रदर्शन के पीछे भी पार्टी या नेता का अपना लाभ और लक्ष्य होता है| आम साधारण व्यक्ति जो अनवरत समाज की बुराई के खिलाफ लिख रहा है या जगह-जगह पर नक्सल समस्या, भूख, गरीबी, पानी, उर्जा, पर्यावरण, जमीन अधिग्रहण, भ्रष्टाचारी आदि कि समस्या को लेकर लड़ रही है, उसे सुध लेने वाला ना तो मीडिया है, ना पार्टी और सरकार को तो खैर कोई मतलब ही नही है|

ऐसे छोटे-मोटे बाबा/व्यक्ति के मरने से क्या असर पड़ने वाला है सरकार या पार्टी पर? इस देश में वैसे ही सड़क दुर्घटना में लाखों लोग और बीमारी से लाखों लोग प्रत्येक साल मरते हैं| क्या फर्क पड़ता है किसी व्यवस्था या संस्था को? लोग तो कुत्ते-बिल्ली की तरह मरने के लिए ही जन्म लेते हैं! आप खुद ही पढ़े या सुने होंगे इरोम शर्मीला, एक जुझारू महिला, जिसे हम सही मायने में समाजसेवी कहेंगे; यह महिला सैनिक (आर्म्ड फोर्स) को जो स्पेशल पॉवर (आर्म्ड फ़ोर्स स्पेशल पवार एक्ट) दे रखा है जनता के मानवाधिकार को और मौलिक अधिकार के हनन के लिए, इसके विरुद्ध लगातार ११ वर्ष से आमरण अनशन पर है| उसके बारे में मीडिया या सरकार की राय क्यों सही नहीं है?

मेरा मानना है कि भीतर ही भीतर, खास तौर पर हिंदी भाषा-भाषी राज्य को इन मुद्दों से कोई लेना-देना नहीं होना या आमलोगों की भागीदारी नहीं होना भी सरकार के लिए सुकून की बात है| अब तक सरकार ने तीन बार आत्महत्या करने के प्रयास में केस दर्ज कर शर्मीला जी को जेल भेज दिया और जबरदस्ती नाक से खाना खिलवाया गया | देश में कहीं कोई संवेदना नहीं दिखी| कोई बाबा, संत, समाजसेवी में औपचारिकता छोड़ कोई संवेदना नहीं दिखी; क्योंकि किसी भी संस्था को इस घटनाक्रम से कोई लाभ या हानि होता नही दिखा| ऐसे हजारों घटनाक्रम हमारे देश में वक्त के अँधेरे में गुमनाम होकर खो जाते हैं| कितने ही संघर्षशील समाजसेवी के मुद्दे और लक्ष्य उनके जीवन लीला के समाप्ति के साथ ही खत्म हो गयी और जो बची है वह भी खत्म हो जायेगी| समाज में मीडिया की पहुँच बढ़ी है, जिसके कारण पढ़े-लिखे सभ्य समाज के लोग हर मुद्दे पर अपना विचार बनाते हैं और (गलत या सही) अपना विचार देते रहते हैं; चाहे समाज पर इसका जो भी सही या गलत असर पड़े, उससे इन्हें कोई लेना-देना नहीं|
 
सरकार ने यह मान लिया है कि यह जो किताबी विद्वान लोग हैं; जो अशिक्षित, मासूम, बहुसंख्यक आवाम का नेतृत्व करती है, वही राष्ट्र के पथ प्रदर्शक हैं, राष्ट्र के नीति निर्धारक भी वही हैं, जिसके कारण आम-जन सरकार के एजेंडे से गायब है| यह जो विकृत सोच पनप चुकी है, इसी कारण से इरोम शर्मीला हो या नाग्मानंद जी, आज सरकार और मीडिया दोनों के लिए अप्रासंगिक हैं|

मेरा मानना है कि देश के आवाम को मुख्य रूप से दो शक्ति चला रही है –  पहला ‘कॉर्पोरेट व्यवस्था’ जो अर्थ और मीडिया दोनों को अपना मजबूत हथियार मानती है और दूसरा ‘सरकार’ जो कॉर्पोरेट और मीडिया दोनों व्यवस्था से प्रभावित भी है और उनका आपस में आतंरिक समझौता भी है| इन्हीं दोनों व्यवस्था के कारण गरीब, भूखे, मासूम, निर्दोष, बेसहारा, बेरोजगार, अशिक्षित आवाम की इतनी दयनीय स्तिथि है|

मेरा मानना है इन दोनों व्यवस्था से अलग हटकर नौजवानों को आगे आना होगा ताकि सरकार या व्यवस्था के कारण किसी स्वामी नागमानंद जी की मौत न हो और न ही इरोम शर्मीला पर कोई ज़ुल्म कर सके| उनके सही आवाज़ को कोई दबा नही सके|

धन्यवाद!

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